Netaji Jayanti special: सुभाष चंद्र बोस कैसे बने देश के नेताजी, पढ़ें पूरी कहानी
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Netaji Jayanti special: सुभाष चंद्र बोस कैसे बने देश के नेताजी, पढ़ें पूरी कहानी

सच ये है कि भारत में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के योगदान को नज़रअंदाज़ किया गया. लेकिन सत्य को कभी दबाया नहीं जा सकता. आजादी के 71 वर्षों के बाद भारत की सरकार ने नेता जी सुभाष चंद्र बोस और आजाद हिंद फौज की यादों को देश की राजधानी में एक नया घर दिया है.

सुभाष चंद्र बोस की फाइल तस्वीर.

नई दिल्ली: महान स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) की जयंती पर देशभर में उन्हें याद किया जा रहा है. 23 जनवरी 1897 को जन्में सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) ने अपने जीवनकाल में ऐसे-ऐसे काम किए हैं जो किसी भी आम इंसान के लिए असंभव है. जब देश के नायकों का जिक्र होता है, तो लोग अक्सर फिल्मी पर्दे के कलाकारों और खिलाड़ियों की बात करते हैं, उनका जन्मदिन मनाते हैं और सोशल मीडिया पर उसे ट्रेंड करवाते हैं. लेकिन यही लोग भारत की आजादी के असली नायकों को भूल जाते हैं. उन्हें नेताजी सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) की याद कभी नहीं आती. भारत के इतिहास में सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) के कद को छोटा करने की बहुत कोशिशें हुईं, लेकिन अब समय बदल रहा है.

अंग्रेजों के सपनों पर नेताजी ने किया था वज्रपात
हम भारत के स्वतंत्रता संग्राम पर कुछ ऐसे तथ्य देश के सामने रखेंगे, जिन्हें आजादी के बाद बहुत चालाकी से दबा दिया गया. भारत में इतिहास की किताबों में आजादी के आंदोलन को सिर्फ़ कांग्रेस पार्टी और भारत छोड़ो आंदोलन तक सीमित कर दिया गया. प्रयोजित इतिहास को इस तरह पढ़ाया गया कि देश में गलतफहमी का एक हिमालय खड़ा हो गया. लेकिन आज हमारे तथ्यों की गर्मी से गलतफहमी का ये हिमालय पिघल जाएगा. 

निहत्थी भीड़ पर लाठियां बरसाना अंग्रेज़ों का बहुत प्रिय शौक था. अंग्रेज़ भारत पर सैकड़ों वर्षों तक राज करने के सुनहरे सपने देख रहे थे. लेकिन अंग्रेज़ों के इन सपनों पर वज्रपात किया था नेताजी सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) और आजाद हिंद फौज ने. 

भारत छोड़ो आंदोलन की हुई थी भ्रूण हत्या
इतिहास की किताबों में वर्ष 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन को इस तरह महिमा मंडित किया गया है. जैसे भारत छोड़ो आंदोलन से डरकर ही अंग्रेज़ों ने भारत को छोड़ दिया था. लेकिन सच्चाई ये है कि अंग्रेज़ों ने भारत छोड़ो आंदोलन की भ्रूणहत्या कर दी थी. यानी इस आंदोलन को पैदा होने से पहले ही खत्म कर दिया था. इस आंदोलन के शुरू होने से पहले ही कांग्रेस के बड़े-बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया गया था.

इसके बाद बिना किसी नेतृत्व वाली जनता सड़कों पर उतरी, और उस पर अंग्रेज़ों ने भयंकर अत्याचार किए. Secretary of State for India के आंकड़ों के मुताबिक उस दौरान 9 अगस्त से 30 नवंबर 1942 तक अंग्रेज़ों ने करीब 1 हज़ार क्रांतिकारियों की हत्या की थी. 3 हज़ार 215 लोगों को घायल कर दिया था और एक लाख से ज़्यादा लोगों को गिरफ्तार कर लिया था. महात्मा गांधी, पंडित नेहरू, मौलाना आजाद और सरदार पटेल जैसे बड़े-बड़े नेताओं को कई वर्षों के लिए जेल में डाल दिया गया था.

उस वक्त ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल थे. वह इतने सख्त और निर्मम थे कि उन्हें महात्मा गांधी के कमज़ोर स्वास्थ्य की भी कोई चिंता नहीं थी. दुखी होकर महात्मा गांधी ने जेल के अंदर ही 21 दिन का अनशन शुरू किया था. लेकिन निर्दयी अंग्रेज़ों ने महात्मा गांधी के सामने झुकने के बजाय उनकी चिता सजाने के लिए चंदन की लकड़ियां मंगवा ली थीं.

