Foreign Minister S. Jaishankar Biography: भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर फिर चर्चा में है. पहलगाम हमले के बाद जब ऑपरेशन सिंदूर के जरिये भारत पाकिस्तान में आतंकी कमर तोड़ रहा था तो जयशंकर ने फिर संकटमोचक की तरह कूटनीतिक मोर्चा संभाला. यही वजह रही कि अमेरिका, सऊदी अरब, यूएई, ईरान, रूस जैसे बड़े देशों ने आतंकवाद पर भारत के सख्त रुख को जायज ठहराया, जबकि पाकिस्तान की शहबाज शरीफ सरकार सिर्फ अपने चुनिंदा देशों तुर्की-चीन और अजरबैजान तक सीमित रह गया. इसे पाकिस्तान के लिए संघर्षविराम की गुहार लगाने की बड़ी वजह माना जा रहा है.
तमिल हिंदू जयशंकर के पिता के सुब्रमण्यम भी सिविल सेवा में थे. उनके एक भाई संजय सुब्रमण्यम इतिहासकार और एस. विजय कुमार आईएएस रहे.जयशंकर का जन्म 9 जनवरी 1955 को हुआ था. जयशंकर की पढ़ाई दिल्ली के एयरफोर्स स्कूल से हुई और फिर बेंगलुरु के मिलिट्री स्कूल से. दिल्ली यूनिवर्सिटी के सेंट स्टीफेंस कॉलेज से केमिस्ट्री ग्रेजुएट जयशंकर ने फिर जेएनयू से राजनीति विज्ञान में एमए और एमफिल किया और अंतरराष्ट्रीय संबंध विषय में पीएचडी की, इसमें परमाणु कूटनीति में उनकी विशेषज्ञता थी.
जयशंकर की पहली पत्नी शोभा की शादी कैंसर से हो गई थी, जिनसे उनकी मुलाकात जेएनयू में हुई थी. फिर जापानी मूल की क्योको से उन्होंने विवाह किया, जो जापान में भारतीय दूतावास के दौरान उनसे मिली थीं. उनके दो बेटे ध्रुव और अर्जुन और एक बेटी मेधा थी.जयशंकर को रूसी, अंग्रेजी, तमिल, हिन्दी, जापानी, चीनी मैंडरिन, अरबी समेत कई भाषाओं की जानकारी है.उनकी किताब The India Way और Why Bharat Matters गहरी छाप छोड़ने वाला हैं.
पिता के सुब्रमण्यम को जनता सरकार में 1979 में सबसे कम उम्र का सचिव बनाया गया था. हालांकि 1980 में इंदिरा गांधी के सत्ता में आने के बाद उन्हें हटा दिया गया.1998 में पीएम अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में के सुब्रह्मण्यम को पहले राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सलाहकार बोर्ड में संयोजक बनाया गया.वो 1999 में कारगिल समीक्षा समिति के प्रमुख थे, जिसने सीडीएस पद की सिफारिश की थी.
सुब्रमण्यम जयशंकर या एस. जयशंकर देश के पहले ऐसे विदेश सचिव हैं, जो विदेश मंत्री भी बने.जवाहरलाल नेहरू के बाद वो सबसे लंबे समय कार्यकाल वाले विदेश मंत्री थे. वो 2015 से 2018 तक विदेश सचिव रहे. 2019 से वो विदेश मंत्री की भूमिका संभाल रहे हैं. भारत की स्वतंत्र और मुखर विदेश नीति की जो पहचान पिछले एक दशक में बनी है, इसमें जयशंकर की भी मेहनत है. आज रूस-यूक्रेन युद्ध जैसे वैश्विक मसलों पर भारत अपने रणनीतिक हितों के आधार पर फैसले लेता है. पाकिस्तान पर आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई हो या फिर एलएसी पर गलवान घाटी जैसे संघर्ष-भारत ने अडिग रुख दिखाया है. वो अमेरिका-यूरोप या किसी अन्य दबाव में नहीं झुकता.
जयशंकर ने 1977 में भारतीय विदेश सेवा ज्वाइन की और 38 साल की शानदार सेवा के दौरान कई बार संकटमोचक की भूमिका निभाई. इसमें 2009 से 2013 तक चीन और 2014-15 तक अमेरिका में नौकरी की. विदेश विभाग के अलावा परमाणु ऊर्जा विभाग और प्रधानमंत्री कार्यालय में भी उन्होंने सेवाए दीं. ये जयशंकर की प्रतिभा का सम्मान था कि रिटायरमेंट के तुरंत बाद नौकरी न करने की शर्त (कूलिंग ऑफ) से छूट दी गई. उन्होंने टाटा संस में ग्लोबल कॉरपोरेट अफेयर्स के तौर पर नकरी की और जनवरी 2019 में उन्हें पद्म श्री मिला.फिर बीजेपी में शामिल होकर वो विदेश मंत्री बने.
जयशंकर ने 1977 में विदेश सेवा ज्वाइन करने के बाद 1979 से 1981 के बीच सोवियत संघ में भारतीय मिशन में सचिव के तौर पर काम किया. फिर दिल्ली लौटे तो राजनयिक जी पार्थसारथी के विशेष सहायक के तौर पर काम किया. तारापुर बिजली संयंत्र के लिए परमाणु ईंधन देने से जब अमेरिका ने इनकार किया तो उसे मनाने में जयशंकर की अहम भूमिका थी.यही वजह है कि उन्हें 1985 से 1988 तक वाशिंगटन डीसी में भारतीय दूतावास में प्रथम सचिव बनाया गया.
