नई दिल्ली: एक बार रबर की चप्पलें पहने हुए एक बुजुर्ग कांग्रेस सांसद जब संसद में अपनी सैलरी का चेक लेने पहुंचे तो क्लर्क को बोला कि सारी सैलरी पब्लिक सर्विस फंड में डाल दो. क्लर्क उनकी हालत देखकर हैरान था. बोला आप अपना खर्च कैसे चलाओगे? तो उनका जबाव था, 'मेरे 7 बेटे हैं. सब मुझे हर महीने सौ-सौ रुपए देते हैं. मेरा खर्च चल जाता है. कुछ पैसा दान करने को भी बच जाता है.' ये थे राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन. वो रबर की चप्पलें इसलिए पहनते थे क्योंकि अहिंसा के पुजारी थे, चमड़े का इस्तेमाल बिलकुल नहीं करते थे.


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देश के इतिहास में पुरुषोत्तम दास टंडन को 3 बड़ी वजहों से जाना जाता है. पहला, देश की आजादी के लिए उनकी लड़ाई, दूसरा, हिंदी व देवनागरी के लिए उनका संसद से लेकर सड़क तक का संघर्ष और तीसरा, देश के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के विरोध के बावजूद कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव जीतना. नेहरूजी ने उस चुनाव को प्रतिष्ठा का विषय बना लिया था. उनके प्रत्याशी की हार के बाद इस्तीफा तक देने की बात कह डाली थी.


दरअसल नेहरूजी उनके गृहनगर इलाहाबाद के ही थे. नेहरूजी भी वहीं वकालत करते थे, जहां टंडनजी करते थे. नेहरूजी से उनके मतभेद के और भी तमाम मुद्दे थे. धर्मान्तरण के मुद्दे पर सोमनाथ मंदिर को फिर से खड़ा करने वाले के एम मुंशी और पुरुषोत्तम दास टंडन के सुर एक थे. बंटवारे के प्रस्ताव का भी उन्होंने ये कहकर विरोध किया था कि मुस्लिम लीग और अंग्रेजों के सामने ये सरेंडर जैसा है. वैसे भी वो नेहरू के बजाय पटेल के ज्यादा करीबी थे. हिंदी प्रचार सभाओं के जरिए उनका हिंदी और देवनागरी की वकालत करना भी लोगों को पसंद नहीं आया था, लेकिन हिंदी की इतनी सेवा के चलते ही उन्हें राजर्षि कहा जाता है.


वे इलाहाबाद हाई कोर्ट में तेज बहादुर सप्रू के जूनियर थे और स्वतंत्रता संग्राम में कूदने के लिए नौकरी छोड़ दी. कई बार जेल गए और किसान सभा से जुड़े रहे. राजर्षि 13 साल यूपी असेम्बली के स्पीकर रहे. संविधान सभा के सदस्य भी चुने गए. आजादी के बाद उन्होंने 1948 में पट्टाभि सीतारमैया के विरोध में अध्यक्ष बनने की कोशिश की, लेकिन कामयाबी नहीं मिली.


ऐसे में उन्होंने 1950 के चुनाव में भी किस्मत आजमाई. सरदार पटेल ने भी उन्हें समर्थन दे दिया. नेहरू की तरफ से रफी अहमद किदवई, के डी मालवीय और मृदुला साराभाई खुलकर अभियान चला रहे थे, लेकिन पटेल उनकी जीत के लिए इतने आश्वस्त थे कि उन्हें चुनावी अभियान की जरूरत ही महसूस नहीं हुई.



उनके सामने चुनाव में थे आचार्य कृपलानी. देश के प्रधानमंत्री पद के लिए 1946 में जो कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव हो रहा था, कृपलानी उसमें भी खड़े थे, लेकिन 15 राज्य कार्यसमितियों में से 12 ने नेहरू को और 3 ने कृपलानी के नाम का प्रस्ताव पारित किया था. तो ऐसे में गांधीजी ने नेहरू को पीएम बनवाने के लिए कृपलानी को ही जिम्मेदारी सौंपी थी. पटेल को अपना नाम वापस लेने के लिए समझा लिया और कृपलानी ने एआईसीसी के सदस्यों से उनका नाम प्रस्तावित करवाया.


देश की आजादी के साल में आचार्य कृपलानी को ही कांग्रेस अध्यक्ष बनवाया गया. इस बार वे फिर से नेहरू के समर्थन से मैदान में थे, लेकिन पटेल का खेमा हावी था. नेहरू के इतने समर्थन के बावजदू कृपलानी हार गए और टंडन जीत गए. टंडन के अध्यक्ष बनते ही नेहरूजी इतना गुस्सा हो गए कि अपनी हार बताते हुए इस्तीफे का ऑफर तक कर डाला. उनकी बनाई समितियों में सदस्य बनने से इनकार कर दिया. इधर सरदार पटेल की भी उसी साल मौत हो गई.


सरदार पटेल के निधन के बाद तो टंडन के सर से साया भी चला गया. उन्होंने बिलकुल उसी तरह कांग्रेस अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया, जिस तरह कभी 1939 के त्रिपुरा अधिवेशन में गांधीजी की मर्जी के खिलाफ जीतकर नेताजी बोस ने दे दिया था. हालांकि बाद में नेहरूजी के मन से उनके प्रति जो गुबार थे, वो जाता रहा. राजर्षि को उनकी मृत्यु से ठीक एक साल पहले भारत रत्न से सम्मानित भी किया गया था.