ये लेख दीनदयाल उपाध्याय की ‘पॉलटिकल डायरी’ से लिया गया है, जो उन्होंने 4 अगस्त 1959 को लिखा था, जिसका शीर्षक है ‘सरकार पर अधिकाधिक निर्भरता’
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नई दिल्ली : आज दीनदयाल उपाध्याय की जयंती है और उनके साथ एक बड़ी बात ये थी कि सरकार किसी की भी हो, वो वही बात करते थे, जो उन्हें सही लगती थी. कभी भी विचारों में फायदे या नुकसान के लिए उन्होने बदलाव नहीं किया. जनता को आत्मनिर्भर रहने के लिए कौन कह सकता है? सोचिए आज कोई विपक्ष का नेता ये बात कहे कि हर बात के लिए सरकार की तरफ मुंह मत ताकिए, बल्कि खुद आत्मनिर्भर बनिए तो सोचिए जनता उसको क्या कहेगी?
आज के विपक्ष में आदर्शवादी नेताओं की कमी?
वैसे क्या किसी विपक्षी नेता में आज इतनी हिम्मत है कि वो जनता से इस तरह की कोई मांग कर सकें? उनकी हर मांग, हर सवाल सरकार से ही होती है, यहां तक सही मुद्दे पर भी तारीफ के बजाय वो सरकार पर ही सवाल उठाते हैं, जबकि दीनदयाल उपाध्याय विपक्ष में रहते हुए भी सरकार की मजबूरियां और सीमाएं समझते थे, इसलिए जनता को भी सलाह देने से नहीं चूकते थे.
आज पढ़िए उनका वो लेख जो उन्होंने नेहरू सरकार के दौरान लिखा था, ये लेख दीनदयाल उपाध्याय की ‘पॉलटिकल डायरी’ से लिया गया है, जो उन्होंने 4 अगस्त 1959 को लिखा था, जिसका शीर्षक है ‘सरकार पर अधिकाधिक निर्भरता’
राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने हैदराबाद में भाषण करते हुए प्रत्येक बात या वस्तु के लिए सरकार की ओर देखने की मनोवृत्ति की निंदा की है. उन्होंने यह मत व्यक्त किया कि जनता को आत्मनिर्भर बनना चाहिए और अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सरकार पर निर्भर नहीं रहना चाहिए. इस सम्बंध में उन्होंने एक विकेन्द्रीकरण पद्धित की संस्तुति की, जिसमें मनुष्य अपने व्यक्तित्व को अक्षुण्ण रख सके. उन्होंने सामाजिक कार्यकर्ताओं से अपने प्रयास चालू रखने का अनुरोध किया और कहा कि उन्हें इस भावना का- जो स्वतंत्रता के बाद भारी पैमाने पर विकसित हुई है- परित्याग कर देना चाहिए कि उनका कार्य पूरा हो गया है.
'भारतीय जीवन शैली और हिंदू परिकल्पना'
हर विचारशील व्यक्ति जिसके मन में भारतीय जीवनपद्धति की कुछ कल्पना है, राष्ट्रपति के कथन से सहमत होगा. हिंदू परिकल्पना के अनुसार सरकार के अत्यंत सीमित कार्य हैं. इस तथ्य के अतिरिक्त कि मनुष्य से जिन चार पुरुषार्थों के पालन की अपेक्षा है, राजनीति उनमें से एक पुरुषार्थ का केवल एक अंग है, यह माना जाता है कि सरकार और प्रशासन के काम स्थानीय स्तर पर चलते हैं. भारत में केन्द्रीयकरण का लक्ष्य प्रशासन के व्यवहारिक क्षेत्र की अपेक्षा भावनात्मक क्षेत्र में अधिक रहा. जबकि राष्ट्रीय और सांस्कृतिक एकता की एक अंतरंग भावना यहां मौजूद थी, वह स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न प्रकार से अपनी अभिव्यक्ति करती थी. इससे ना केवल लोग आत्मविश्वासी बने, बल्कि सभी क्षेत्रीय तथा अन्य दलों के समर्थकों के साथ हर व्यक्ति के लिए पूर्ण विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ. इसलिए हिंदुत्व अपने स्वरूप के बारे में इतनी विविधता और विस्तार से ऐसा चित्र प्रस्तुत करता है कि सामान्य पर्यवेक्षक को यह समन्वय और एकता से रहित प्रतीत हो सकता है.
आधुनिक विश्व एकता को केवल अपने भद्दे यांत्रिक पहलू से देखता है. एकरूपता को एकता का आवश्यक लक्षण माना जाने लगा है. किसी जीवित प्राणी में उसकी यांत्रिक एकता अपने को एकरूप ढंग से प्रकट नहीं करती. एक यंत्र एक ही क्रिया को बार-बार और किसी भी स्थान में दोहरा सकता है, किंतु मनुष्य उस यांत्रिक ढंग से कार्य करने में सक्षम नहीं है.
'इस तरह बना सरकार को उत्तरदायी ठहराने का स्वभाव'
यदि सरकार पर अति-निर्भरता की मनोवृत्ति है तो इसके अनेक कारण हैं, जिनमें से सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण को स्वतंत्रता के लिए कांग्रेस के आंदोलन में ढूंढा जा सकता है. जब हम लोगों पर विदेशी शासक शासन चलाते थे, तब अपनी सारी खामियों के लिए सरकार को उत्तरदायी ठहराने का स्वभाव हममें विकसित हो गया. तब राष्ट्रीय नेताओं और गांव के गंवारों ने समान रूप से जनता को यह बताया कि यदि वह अपनी कठिनाइयों से मुक्ति पाना चाहते हैं तो विदेशी जुए को उतार फेंकें. जबकि अंग्रेजों ने सूक्ष्म प्रचार की विभिन्न पद्धतियों के द्वारा जनता पर यह छाप डालने का प्रयत्न किया कि उन्हें अत्यंत परोपकारी, न्यायी और दयालु सरकार प्राप्त है, आंदोलनकारियों ने सदैव उसे शैतान की सरकार के रूप में चित्रित किया.
