नर्सरी एडमिशन: निजी स्कूल सिर्फ पैसे लेते हैं, ज़िम्मेदारी नहीं
Advertisement

नर्सरी एडमिशन: निजी स्कूल सिर्फ पैसे लेते हैं, ज़िम्मेदारी नहीं

स्कूल बल्कि अधिकांश निजी शिक्षण संस्थान भी दाखिला सिर्फ पैसों के लिए देते हैं. बाकि उनकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती है.

नर्सरी एडमिशन: निजी स्कूल सिर्फ पैसे लेते हैं, ज़िम्मेदारी नहीं

जब परिवार में किसी सदस्य का ऑपरेशन होता है तो डॉक्टर हमसे एक फॉर्म में साइन लेते हैं जिसमें लिखा होता है कि अगर किसी कारणवश कुछ अनहोनी हो जाती है तो अस्पताल प्रबंधन उसका ज़िम्मेदार नहीं होगा और ऑपरेशन करने वाले इस सर्जरी को अपनी ज़िम्मेदारी पर करवा रहे हैं. अगर हम अदालत के हिसाब से देखें तो यह कागज़ कोई मायने नहीं रखता है. अगर अस्पताल से कोई गलती हुई है तो इसका ज़िम्मेदार वह है और उसे खामियाजा भी भुगतना पड़ेगा. दूसरा पहलू ये भी है कि ज्यादातर तो ऐसा कुछ होता नहीं है. सब कुछ ठीक ठाक से हो जाता है लेकिन जब आपको वो फॉर्म भरने के लिए दिया जाता है और आपके सामने आपका अजीज़ इलाज की बाट जोह रहा होता है. उसके लेटे हुए शरीर को देखकर जब फॉर्म पर हस्ताक्षर करने के लिए हम पेन उठाते हैं तो शरीर में एक सिहरन दौड़ जाती है. उस पल आपके सामने सारी आशंकाएं दौड़ जाती है और आप जितना बुरा सोच सकते हैं वो सब कुछ दिमाग में कौंध जाता है.

अब सोचिए किसी का तीन साल का बच्चा है. वो जब उसका दाखिला करवाने के लिए किसी निजी स्कूल मे जाता है और फॉर्म भरना शुरू करता है. अंत में उसे एक स्वीकृति पर साइन करना होता है जिसमें लिखा होता है कि अगर बच्चा स्कूल की बस से स्कूल आता है या स्कूल अपनी बस से या अपनी तरफ से उसे कहीं बाहर ले जाता है तो पालक अपनी ज़िम्मेदारी पर बच्चे को भेज रहे हैं. इसमें किसी भी तरह से स्कूल प्रबंधन की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है. स्कूल सिर्फ एक ही काम को ज़िम्मेदारी से करता है और वो है फीस बढ़ाना और फीस उगाहना. भारत की सुप्रसिद्ध फिल्म शोले में जब ठाकुर दो चोर वीरू और जय से कई सालों बाद मिलता है. तो वो उनसे पूछता है. ‘मेरे लिए एक काम करोगे.’, तब वीरू ठाकुर को जवाब देता है कि ‘हम काम सिर्फ पैसों के लिए करते हैं.’ 

स्कूल बल्कि अधिकांश निजी शिक्षण संस्थान भी दाखिला सिर्फ पैसों के लिए देते हैं. बाकि उनकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती है. इसी साल मेरी बेटी तीन साल की हुई तो मुझे भी नर्सरी दाखिले के सर्कस (इस शब्दावली का प्रयोग कर रहा हूं क्योंकि जिस तरह स्कूलों के तौर तरीके हैं और रवैया है और जिस तरह शिक्षा हासिल करना दिल्ली में जटिल कर दिया गया है उसे देखकर इस शब्द के अलावा कोई शब्द सूझा नहीं) में हिस्सा लेना पड़ रहा है.

कई स्कूलों ने अपने दाखिले को ऑनलाइन कर दिया है. कई स्कूल ने आधा-आधा रखा है यानी फॉर्म ऑनलाइन भरें फिर उसका प्रिंट लीजिए और उसके साथ सारे दस्तावेज़ नत्थी करके स्कूल में चले आएं. कुछ स्कूल पूरी तरह से ऑफलाइन हैं और वो 25 रुपये के फॉर्म के साथ 125 रुपये का किसी काम न आने वाला स्कूल की झांकी दर्शाता ब्रोशर आपको टिका देंगे. ये ब्रोशर उस कलशपादप पौधे की तरह है जो अपने मखमली मर्तबान रूपी कटोरे को दिखाकर कीड़ों को ललचाता है फिर जब कीड़ा उसकी तरफ आकर्षित होता है और मर्तबान के मखमल तक पहुंचता है तो वो मर्तबान का ढक्कन बंद करके उसे अंदर पड़े एसिड में गिराकर उसका शिकार कर लेता है.

नर्सरी एडमिशन : EWS के नाम पर क्यों आती है 'हिचकी'!