आतंकियों ने 24 अगस्त 1984 में फ्लाइट IC 421 को हाइजैक किया था, जो चंड़ीगढ़ से श्रीनगर जा रही थी. इसे ऑल इंडिया सिख स्टूडेंट्स फेडरेशन के सदस्यों ने अपहृत किया था. इसमें 74 यात्री सवार थे, फ्लाइट को लाहौर से कराची ले जाया गया और फिर दुबई में लैंड कराया गया. इस विमान में आज के विदेश मंत्री जयशंकर के पिता सुब्रमण्यम भी सवार थे. जयशंकर इस मामले में वार्ताकारों में शामिल थे.
श्रीलंका में लिट्टे के आतंक के बीच 1988 से 1990 के बीच प्रथम सचिव और भारतीय शांतिरक्षक बल के राजनीतिक सलाहकार रहे. वो राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा के स्पीच राइटर है. फिर टोक्यो दूतावास में 1996 से 2000 तक डिप्टी चीफ मिशन रहे. तब पोखरण परमाणु परीक्षण को लेकर भारत-जापान के रिश्तों में तनाव था. लेकिन रिश्ते सुधारने और फिर जापान के भावी पीएम शिंजो आबे को तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के करीब लाए.
जयशंकर 2004 से 2007 तक विदेश मंत्रालय में संयुक्त सचिव अमेरिका थे. भारत अमेरिका परमाणु समझौते की वार्ता में उनकी अहम भूमिका रही. दोनों देशों में परमाणु ऊर्जा से जुड़े 123 एग्रीमेंट में भारतीय टीम की अगुवाई उन्होंने की. एनपीटी पर संधि न करने के बावजूद भारत अमेरिका के साथ एटमी डील में कामयाब रहा.जयशंकर 2013 में ही विदेश सचिव पद की दौड़ में थे, लेकिन आखिरी में चूक गए.
जयशंकर करीब 4.5 साल के साथ चीन में लंबे समय तक भारतीय राजदूत रहे हैं. इस दौरान भारत चीन सीमा विवाद के बावजूद दोनों देशों के आर्थिक, व्यापार और सांस्कृतिक रिश्ते मजबूत हुए. लद्दाख की डेपसांग घाटी में चीनी सेना की घुसपैठ को लेकर विवाद गहराया तो जयशंकर ने तनाव घटाने में अहम भूमिका निभाई. भारत-चीन के रिश्ते को अमेरिका और पश्चिमी देशों के नजरिये से अलग देखने के पहलू पर जयशंकर ने जोर दिया.
जयशंकर 23 दिसंबर 2023 में अमेरिका में भारतीय राजदूत बने. तब भारतीय राजनयिक देवयानी खोबरागड़े के साथ हई घटना से बवाल मचा था. पीएम मोदी की सितंबर 2014 में पहली अमेरिकी यात्रा और उसके बाद दोनों देशों के रिश्तों को नई ऊंचाइयों में ले जाने में जयशंकर की भूमिका को कोई नजरअंदाज नहीं कर सकता. पीएम मोदी की बराक ओबामा और फिर डोनाल्ड ट्रंप के शासनकाल में दोनों देशों के रिश्तों में करीबी लाने में वो अहम वार्ताकार रहे. भारत को रूस से एस-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम लेने पर प्रतिबंध न लगाने के लिए अमेरिका को मनाने में उनकी कूटनीतिक पहल सफल रही.
जयशंकर की काबिलियत देखते हुए जनवरी 2015 में वो विदेश सचिव बने. मोदी सरकार की आक्रामक विदेश नीति के पीछे पीएम मोदी के साथ जयशंकर का रोल भी माना जाता है. भारत ने अमेरिका, चीन या रूस से अपने रिश्तों को अपने सामरिक और कूटनीतिक हितों के आधार पर आगे बढ़ाया है. रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर भारत का अलग रुख इसका उदाहरण पेश करता है, भारत ने सस्ता तेल-ऊर्जा के अपने हितों को ऊपर रखा, बजाय पश्चिमी देशों की लाइन पर आंख मूंदकर चलने के.
अमेरिका-रूस, चीन जैसे बड़े देशों से कूटनीतिक रिश्तों में भारत की अलग छवि तैयार करने में जयशंकर की सोच का लोहा मोदी सरकार ने माना और 31 मई 2019 को मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में उन्हें विदेश मंत्री बनाया गया. कश्मीर मुद्दे पर यूरोप के रुख पर सवाल उठाते हुए जयशंकर ने कई बार कहा है कि पश्चिमी देश अपनी समस्या को ही दुनिया की समस्या मानते हैं. इस मानसिकता से उन्हें निकलना होगा. भारत अपने फैसले खुद के हितों पर लेगा.गलवान घाटी में संघर्ष को लेकर चीन से तनाव कम करने और कश्मीर में आतंकवाद को लेकर पाकिस्तान को विदेश में कूटनीतिक स्तर पर बेनकाब करने में उनका कोई सानी नहीं है.
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