Bill Dispute: यह एक बहुत ही पेचीदा मामला होता जा रहा है. राष्ट्रपति की तरफ से उठाए गए सवाल कानून के जानकारों के बीच चर्चा का विषय बनेंगे. क्योंकि यह सिर्फ एक कानूनी प्रक्रिया नहीं बल्कि संविधान की शक्तियों के संतुलन से जुड़े बहुत ही जरूरी मामले हैं.
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President vs Supreme Court: पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले की चर्चा रही. हुआ यह कि तमिलनाडु सरकार बनाम राज्यपाल मामले में 8 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल और राष्ट्रपति दोनों के लिए यह तय कर दिया कि उन्हें राज्य विधानसभा से पास बिलों पर तय समयसीमा में निर्णय लेना होगा. इस पर प्रतिक्रियाओं का दौर लंबे समय तक जारी रहा है. इसी कड़ी में कोर्ट के इस आदेश पर अब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने कड़ा ऐतराज जताया है. उन्होंने सीधे तौर पर सुप्रीम कोर्ट से सवाल पूछते हुए कहा है कि जब संविधान में कोई समयसीमा तय नहीं है तो फिर अदालत ऐसा फैसला कैसे दे सकती है.
असल में राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से यह राय Article 143(1) के तहत मांगी है जो कि एक असाधारण संवैधानिक अधिकार है. राष्ट्रपति को ये एहसास था कि अगर इस फैसले की पुनर्विचार याचिका दायर की जाती तो उसे वही बेंच इन-चैंबर खारिज कर सकती थी जिसने फैसला सुनाया था. ऐसे में केंद्र सरकार ने राष्ट्रपति के जरिए संविधान की व्याख्या से जुड़े 14 अहम सवाल सुप्रीम कोर्ट के सामने रख दिए हैं.
टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक राष्ट्रपति ने अपने बयान में साफ किया कि संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 में राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा बिलों पर विचार करते वक्त किसी तरह की समयसीमा या प्रक्रिया निर्धारित नहीं की गई है. उन्होंने कहा कि यह निर्णय कई पहलुओं पर आधारित होते हैं. जिनमें संघवाद, कानूनों की एकरूपता, राष्ट्र की सुरक्षा और शक्तियों का पृथक्करण जैसे सिद्धांत शामिल हैं. राष्ट्रपति ने यह भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा ‘डीन्ड असेंट’ (माने हुए मंजूरी) की अवधारणा संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ है.
1. अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के सामने बिल आने पर उनके पास क्या संवैधानिक विकल्प होते हैं? राष्ट्रपति जानना चाहती हैं कि बिल पर राज्यपाल को मंजूरी देने, उसे वापस भेजने या आरक्षित करने के अलावा क्या और विकल्प हैं.
2. क्या राज्यपाल को बिल पर निर्णय लेते समय मंत्रिपरिषद की सलाह मानना जरूरी है? यह सवाल संवैधानिक जिम्मेदारी और निर्वाचित सरकार की सलाह की बाध्यता से जुड़ा है.
3. क्या अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की संवैधानिक विवेकाधिकार पर न्यायिक समीक्षा हो सकती है? राष्ट्रपति ने यह जानना चाहा है कि कोर्ट राज्यपाल के विवेक का परीक्षण कर सकता है या नहीं.
4. क्या अनुच्छेद 361 राज्यपाल के फैसलों को न्यायिक समीक्षा से पूरी तरह छूट देता है? यह सवाल राष्ट्रपति की जवाबदेही और छूट के दायरे को लेकर है.
5. अगर संविधान में समयसीमा नहीं है, तो क्या कोर्ट समयसीमा तय कर सकता है? कोर्ट द्वारा तय की गई समयसीमा को चुनौती दी गई है.
6. क्या राष्ट्रपति का विवेकाधिकार (अनुच्छेद 201) भी न्यायिक समीक्षा के अधीन है? राष्ट्रपति ने अपने विवेकाधिकार की भी संवैधानिक सीमा पर राय मांगी है.
7. राष्ट्रपति के फैसले पर अगर समयसीमा नहीं है, तो क्या कोर्ट उसे तय कर सकता है? यह बिलों पर निर्णय लेने की प्रक्रिया और उसके समय-निर्धारण से जुड़ा सवाल है.
8. क्या राष्ट्रपति को बिल पर फैसला लेने से पहले सुप्रीम कोर्ट की राय लेनी जरूरी है? कोर्ट द्वारा राय लेने की बात को राष्ट्रपति ने चुनौती दी है.
9. क्या अनुच्छेद 200 और 201 के तहत लिए गए फैसले कानून बनने से पहले ही कोर्ट में चुनौती के योग्य हैं? राष्ट्रपति ने पूछा है कि क्या किसी बिल पर निर्णय से पहले ही कोर्ट उसे खारिज कर सकता है?
10. क्या अनुच्छेद 142 के तहत कोर्ट राष्ट्रपति या राज्यपाल के आदेशों की जगह खुद फैसला दे सकता है? यह सवाल न्यायपालिका की सीमा और शक्तियों पर आधारित है.
11. अगर राज्यपाल मंजूरी नहीं देते तो क्या विधानसभा द्वारा पारित कानून प्रभाव में आता है? बिल के प्रभावी होने के लिए राज्यपाल की स्वीकृति की अनिवार्यता पर सवाल.
12. अनुच्छेद 145(3) के अनुसार क्या पांच जजों की पीठ अनिवार्य नहीं थी जब संविधान की व्याख्या हो रही थी? कोर्ट की संरचना और गंभीर मामलों पर बड़ी पीठ की जरूरत को लेकर सवाल.
13. क्या अनुच्छेद 142 की शक्ति कोर्ट को मौजूदा कानून या संविधान के खिलाफ आदेश देने की अनुमति देती है? राष्ट्रपति जानना चाहती हैं कि क्या कोर्ट कानून से ऊपर जाकर आदेश दे सकता है.
14. क्या अनुच्छेद 131 के अलावा सुप्रीम कोर्ट किसी और आधार पर भी केंद्र और राज्य सरकारों के बीच विवाद सुलझा सकता है? यह सवाल न्यायिक क्षेत्राधिकार और संघीय विवादों के समाधान के तरीके पर है.