ये सारे तथ्य आपको प्रायोजित इतिहासकारों की किताबों में नहीं मिलेंगे. एक विशेष परिवार की परिक्रमा करने वाले बुद्धिजीवियों ने इन सभी तथ्यों को देश की जनता से छुपा लिया था. 

आजाद हिंद फौज ने पैदा की राष्ट्रवाद की भावना
वर्ष 1945 में दूसरा विश्वयुद्ध खत्म हुआ था. उस दौर में ब्रिटेन ने सोवियत संघ और अमेरिका के साथ मिलकर पूरी दुनिया में करोड़ों लोगों का नरसंहार किया था. अमेरिका ने जापान के शहर हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम से हमला किया था.

अंग्रेजों के अंदर हृदय और संवेदना जैसी कोई चीज़ नहीं थी. ऐसे निर्दयी लोग, सिर्फ अहिंसा के डर से भारत छोड़ देंगे. ये सोचना भी एक क्रूर मज़ाक है. ब्रिटेन ने भारत को आजादी दी. इसकी बड़ी वजह थी आजाद हिंद फौज के सैनिकों के बलिदान से पैदा हुई राष्ट्रवाद की भावना.

नेताजी की सेना के चलते परेशान थे ब्रिटिश
वर्ष 1945 से वर्ष 1951 के बीच Clement Attlee ब्रिटेन के प्रधानमंत्री थे. इसी दौरान भारत को आजादी दी गई थी. आजादी के बाद Clement Attlee ने भारत का दौरा किया था. उस वक्त पश्चिम बंगाल के कार्यवाहक गवर्नर P B Chakraborthy थे, वह कलकत्ता हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस भी थे. पीबी चक्रबर्ती ने इतिहासकार, RC मजूमदार की किताब 'A History Of Bengal'के प्रकाशक को एक पत्र लिखा. इस पत्र में उन्होंने लिखा कि 'जब मैं गवर्नर था, तब भारत को सत्ता सौंपने वाले ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री Attlee ने कोलकाता के राजभवन में दो दिन बिताए थे. उस समय मैंने आजादी के वास्तविक कारणों के बारे में उनके साथ लंबी चर्चा की थी. एटली के लिए मेरा सीधा सवाल ये था कि महात्मा गांधी का भारत छोड़ो आंदोलन कुछ समय पहले ही खत्म हो गया था और 1947 में ऐसी कोई परिस्थिति नहीं थी कि ब्रिटेन को जल्दबाज़ी में भारत छोड़ना पड़े. 

इसके जवाब में Attlee ने पीबी चक्रबर्ती को कई कारण बताए थे. Attlee ने कहा था कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) की सैन्य गतिविधियों की वजह से भारत की सेना और नौसेना के सैनिकों की वफादारी, British Crown यानी ब्रिटिश राज के प्रति कम हो रही थी. इस चर्चा के अंत में पीबी चक्रबर्ती ने एटली से ये पूछा कि भारत छोड़ने के फैसले पर, महात्मा गांधी का कितना असर था? इस सवाल को सुनकर, एटली ने मुस्कुराते हुए एक शब्द का इस्तेमाल किया, और वो शब्द था Minimal, यानी कम से कम कई इतिहासकारों ने P B Chakraborthy और ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री Clement Attlee के बीच हुई इस चर्चा को अपनी किताबों में जगह दी है.

25 लाख भारतीय फौज से कैसे लड़ती 40 हजार वाली ब्रिटिश सेना
ब्रिटेन भारत की उसी सेना से डरा हुआ था, जिसकी मदद से उसने विश्व युद्ध जीता था. दूसरा विश्व युद्ध खत्म होने के बाद भारत के लाखों सैनिक स्वदेश लौट रहे थे. विश्व युद्ध के बाद 25 लाख भारतीय सैनिकों को De-Commission किया जा रहा था, यानी उनकी सेवाएं समाप्त की जा रही थीं. भारत के सैनिकों ने इटली, जापान और जर्मनी की सेनाओं को हराया था. वर्ष 1945 के आसपास भारत में सिर्फ 40 हज़ार अंग्रेज जवान मौजूद थे और वो 25 लाख भारतीय सैनिकों की इस विशाल सेना से नहीं लड़ सकते थे. 

