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नई दिल्ली: जब कोई विवाद तमाम कोशिशों के बाद भी नहीं सुलझता, तब आखिरी रास्ता होता है अदालत और जब तमाम अदालतों में भी कोई मामला नहीं सुलझता, तब आखिरी विकल्प होता है सुप्रीम कोर्ट. इसीलिए किसी भी देश में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अंतिम सत्य मान लिया जाता है, जिसे चुनौती नहीं दी जा सकती. आज भी हमारे देश में लोगों को सुप्रीम कोर्ट पर पूरा भरोसा है. लेकिन अब इस स्थिति ने एक खतरनाक मोड़ ले लिया है.
कोर्ट जब भी कोई फैसला सुनाता है तो जाहिर है, एक पक्ष जीतता है और दूसरा पक्ष हारता है. लेकिन अब हारने वाले पक्ष अदालत से बाहर, जजों पर दबाव बनाते हैं, उन्हें बदनामी का डर दिखाते हैं, भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हैं, सोशल मीडिया के जरिए उनका Character Assassination करते हैं और उनकी ट्रोलिंग होती है. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में कृष्णा नदी के पानी के बंटवारे को लेकर सुनवाई चल रही थी और सुनवाई करने वाले दो जजों में से एक महाराष्ट्र के थे और दूसरे कर्नाटक के थे. दोनों ही जजों पर इस मामले में इतना दबाव बनाया गया कि उन्हें लगा कि वो चाहे कितना भी निष्पक्ष और सही फैसला सुनाएं, लेकिन उनकी ट्रोलिंग, बदनामी और अपमान होना तय है. इसीलिए दोनों जजों ने इस केस की सुनवाई से खुद को Recuse कर लिया.
ये भारत के इतिहास में शायद पहली बार हुआ है, जब देश की सबसे बड़ी अदालत के दो जजों ने किसी केस की सुनवाई से खुद को इसलिए हटा लिया क्योंकि अगर वो ऐसा नहीं करते तो उन्हें इसके गम्भीर परिणाम भुगतने पड़ते और सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग का सामना करना पड़ता. ये भारत की न्यायिक व्यवस्था और लोकतंत्र के लिए बहुत ही खतरनाक ट्रेंड की शुरुआत है. इसलिए आज हम सबसे पहले इसी खतरे का विश्लेषण करेंगे.
ये मामला 1400 किलोमीटर लम्बी कृष्णा नदी के पानी के बंटवारे का है, जो चार राज्यों के बीच बहती है. ये राज्य हैं, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश. इन चारों राज्यों के बीच झगड़ा इस बात को लेकर है कि इस नदी के पानी पर किस राज्य का कितना अधिकार है. इस विवाद का निपटारा करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की बेंच बनाई गई थी.
इनमें पहले जज थे, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और दूसरे जज थे, जस्टिस एएस बोपन्ना. जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ महाराष्ट्र से आते हैं जबकि जस्टिस एएस बोपन्ना कर्नाटक से आते हैं. ये मामला भी इन्हीं राज्यों से जुड़ा है. इसलिए ये दोनों जज नहीं चाहते थे कि भविष्य में अगर वो इस मामले पर कोई फैसला दें तो उन पर पक्षपाती होने के आरोप लगाए जाएं. इसलिए इन दोनों ने तय किया कि वो खुद को इस मामले की सुनवाई से हटा लेंगे.
यही नहीं एक अंग्रेजी अखबार के मुताबिक इस केस की सुनवाई शुरू होने से कुछ दिन पहले इन दोनों जजों के पास कई ईमेल और पत्र भी आए थे, जिनमें उनके गृह राज्यों का हवाला देकर ये आरोप लगाए गए थे कि वे सुनवाई और निर्णय में अपने राज्य के पक्ष में फैसला दे सकते हैं. इनमें से एक जज ने इस बात की पुष्टि भी की है. उन्होंने अपने अनुभव को डरावना बताते हुए कहा है कि वो इस केस में चाहे कितना ही अच्छा और निष्पक्ष फैसला क्यों ना सुना देते, लेकिन इसके बावजूद उन्हें निशाना बनाया जाता और उनकी ट्रोलिंग होती. यानी अब ट्रोल आर्मी अदालतों पर और इस देश के जजों पर हावी हो रही है.
किसी केस से कोई जज, जब खुद को अलग कर लेता है तो वो केस किसी दूसरे जज को सौंप दिया जाता है. अगर सुनवाई दो या उससे अधिक जजों की बेंच कर रही होती है, और सभी जज खुद को उस केस से हटा लेते हैं तो ऐसी स्थिति में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को नए सिरे से नई बेंच का गठन करना पड़ता है. इस मामले में अब ऐसा ही होगा.
