Afghanistan में भारत की बड़ी रणनीति, अगर हुआ कामयाब तो चीन-पाकिस्तान होंगे बैकफुट पर
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Afghanistan में भारत की बड़ी रणनीति, अगर हुआ कामयाब तो चीन-पाकिस्तान होंगे बैकफुट पर

अब अगर एक बार फिर तालिबान अफगानिस्तान के शासन पर कब्जा करता है तो ये तालिबान भारत के लिए घातक होगा क्योंकि पिछले 20 सालों में भारत ने अफगानिस्तान में तालिबान विरोधी सरकारों को समर्थन दिया था.

अफगानिस्तान आज भारत की सुरक्षा और भारत के भविष्य में महत्वपूर्ण स्थिति में आ गया है.
अफगानिस्तान आज भारत की सुरक्षा और भारत के भविष्य में महत्वपूर्ण स्थिति में आ गया है.

Jaipur: अफगानिस्तान (Afghanistan) आज वैश्विक राजनीति का केंद्र बन गया है. जिस अफगानिस्तान में रूस (Russia) कामयाब नहीं हो पाया. रूस को 10 साल राज करने के बाद लौटना पड़ा. जिस अफगानिस्तान में अमेरिका 20 साल की लड़ाई को बिना जीते लौट जाता है, जिससे अमेरिका (America) की वैश्विक साख को भी नुकसान होता है. उस अफगानिस्तान में तालिबान काबुल के मुहाने पर खड़ा है. 

चीन जिस अफगानिस्तान के रास्ते कारोबारी रूट बहाल करना चाहता है. तो पाकिस्तान जिस अफगानिस्तान के रास्ते भारत को अस्थिर करने के ख्वाब देख रहा है वो अफगानिस्तान आज भारत (India) की सुरक्षा और भारत के भविष्य में महत्वपूर्ण स्थिति में आ गया है.

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अफगानिस्तान के छात्रों को रूस के खिलाफ भड़काया गया
अफगानिस्तान में शांति भारत के लिए कैसे जरूरी है, इस खेल को समझने के लिए पाकिस्तान के किरदार को समझना होगा. 1947 के बाद भारत और पाकिस्तान हमेशा अलग-अलग धुरी पर खड़े रहे. शीत युद्ध के दौर में भारत के रूस के साथ शॉफ्ट रिलेशन रहे तो अमेरिका ने पाकिस्तान का परदे के पीछे से पूरा साथ दिया. 1979 में जब रूस ने अफगानिस्तान का शासन अपने हाथों में लिया तो अमेरिका ने पाकिस्तान के रास्ते अफगान में अपनी रणनीति को आगे बढ़ाया. अफगानिस्तान के छात्रों को रूस के खिलाफ भड़काया गया. आतंक के खिलाफ लड़ाई के नाम पर पाकिस्तान को आर्थिक मदद दी. 

पाकिस्तान ने इन पैसों का इस्तेमाल अफगानिस्तान में लिया. ऐसे संगठनों को फंडिंग की गई, जो रूस के खिलाफ लड़ रहे थे. अमेरिका और पाकिस्तान की रणनीति कामयाब हुई. 1989 में रूस अफगानिस्तान को छोड़कर लौट गया लेकिन जिन संगठनों को अमेरिका के पैसों पर पाकिस्तान ने खड़ा किया था. उनके बीच सत्ता को लेकर संघर्ष शुरू हुआ. इन्हीं संगठनों में से एक था तालिबान. 1994 में बने तालिबान ने 1996 तक अफगानिस्तान की सत्ता पर कब्जा कर लिया. जनता पर इस्लामिक कानून थोपे गए. महिलाओं के अधिकारों को सीमित किया गया.

अमेरिका की चुप्पी के पीछे थे ये कारण
अक्सर लोकतंत्र की बात करने वाला अमेरिका चुप था क्योंकि इन संगठनों के खड़े होने के पीछे अमेरिका की ही रणनीति थी लेकिन वक्त के साथ अमेरिका और तालिबान के संबंध खराब होने लगे. जिसके परिणामस्वरूप 2001 में अमेरिका पर 9/11 का हमला हुआ. इस हमले के एक महीने बाद अमेरिका ने तालिबान के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी. हवाई हमलों के साथ जमीन पर भी अमेरिकी आर्मी उतारी गई. 2001 के आखिर तक अफगानिस्तान को तालिबान के शासन से मुक्त करा दिया. इसके बाद के चुनावों में हामिद करज़ई और अशरफ गनी जैसे अमेरिका समर्थित राष्ट्रपति जीते. इधर 9/11 के अटैक के बाद अमेरिका के पाकिस्तान से संबंध धीरे धीरे बिगड़ने लगे. अमेरिका पाकिस्तान से दूरी और भारत से करीबी बनाने लगा. भारत के लिए भी अफगानिस्तान में ऐसी सरकार का होना जरूरी था, जो पाकिस्तान से दूर रहे.