इसलिए अंग्रेज़ों ने भारत पर कब्जा बनाए रखने के लिए नई योजना बनाई. उन्होंने भारत के सैनिकों का मनोबल तोड़ने की साजिश रची. अंग्रेज़ों की कैद में आजाद हिंद फौज के कई अधिकारी और सैनिक थे. अंग्रेज़ों ने इन सभी को फांसी देने के लिए लाल किले में सुनवाई की. इतिहास में इस घटना को Red Fort trials कहा जाता है. अंग्रेज़ों को लगा कि नेता जी के साथियों को सार्वजनिक फांसी देकर भारत के मनोबल को तोड़ा जा सकता है. 

लेकिन फरवरी 1946 में Royal Indian Navy के 20 हज़ार भारतीय जवानों ने अंग्रेज़ों के खिलाफ़ विद्रोह कर दिया. तब सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) भारत में मौजूद नहीं थे. लेकिन भारत के जवान आजाद हिंद फौज के नारे लगा रहे थे. इस परिस्थिति को देखकर अंग्रेज़ बहुत घबरा गए थे, और उनकी आर्थिक स्थिति भी कमज़ोर हो रही थी. अंत में उन्होंने भारत को आजादी देने में ही अपनी भलाई समझी.

नेताजी के विचारों से सहमत नहीं थी गांधीजी
हम जानते हैं कि प्रायोजित इतिहास के झूठ को लगातार पढ़ने वाले लोगों को इन बातों पर विश्वास नहीं होगा. लेकिन हम उन सभी लोगों से ये कहना चाहते हैं कि उन्हें भारत के इतिहास का गहराई से अध्ययन करना चाहिए.

सच ये है कि भारत में नेताजी सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) के योगदान को नज़रअंदाज़ किया गया. लेकिन सत्य को कभी दबाया नहीं जा सकता. आजादी के 71 वर्षों के बाद भारत की सरकार ने नेता जी सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) और आजाद हिंद फौज की यादों को देश की राजधानी में एक नया घर दिया है. आज उसी लाल किले में क्रांति के मंदिर का निर्माण किया गया है जहां कभी अंग्रेजों ने राष्ट्रवाद की भावनाओं को दफ्न करने की कोशिश की थी. 

महात्मा गांधी सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) के विचारों से सहमत नहीं थे. यही वजह है कि धीरे-धीरे कांग्रेस पार्टी के अंदर की परिस्थितियां सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) के खिलाफ हो गईं. सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose), कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष थे, लेकिन इसके बावजूद महात्मा गांधी और उनके करीबियों ने सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) के खिलाफ ही असहयोग आंदोलन छेड़ दिया था. आखिर में उन्होंने कांग्रेस पार्टी से इस्तीफा दे दिया. उस दौर में कांग्रेस पार्टी ही देश की व्यवस्था थी और सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) कांग्रेस की व्यवस्था में कभी Fit नहीं हो पाए. इस बात का खामियाज़ा उन्हें आज तक भुगतना पड़ रहा है. 

नेताजी ने दिया महात्मा गांधी को दी राष्ट्रपिता की संज्ञा
उस दौर में बहुत सारे लोग क्रांतिकारियों के भेष में राजनेता थे, जो आजादी मिलने के बाद सत्ता और कुर्सी के बड़े-बड़े सपने देख रहे थे. लेकिन सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) एक राजनेता नहीं बल्कि सच्चे देशभक्त थे. इसीलिए मतभेद होने के बाद भी उन्होंने ही महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता की संज्ञा दी थी. 

वर्ष 1943 का वो दौर जब ब्रिटेन विश्वयुद्ध में धीरे-धीरे जीत की तरफ बढ़ रहा था. भारत छोड़ो आंदोलन को पूरी तरह कुचल दिया गया था. उस कठिन दौर में भी 30 दिसंबर 1943 को जापान की मदद से आजाद हिंद फौज का अंडमान-निकोबार पर कब्जा हो गया था. वहां सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) ने पहली बार तिरंगा फहराया था. ब्रिटिश राज के रहते हुए उन्होंने भारत की पहली आजाद सरकार बनाई थी, जिसे कई देशों की तरफ से मान्यता भी मिल गई थी. 

निराशा के उस दौर में भी सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) के शौर्य ने जनता को जोश से भर दिया था. किसी भी क्रांति के लिए सबसे ज़्य़ादा ज़रूरी होता है जोश. और सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) में जोश की कोई कमी नहीं थी. उन्होंने आजाद हिंद फौज और आजाद हिंद सरकार के ज़रिए पूरे देश में जोश भर दिया था. आप इसे उस दौर का How is the Josh वाला क्षण, कह सकते हैं.

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