हमारे देश की न्यायपालिका में इसे लेकर कोई नियम कानून मौजूद नहीं है, जो जजों को किसी केस से हटने के फैसले से रोकता है. ये निर्णय केवल जजों के विवेक पर निर्भर करता है. जब भी किसी जज को लगता है कि उनके किसी केस में सुनवाई करने से Conflict of Interest यानी हितों में टकराव की स्थिति बन सकती है तो वो खुद को उस केस से अलग कर लेते हैं.
ये हितों का टकराव किसी भी तरह का हो सकता है. जैसे, किसी जज का पक्षकार कंपनी में शेयर होना, किसी से व्यक्तिगत संबंध होना या किसी खास पृष्ठभूमि से आना. लेकिन इस मामले में हितों के टकराव का प्रश्न था ही नहीं. बल्कि दोनों जजों को डर था कि अगर वो सुनवाई करते हैं और कितना ही अच्छा फैसला देते हैं, तब भी उन्हें हमारे देश के कुछ लोग पक्षपाती बता कर निशाना बनाएंगे. यानी अब जजों को बदनामी और अपमान का डर दिखा कर उन पर दबाव बनाने की कोशिश की जाती है.
वर्ष 1987 में सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम टिप्पणी की थी और बताया था कि अगर भविष्य में किसी जज के सामने किसी केस से खुद को हटाने की स्थिति बनती है तो उसे क्या करना चाहिए. तब अदालत ने कहा था, 'अगर कोई जज किसी केस की सुनवाई से हटना चाहता है तो उसे ये फैसला मामले में जो पक्षकार हैं, जो पार्टी है, उनकी मांग के हिसाब से करना चाहिए.' नोट करने वाली बात ये कि इस मामले में तो सभी पक्षकार चाहते थे कि जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस एएस बोपन्ना ही इस केस को सुनें. लेकिन उन्हें बदनामी का डर दिखाया गया.
भारत का लोकतंत्र चार स्तम्भों पर टिका है. कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका और चौथा स्तंभ है पत्रकारिता. इनमें से अगर एक स्तंभ भी कमजोर हो जाए तो इस देश का लोकतंत्र बर्बाद हो सकता है. हमारे देश का एक खास वर्ग न्यायपालिका को कमजोर करके ऐसा ही काम कर रहा है.
आज इस विषय पर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस अर्जन कुमार सीकरी ने हमसे बात की है और उनका कहना है कि आज हमारे देश में एक ऐसी ट्रोल आर्मी काम कर रही है, जो जजों को डराने का काम करती है.
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने अपनी आत्मकथा, Justice For The Judge में इस खतरे के बारे में विस्तार से बताया है. वो इस पुस्तक के Page Number 116 पर लिखते हैं कि भारत की न्यायपालिका को खतरा, सरकारों से नहीं बल्कि उस खास विचारधारा वाले समूह और मुट्ठीभर लोगों से है, जिन्होंने खुद को न्यायपालिका का ठेकेदार घोषित कर दिया है. ये लोग संख्या में कम जरूर हैं लेकिन वैचारिक तौर पर काफी संगठित हैं. ये लोग बड़ी बड़ी पत्रिकाओं और अखबारों में लेख लिखते हैं और न्यायपालिका का जो फैसला इन्हें अच्छा नहीं लगता या इन्हें सूट नहीं करता, उस पर संगठित तरीके से प्रहार करते हैं, ताकि इन लोगों का दबाव न्यायपालिका पर बना रहे.
इसी में रंजन गोगोई ये भी लिखते हैं कि ये हमारे देश के वही लोग हैं, जो लोकतंत्र और न्यायपालिका को बचाने की बातें करते हैं. लेकिन इसी के नाम पर लोकतंत्र को समाप्त भी कर रहे हैं. पिछले दिनों जब मैंने रंजन गोगोई से बात की थी, तब उन्होंने इस ट्रोल आर्मी के खतरे के बारे में बताया था.
एक लाइन में कहें तो ये घटना भारत की न्यायिक व्यवस्था और लोकतंत्र के लिए बहुत ही खतरनाक ट्रेंड की शुरुआत है. क्योंकि अगर ट्रोल आर्मी हमारे देश की अदालतों और जजों पर हावी हो जाएगी, उन्हें बदनामी और अपमान का डर दिखाएगी, तो न्याय बचेगा ही नहीं.