उन लोगों से कहा गया कि उन्हें जिस वस्तु की आवश्यकता हो, सरकार से मांगें. यदि गांधीजी तथा अन्य नेताओं ने कुछ स्वैच्छिक सेवाएं हाथ में लीं, तो कुछ लोगों ने समानांतर सरकार की स्थापना का कार्य पसंद किया. जब असहयोग आंदोलन प्रारम्भ हुआ, तब राष्ट्रीय विद्यालयों और कॉलेजों की स्थापना की गई. ऐसा इसलिए नहीं किया गया कि राष्ट्रीय नेता सरकारी नियंत्रण से शैक्षणिक संस्थाओं को स्वतंत्र रखने में विश्वास रखते थे, यह तो सरकारी स्कूलों और कॉलेजों के केवल बहिष्कार के लिए किया गया था. स्थानीय न्यायालय भी स्थापित किए गए किंतु इनकी स्थापना का भी कारण कांग्रेस की यह इच्छा नहीं थी कि सारे विवाद स्थानीय परम्परा और रीति रिवाजों के अनुसार जनता द्वारा सम्मानपूर्ण ढंग से सुलझाएं जाएं बल्कि इसके पीछे भी ब्रिटिश प्रशासन को ठप्प कर देने का उद्देश्य था.
'अपनी सरकार-पराई सरकार की भावना सही नहीं'
जो लोग ताड़ी की दुकानों पर धरना देते थे, वे केवल स्वंय की सरकार की कामना से प्रेरित थे, ताकि वह विधान तथा मद्य निषेध लागू कर सकें. इसलिए यह स्वभाविक ही थी कि जब अपनी सरकार आई, तब सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपना कार्य पूरा हुआ मान लिया और शेष सबके लिए सरकार पर निर्भर हो गए. इन सब बातों को रणनीति के आधार पर उचित ठहराया जा सकता है. जब स्वतंत्रता प्राप्त करना हमारा एकमात्र लक्ष्य था, तब जनता में स्वतंत्रता के प्रति आकांक्षा उत्पन्न करने के हर साधन का औचित्य था. किंतु स्वतंत्रता प्राप्त होने के साथ ही इस दृष्टिकोण में संशोधन करने की आवश्यकता थी. सरकार को सिद्धांत में और व्यवहार में अपने सीमित कार्यक्षेत्र के बारे में जनता को अवगत कराना चाहिए था.
इसके विपरीत एक कल्याणकारी राज्य का आदर्श अपनाकर उसने लोगों को सरकार पर और अधिक निर्भर बना दिया. स्वैच्छिक, निजी, प्राचीन और वर्तमान संस्थाओं की उग्र आलोचनाओं के कारण लोग उनसे विमुख हो गए. यदि ये संस्थाएं अवांछनीय और अकार्यक्षम थीं तो नई संस्थाओं की स्थापना नहीं की जानी चाहिए थी. समाजवाद की शपथ लेने वाली सरकार जनता के साथ उत्तरदायित्व नहीं बंटा सकती. होता यह है कि जब सरकार विफल हो जाती है, तभी जनता को बलि के बकरे के रूप में सामने लाया जाता है.
इस खेदजनक स्थिति के निर्माण का एक कारण और भी है, सामान्य भावना ऐसी है कि बिना बड़ी योजनाओं के, जिसका परिणाम केन्द्रीयकरण है, हम कुछ नहीं कर सकते. कहा जाता है कि, ‘विश्व केन्द्रीयकरण की ओर दौड़ रहा है, और हम उसके प्रभाव से बच नहीं सकते’. इस असहायता की भावना ने ही, यदि इसे विश्वास और उत्साह का अभाव ना कहें तो तो राजनीति, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों की हमारी सभी विकेन्द्रित संस्थाओं के लिए मौत की घंटी बजा दी है. यदि हम आधुनिक विश्व के प्रभाव से नहीं बच सकते, और अपने लिए नए मार्ग नहीं खोज सकते जो आधुनिक परिस्थितियों के लिए अधिक अनकूल हों, तो हम सारे विश्व के साथ गड्ढे में चले जाएंगे. किंतु तथ्य यह है कि विश्व का प्रभाव इतना शक्तिशाली और अपरिहार्य नहीं है, जितनी हम उसके बारे में कल्पना करते हैं.
समाजवाद की तृष्णा के परित्याग की अपील
हम अभी भी अपने पैरों पर खड़े रह सकते हैं, और ऐसे मार्ग निकाल सकते हैं, जिसका लोग अनुसरण करें. किंतु इसके लिए जीवन के प्रति, नीतियों के प्रति, और आयोजन के प्रति हमारे दृष्टिकोण में आमूल सुधार आवश्यक है, हमें इसकी सीमितताओं को स्वीकार करना चाहिए. इसलिए यह आवश्यक है किस सरकार को इसके लिए तैयार किया जाए और राष्ट्रपति यदि जनता को वाकई में स्वावलम्बी बनाना चाहते हैं तो उन्हें इस दिशा में अपने प्रभाव का उपयोग करना चाहिए- कि वह समाजवाद की तृष्णा का परित्याग करें और उसका उस क्षेत्र में, जो जनता का न्यायसम्मत और परम्परागत क्षेत्र हैं, सिद्धांत और व्यवहार में प्रवेश रोक दें.