शिक्षा मंत्रालय ने कई तरह की पहल की है (प्रचारित तो ऐसा किया ही जा रहा है). कुछ नियम भी कड़े किये गए हैं, निजी स्कूलों पर लगाम कसने के लिए सख्ती भी बरतने की बात बोली गई है. फॉर्म की कीमत भी 25 रुपये से ज्यादा न वसूलने की हिदायत दे दी गई है. लेकिन प्रशासनिक पहल का कोई असर लगता नहीं है कि हुआ है. पता नहीं क्यों ऐसा लगता है जैसे इन निजी स्कूलों को किसी बात का डर नहीं है. इन्हें लगता है जैसे शासन-प्रशासन इनकी जेब में है. तभी हर निजी स्कूल ने अपने नियम कायदे बना रखे हैं. एक स्कूल ने तो अगर आपकी पहली और अकेली बेटी है तो उसके एफिडेविट को मजिस्ट्रेट से साइन करवाने का नियम रखा है. कुछ स्कूलों में बच्चे का आधार कार्ड देना भी अनिवार्य है. यहां तक कि कुछ स्कूल ने आधार कार्ड के लिए एप्लाइ करने के बाद मिली हुई रसीद को भी मानने से इनकार कर दिया है. जबकि ये साफ है कि एकनॉलेजमेंट को आधार कार्ड का आधार माना जा सकता है. दरअसल स्कूल प्रबंधन नोट उगाही करने के अलावा बच्चों कि शिक्षा से लेकर सुरक्षा तक किसी भी बात के लिए ज़िम्मेदार नहीं है. सरकार के नुमाइंदे तो कभी ज़िम्मेदार रहे ही नहीं वर्ना इस देश की शिक्षा का इस कदर मटियामेट नहीं हुआ होता.

खैर शासन की बदौलत जो ऑनलाइन सिस्टम हुआ है उसने अभिभावकों को कुछ तो राहत दी है. उसी ऑनलाइन दाखिले से वाबस्ता होने के दौरान दाखिले की प्रक्रिया को समझते हुए इन निजी स्कूलों की एक अजीब बात मेरे सामने आई. कुछ स्कूल के दाखिले के फॉर्म को भरने के दौरान स्कूल अभिभावकों से इस बात की सहमति पर हस्ताक्षर करवा लेते हैं कि बच्चा स्कूल अपनी ज़िम्मेदारी पर आ रहा है. यानी अगर अभिभावक बच्चे को स्कूल की बस में भेज रहे है तो वो उनका रिस्क है, स्कूल प्रबंधन की इस बात को लेकर कोई ज़िम्मेदारी नहीं है. इस मामले को लेकर मेरी एक परिचित से जब बात हुई तो उन्होंने हमें जानकारी दी कि उनका बच्चा जिस स्कूल में पढ़ता है, वहां जब भी बच्चों को कहीं बाहर ले जाया जाता है तो अभिभावक से एक सहमति पत्र पर साइन लिया जाता है जिसमें यही लिखा होता है कि बच्चा अपनी ज़िम्मेदारी पर जा रहा है, स्कूल प्रबंधन उसके लिए किसी भी तरह से ज़िम्मेदार नहीं है.

मेरी मुंबई में रह रही एक मित्र ने बताया कि ऐसा तो वहां के स्कूल भी करते हैं और बच्चे को बाहर भेजने के दौरान उन्हें ये स्वीकृति देनी होती है कि वो अपने बच्चे को अपनी जिम्मेदारी पर भेज रहे हैं. ये बिल्कुल वैसा ही है जैसे परिवहन की बसों में स्टिकर लगा होता है. ‘सवारी सामान की खुद जिम्मेदार है’ वैसे भी ये बच्चे जिन्हें हम भेज रहे हैं या ये लोग अपने यहां जिस तरह बच्चों को रख (बच्चों को स्कूल रखते ही तो हैं) रहे हैं. उनके लिए ये एक सामान ही हैं और कुछ नहीं .

मुंहमांगी फीस वसूल रहे ये स्कूल जिस तरह से हर ज़िम्मेदारी से अपना पल्ला झाड़ रहे हैं और जिस तरह से फीस के नाम पर इनका मुंह सुरसा की तरह खुला रहता है वो हमें चिंता में डाल देता है. आखिर कहीं तो जाकर हमें रुकना होगा यानि हम अपने बच्चे को कौन सा समाज दे रहे हैं. कौन सी शिक्षा दे रहे हैं, कहां पढ़ा रहे हैं. वहां जहां दरअसल पढाई ही करवाई जा रही है, बच्चों को शिक्षित नहीं किया जा रहा है. जहां शिक्षा महज़ एक धंधा है. जहां पर पालक को ये बताकर आकर्षित किया जाता है कि हम आपके बच्चे को एक कमरे में कैद करके उसे ऐसा बनाएंगे कि उसके पास दुनिया में जूझने के लिए क्रूर आंखे और रवैया होगा. जहां हम उस पर इतना दबाव डालेंगे कि वो परीक्षा के डर से कोई बच्चा एक मासूम की गला रेतकर हत्या करने में भी नहीं घबराएगा, इस सोच के साथ कि शायद इससे उसकी परीक्षा टल जाए. यह किस तरह का माहौल है जहां स्कूल प्रबंधन, शिक्षक किसी तरह की कोई जिम्मेदारी लेने को राजी नहीं है. जहां ईडब्लयूएस के बच्चे को अलग पाली में इसलिए पढ़ाया जाता है क्योंकि उन्हें सभ्य समाज का हिस्सा नहीं माना जाता है.

एक तीन साल का बच्चा अगर स्कूल प्रबंधन के साथ कहीं जाएगा तो कौन उसकी ज़िम्मेदारी लेगा. मुझे ये बात समझ ही नहीं आ रही है. शायद दिल्ली के शिक्षा मंत्री या देश के मानव संसाधन मंत्री के पास इस बात का बेहतर जवाब हो. वैसे स्कूलों की ज़िम्मेदारी का आलम ठीक उस चौकीदार की तरह है जो मोहल्ले में रात में पहरा देता रहता है और रातभर सीटी बजाकर और डंडा पटक कर चिल्लाता रहता है. जागते रहो. गोया वो ये कहना चाहता हो आप लोग जागते रहो, मेरे भरोसे मत रहो. मेरी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है.

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

Trending news