SP-BSP गठबंधन : कभी थे नदी के दो किनारे, अब बने एक-दूजे के सहारे
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SP-BSP गठबंधन : कभी थे नदी के दो किनारे, अब बने एक-दूजे के सहारे

एसपी और बीएसपी ने आगामी लोकसभा चुनाव में बीजेपी को मात देने के लिए 23 साल पुरानी शत्रुता को भुलाते हुए एक-दूसरे से हाथ मिलाकर उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक नई इबारत लिख दी है.

बीएसपी चीफ मायावती और एसपी अध्यक्ष अखिलेश

लखनऊ: कभी नदी के दो तट मानी जाने वाली एसपी और बीएसपी ने आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा को मात देने के लिये शनिवार को 23 साल पुरानी शत्रुता को भुलाते हुए एक-दूसरे से हाथ मिलाकर उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक नयी इबारत लिख दी है.

एसपी और बीएसपी 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में 38-38 सीटों पर चुनाव लड़ेंगी. कांग्रेस के लिये अमेठी और रायबरेली की सीटें छोड़ी गई हैं जबकि दो सीटें छोटे दलों के लिये आरक्षित की गई हैं. माना जा रहा है कि दो सीटें निषाद पार्टी और पीस पार्टी के लिए छोड़ी गई हैं. निषाद पार्टी का निषाद बिरादरी में प्रभुत्व माना जाता है वहीं पीस पार्टी का पूर्वांचल की मुस्लिम बिरादरी में असर माना जाता है. 

गठबंधन पर क्या कहते हैं राजनीतिक विश्लेषक?
राजनीतिक विश्लेषक परवेज अहमद मौजूदा परिस्थितियों को सपा बसपा के गठबंधन के लिए 25 साल पहले के हालात से ज्यादा उपयुक्त मानते हैं. उनका मानना है कि पिछले चार-पांच साल में पूरे देश में जिस खास तरह का ध्रुवीकरण हुआ है उसका असर राजनीति के साथ साथ समाज और कारोबार पर भी पड़ा है. 

उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद 'हार्ड लाइनर हिंदुत्व' का दबदबा बढ़ा है जिससे एक खास तबके में घबराहट महसूस की जा रही है. आमतौर पर ऐसे हालात में वह तबका एकजुट हो जाता है. सपा और बसपा के गठबंधन से इस तबके को एक ऐसा मंच मिल सकता है जिसके साथ वह खड़े हो सकते हैं.

गठबंधन के सामने सबसे बड़ी चुनौती का जिक्र करते हुए राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर एसएन द्विवेदी कहते हैं कि सपा और बसपा को गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलित को अपने साथ लाने की चुनौती होगी जो 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा के साथ चला गया था. 

जब 25 साल पहले साथ आए थे एसपी-बीएसपी
दरअसल एपी-बीएसपी ने 25 साल पहले मंडल आयोग की सिफारिशों से राजनीति में हुए जबर्दस्त बदलाव के दौर में हाथ मिलाये थे. उस वक्त मुलायम सिंह यादव अन्य पिछड़े वर्गों के बड़े नेता बनकर उभरे थे और मुस्लिम मतदाता भी उनके साथ एकजुट था. वहीं, कांशीराम दलितों के नेता के तौर पर उभरे थे. लगभग 25 साल पहले एसपी-बीएसपी के साथ आने का ही नतीजा था कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद भी बीजेपी सत्ता में वापसी नहीं कर पाई थी. 

पिछले (2014 के) लोकसभा चुनाव में सपा को करीब 22 प्रतिशत और बसपा को लगभग 20 फीसद मत मिले थे. दोनों को मिला लें तो यह करीब 42 फीसद होता है. वर्ष 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में सपा और बसपा को लगभग 22-22 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे. अगर दोनों का वही वोट प्रतिशत बरकरार रहा तो भी वह भाजपा के लिये कठिनाई खड़ी कर सकता है.

एक अनुमान के अनुसार, उत्तर प्रदेश में इस समय दलित मतदाता करीब 22 प्रतिशत हैं. इनमें 14 फीसद जाटव शामिल हैं. ये बसपा का सबसे मजबूत वोट बैंक है. इसके अलावा बाकी आठ प्रतिशत दलित मतदाताओं में पासी, धोबी, खटीक मुसहर, कोली, वाल्मीकि, गोंड, खरवार सहित 60 जातियां हैं. राज्य में करीब 45 फीसद ओबीसी मतदाता हैं. इनमें यादव 10 प्रतिशत, कुर्मी पांच फीसद, मौर्य पांच, लोधी चार और जाट दो प्रतिशत हैं. बाकी 19 प्रतिशत में मल्लाह, लोहार, प्रजापति, चौरसिया, गुर्जर, राजभर, बिंद, बियार, निषाद, कहार और कुम्हार सहित 100 से ज्यादा उपजातियां हैं. प्रदेश में, माना जाता है, करीब 19 फीसद मुसलमान मतदाता हैं.

वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से भाजपा गठबंधन को जबर्दस्त कामयाबी के साथ कुल 73 सीटें मिली थीं. भाजपा को 71, उसकी सहयोगी पार्टी अपना दल को दो, सपा को पांच और कांग्रेस को दो सीटें मिली थीं. लगभग 19 प्रतिशत वोट पाने के बावजूद बसपा का खाता तक नहीं खुल सका था.

(इनपुट - भाषा)

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