राजीव गांधी ने पलट दिया था सुप्रीम कोर्ट का फैसला, 39 साल पुराना किस्सा; शाहबानो केस के बारे में जानें सबकुछ
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राजीव गांधी ने पलट दिया था सुप्रीम कोर्ट का फैसला, 39 साल पुराना किस्सा; शाहबानो केस के बारे में जानें सबकुछ

साल 1985 में सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो केस में बड़ा फैसला सुनाया था, जिससे देशभर में हलचल मच गई. इस फैसले ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार को एक बड़ा कदम उठाने पर मजबूर कर दिया और उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया.

राजीव गांधी ने पलट दिया था सुप्रीम कोर्ट का फैसला, 39 साल पुराना किस्सा; शाहबानो केस के बारे में जानें सबकुछ

Shah Bano Case: साल 1985 में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया था, जिसने देश की राजनीति और सामाजिक ताने-बाने को हिलाकर रख दिया. यह मामला इंदौर की तलाकशुदा महिला शाहबानो बेगम का था, जिसने अपने पूर्व पति मोहम्मद अहमद खान से गुजारा भत्ता हासिल करने के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. इस केस को आमतौर पर शाहबानो केस के नाम से जाना जाता है. इस केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों पर एक तीखी बहस छेड़ दी. इसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार को एक बड़ा कदम उठाने पर मजबूर कर दिया और उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया.

शाहबानो केस क्या है?

मध्य प्रदेश के इंदौर की रहने वाली शाहबानो को साल 1975 में उनके पति मोहम्मद अहमद खान ने तलाक दे दिया और शाहबानो के अलावा अपने 5 बच्चों को उनके हाल पर छोड़ दिया. इसके बाद शाहबानो ने गुजारे भत्ते की मांग करते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाया. निचली अदालत में उनकी जीत हुई और कोर्ट ने उनके पक्ष में फैसला सुनाते हुए हर महीने 25 रुपये का गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया. लेकिन, शाहबानो ने इसे अपर्याप्त बताते हुए हाई कोर्ट में अपील की और हाई कोर्ट ने गुजारा भत्ता बढ़ाकर 179.20 रुपये कर दिया.

सुप्रीम कोर्ट पहुंचा मामला

मामला यहीं शांत नहीं हुआ और शाहबानों के पति अहमद खान हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर कर इसे रद्द करने की मांग की. उन्होंने अपनी याचिका में तर्क दिया कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत वह केवल 'इद्दत' की अवधि यानी तलाक के लगभग तीन महीने तक ही अपनी पूर्व पत्नी को गुजारा भत्ता देने के लिए बाध्य हैं.

SC ने शाहबानो के पक्ष में सुनाया फैसला

23 अप्रैल 1985 को तत्कालीन चीफ जस्टिस वाईवी चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की बेंच ने सर्वसम्मति से शाहबानो के पक्ष में फैसला सुनाया. अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 125 सभी नागरिकों पर लागू होती है, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो. इसमें पत्नी, बच्चों और माता-पिता के भरण-पोषण का प्रावधान है.

फैसले के बाद मच गई हलचल

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद देशभर में हलचल मच गई और मुस्लिम समुदाय के कुछ वर्गों ने इसे धार्मिक कानूनों (मुस्लिम पर्सनल लॉ) में हस्तक्षेप माना. इसके बाद इस फैसले का कड़ा विरोध किया गया. उनका तर्क था कि शरीयत के अनुसार, एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला केवल इद्दत की अवधि तक ही गुजारे भत्ते की हकदार है. इस फैसले पर राजनीतिक गलियारों में भी जमकर बवाल हुआ.

राजीव गांधी ने पलट दिया था सुप्रीम कोर्ट का फैसला

इसके बाद राजीव गांधी की नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने मुस्लिम समुदाय के दबाव में साल 1986 में 'मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम' पारित कर दिया. इस अधिनियम ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया और यह निर्धारित किया कि एक मुस्लिम तलाकशुदा महिला केवल इद्दत की अवधि तक ही अपने पूर्व पति से गुजारा भत्ता पाने की हकदार है. इसके बाद भरण-पोषण की जिम्मेदारी उसके रिश्तेदारों या वक्फ बोर्ड पर डाल दी गई. इस अधिनियम को महिला अधिकार कार्यकर्ताओं और प्रगतिशील तबकों ने लैंगिक न्याय के खिलाफ और मुस्लिम कट्टरपंथियों के आगे घुटने टेकने वाला कदम बताया. इसने देश में समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) को लेकर बहस को और तेज कर दिया.

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