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भारत के लिए घातक हो सकता तालिबान
अब अगर एक बार फिर तालिबान अफगानिस्तान के शासन पर कब्जा करता है तो ये तालिबान भारत के लिए घातक होगा क्योंकि पिछले 20 सालों में भारत ने अफगानिस्तान में तालिबान विरोधी सरकारों को समर्थन दिया था. उन सरकारों की आर्थिक परियोजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए 22 हजार करोड़ से ज्यादा का निवेश किया. अफगानिस्तान का संसद भवन, शहतूत डैम परियोजना, सलमा डैम परियोजना समेत अफगानिस्तान के 34 प्रांतों में भारत की 500 छोटी बड़ी परियोजनाएं चल रही है. कई परियोजनाएं पूरी भी हो गई है.  अगर अफगानिस्तान की सत्ता पर तालिबान का कब्जा होता है तो भारत की विदेश नीति से लेकर रक्षा नीति और अर्थ नीति को बड़ा झटका लगेगा.

भारत की सुरक्षा को खतरा
तालिबान भारत के लिए बड़ा सुरक्षा खतरा है. भारत की सबसे बड़ी चिंता ये है कि पाकिस्तान के इशारे पर और पाकिस्तान के सहयोग से तालिबान पीओके के रास्ते कश्मीर में आतंकी घटनाओं को अंजाम दे सकता है. कश्मीर में भारत विरोधी अलगाववादी ताकतों को तालिबान समर्थन भी दे सकता है. इसके अलावा तालिबान का सत्ता में आना भारत के सबसे बड़े दुश्मन देश पाकिस्तान के लिए बड़ी रणनीतिक जीत होगी. पाकिस्तान की भारत, अफगानिस्तान और ईरान से सीमा लगती है. लेकिन ईरान से सिर्फ 959 किलोमीटर की सीमा लगती है. सबसे ज्यादा भारत से करीब 2900 किलोमीटर की सीमा और अफगानिस्तान पाकिस्तान की सीमा 2430 किलोमीटर है. ऐसे में पाकिस्तान के एक तरफ भारत और दूसरी तरफ अफगानिस्तान है. और अफगानिस्तान में भारत समर्थित सरकार होने से पाकिस्तान हमेशा दबाव में रहता था. अब अगर तालिबान सत्ता में आता है तो ये पाकिस्तान के लिए साइकोलॉजिकल जीत के तौर पर होगा. इधर चीन तालिबान के साथ संबंध बेहतर कर रहा है. तालिबान सत्ता में आया तो चीन भारत के खिलाफ बड़ी रणनीतिक बढ़त बनाएगा. चीन सीपीईसी प्रोजेक्ट भी मजबूती से आगे बढ़ाएगा.

भारत की विदेश नीति के लिए चुनौती
जैसे ही अमेरिका ने तालिबान से अपनी सेनाएं हटाने का ऐलान किया. तालिबान ने अफगानिस्तान में तेजी से विस्तार किया. भारत को कंधार में अपना वाणिज्यिक दूतावास बंद कर स्टाफ को वापिस बुलाना पड़ा. ऐसा कई और देशों को भी करना पड़ा. जब दुनिया की लोकतांत्रिक शक्तियां अफगानिस्तान में तालिबान को सत्ता में आने से रोकने में जुटी थी. तो भारत के पड़ौसी पाकिस्तान और चीन ने इसे भी मौका बनाया. पाकिस्तान तालिबान को परदे के पीछे पूरा सहयोग दे रहा है. ताकि सत्ता में आने के बाद उसका भारत के खिलाफ इस्तेमाल ले सके. तो वहीं चीन ने भी तालिबान के साथ चर्चा शुरू कर दी है. हाल में तालिबान के प्रतिनिधि मंडल ने चीन का दौरा कर वहां के विदेश मंत्री से मुलाकात की थी. चीन ने तालिबान का गर्मजोशी से स्वागत किया. भारत चाहता है कि तालिबान के खिलाफ लड़ाई में वैश्विक स्तर पर योजना बने. लेकिन दुनिया का कोई भी देश तालिबान से सीधी लड़ाई में उलझना नहीं चाहता. रूस का ये रुख भी चिंताजनक है जिसमें वो ये कहता है कि भारत को अफगानिस्तान में तालिबान के अस्तित्व को स्वीकार करना होगा.

भारत का वैश्विक कारोबार होगा प्रभावित
भारत ने पिछले 20 सालों में अफगानिस्तान में करीब 22 हजार करोड़ का निवेश किया. इसके लिए भारत की रणनीति ये थी कि ईरान में चाहबार पोर्ट को सड़क मार्ग के जरिए अफगानिस्तान से जोड़ा जाएगा. ईरान के चाबहार बंदरगाह से अफगानिस्तान के देलारम तक की सड़क परियोजना का काम भी जारी है. और फिर अफगानिस्तान के रास्ते मध्य यूरोप तक भारत की पहुंच आसान होगी. इस रूट से भारत मध्य यूरोप के साथ कारोबार भी कर पाएगा. लेकिन अगर अफगानिस्तान तालिबान के हाथ लगता है. तो हमारी इस योजना पर पानी फिर सकता है और अफगानिस्तान का इस्तेमाल चीन अपने कारोबारी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए करेगा. खास बात ये भी है कि अगर अफगानिस्तान में भारत की पहुंच कमजोर होती है तो ईरान में हमारे चाहबार पोर्ट का महत्व भी कम हो जाएगा. लिहाजा ईरान में हमारे निवेश का महत्व भी घट सकता है.

अब भारत के पास क्या रास्ता?
तालिबान से डील करने में भारत को शुरूआती तौर पर काफी असफलता हाथ लगी. अमेरिका असमंजस में नजर आ रहा था. पाकिस्तान तालिबान को खुलकर समर्थन दे रहा था. रूस से लेकर चीन तक दुनिया के कई देश तालिबान को अफगानिस्तान के स्टेक होल्डर के तौर पर स्वीकार कर रहे थे. ज्यादातर इस्लामिक देश इस मामले में चुप्पी साधे हुए थे. लेकिन धीरे धीरे भारत की रणनीति कामयाब होने लगी. अमेरिका ने तालिबान पर एयर स्ट्राइक शुरू किए. भारत दौरे पर आए अमेरिका के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट ने भारत के साथ संयुक्त बयान में साफ कर दिया कि अफगानिस्तान में अगर जबरदस्ती तालिबान सत्ता में आता है. तो उसे अमेरिका और भारत मान्यता नहीं देंगे. अमेरिका के इस बयान से दुनिया के दूसरे देशों में भी संदेश गया है.

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की भूमिका
भारत अगस्त महीने में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का अध्यक्ष बना है. अध्यक्ष की कुर्सी संभालते ही भारत ने अफगानिस्तान मामले में एक प्रेस रिलीज जारी करवा दी है. जिसमें अफगानिस्तान में आतंक घटनाओं की निंदा और शांति प्रक्रिया को बहाल करने की कोशिशों का जिक्र है. खास बात ये है कि इस प्रेस रिलीज में सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों में चीन और रूस ने भी सहमति दी है. चीन और रूस को सहमति के लिए तैयार करना भारत की बड़ी कूटनीतिक जीत है. इधर अफगानिस्तान के कई महिला संगठनों ने महिला हिंसा के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र को पत्र लिखा है. इस पत्र को आधार बनाकर भारत अफगानिस्तान मामले में अपनी अध्यक्षता की समयावधि में चर्चा करवा सकता है. या इस मामले में कोई प्रस्ताव पास करवा सकता है. अगर अफगानिस्तान में हिंसक घटनाओं पर सुरक्षा परिषद से प्रस्ताव पास होता है तो तालिबान पर दबाव बनेगा. पाकिस्तान और चीन को भी कूटनीतिक मोर्चे पर बैकफुट पर आना होगा.

सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता का उचित इस्तेमाल करे भारत
भविष्य में भारत की इस इलाके में मजबूती काफी हद तक इस बात से तय होगी कि भारत और अमेरिका मिलकर अफगानिस्तान शांति प्रक्रिया को कैसे आगे बढ़ाते है. अगर भारत अफगानिस्तान में कामयाब होता है. तो चीन और पाकिस्तान दोनों को वैश्विक फजीहत का सामना करना पड़ेगा. भारत की लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति निष्ठा मजबूत होगी लेकिन इसके लिए जरूरी है कि भारत सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता का उचित इस्तेमाल करे. रूस के साथ अफगान मामलों में हाथ मिलाए. इसके अलावा पाकिस्तान के साथ अफगानिस्तान मामले में बने अमेरिका के क्वाड को भी निष्क्रिय करना होगा. ताकि अफगान पीस प्रोसेस का क्रेडिट पाकिस्तान को न जाए. या शांति बहाली के बदले पाकिस्तान अमेरिका से प्रतिबंध हटवाने में कामयाब न रहे.

 

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