उद्धव ठाकरे ने सामना को दिए इंटरव्यू में कहा, 'वेग में मत चलो, हादसा हो जाएगा..'
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उद्धव ठाकरे ने सामना को दिए इंटरव्यू में कहा, 'वेग में मत चलो, हादसा हो जाएगा..'

उद्धव ठाकरे ने कहा कि शिवसेना ने सरकार की पीठ पर वार नहीं किया. सरकार से जो संघर्ष हुआ वो जनता की समस्याओं पर. कई बार विरोधी दल की तरह काम करना पड़ा.'

फोटो-epaper.hindisaamana.com

मुंबईः महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में सत्ताधारी बीजेपी के साथ गठबंधन के बावजूद भी अपनी का सीएम बनाने का सार्वजिनक ऐलान करने वाली शिवसेना ने एक बार बीजेपी को लेकर बड़ी बात कही है. अपने मुखपत्र सामना को दिए इंटरव्यू में शिवेसना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने बीजेपी के साथ अपनी पार्टी के रिश्तों के लेकर बड़ा बयान दिया है. उद्धव ठाकरे ने कहा है, 'शिवसेना-भाजपा के रिश्ते टिकने चाहिए. कैसे टिकेगा? ये सवाल है. ‘मन पर ब्रेक उत्तम ब्रेक’ ये उसका जवाब है. 24 तारीख को ही दिवाली के पटाखे फूटेंगे. मुझे विश्वास है.'

सामना में उद्धव ठाकरे के बेबाक साक्षात्कार से विधानसभा चुनाव का वातावरण गर्मा उठा. साक्षात्कार के पहले भाग में उद्धव ठाकरे ने युति से लेकर मुख्यमंत्री पद तक सभी सवालों का बेबाकी से जवाब दिया. साक्षात्कार के दूसरे भाग में उन्होंने किसानों की समस्याओं पर अपनी बात मजबूती से रखी. फसल बीमा योजना के ‘दलाल’ मंडलियों पर हमला बोला. उद्धव ठाकरे ने कहा कि शिवसेना ने सरकार की पीठ पर वार नहीं किया. सरकार से जो संघर्ष हुआ वो जनता की समस्याओं पर. कई बार विरोधी दल की तरह काम करना पड़ा.'

उद्धव ठाकरे ने अत्यंत बेबाकी से कहा कि ‘सत्ता का इस्तेमाल कर बदले की राजनीति करना हमें कबूल नहीं. हम आमने-सामने लड़ेंगे.’ साक्षात्कार के दूसरे भाग में आर्थिक मंदी से शिवसेना-भाजपा के नातों तक कई प्रश्नों का जवाब उद्धव ठाकरे ने दिया.सरकार में रहते हुए शिवसेना ने जिन मुद्दों को उठाया व सड़कों पर उतरी, वो मुद्दे मतलब फसल बीमा योजना. सरकार में रहते हुए भी सड़कों पर क्यों उतरे? ये सवाल आते ही उद्धव ठाकरे ने कहा, ‘क्यों मतलब? प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना अच्छी योजना है. लेकिन इस योजना का पालन करनेवाली जो यंत्रणा है, उसमें गोलमाल है.’

‘गोलमाल’ रोकने के लिए सरकार है न?
होगी, लेकिन अपेक्षाकृत हुआ नहीं. इसके लिए सड़क पर उतरना पड़ा.

सही में क्या गोलमाल हुआ?
देश के कृषि मंत्रियों ने भी यह माना है कि इसमें गड़बड़ है. सुधार होना ही चाहिए. मुख्यमंत्री का भी इस पर बयान है. मैंने उनका ध्यान इस तरफ आकर्षित किया है. यह मामला ऐसा है कि ये योजना किसानों के लिए है. इसको लेकर मेरा जो भी ज्ञान है और जो मैंने समझा है, वो मैं आपके सामने रखता हूं. किसानों का जो २ प्रतिशत हिस्सा रहता है, वो किसान देते हैं और शेष जो कुछ है, वह केंद्र व राज्य सरकार देती है. मतलब 8 प्रतिशत. अगर 12 प्रतिशत हुआ भी तो यह कुल 100 प्रतिशत का विभाजन है. जो कंपनियां इसमें सुविधा दे रही हैं, मुझे नहीं लगता कि इनका एक भी पैसा इसमें निवेश हो रहा है. किसानों से किश्त लेते समय कंपनियों के दलाल घूमते हैं लेकिन जब नुकसान भरपाई देने का समय आता है तब उस गांव में कोई नहीं जाता. गांव छोड़ो, तालुका और जिला में उस कंपनी के ऑफिस भी नहीं हैं. ये एक बड़ी त्रुटि इस योजना में है.

मतलब किसानों को भरपाई नहीं मिलती…
नुकसान भरपाई का, निरीक्षण का दिखावा किया जाता है, उसमें भी कौन लोग होते हैं? मेरा सवाल ये है कि अगर सरकार जो पैसा बीमा कंपनियों को देती है, वो किसानों के लिए देती है, नुकसान हुआ तो भरपाई देना ही चाहिए नहीं हुआ तो वो पैसा सरकार के पास वापस आना चाहिए. अन्य समय में योजना में क्या होता है, जैसा लाइफ इंश्योरेंस वगैरह… वो मुनाफे के रूप में कंपनियों के पास जुटता है और फिर जब नुकसान होता है तब उसमें से हिस्सा निकालकर दिया जाता है. अगर अकाल के दौरान किसानों का नुकसान आपको दिखाई नहीं दे रहा तो यह नुकसान आपके पास लिखित रूप में है क्या? महाराष्ट्र में निरंतर फसल न उगने और उसके चलते किसानों के नसीब में कर्जदारी आई है… अकाल से हुआ इन किसानों का नुकसान अगर आपको नहीं दिखाई दे रहा तो सरकार ने जो अकाल घोषित किया है, उसका क्या? क्यों सरकार को औसत निकालकर नुकसान भरपाई देनी पड़ी.

लेकिन ये सभी मामले कैबिनेट या मंत्रिमंडल या बतौर सरकार आप जब बैठते हो, उसमें सुलझ सकता है…
हो सकता है. लेकिन नहीं सुलझा.

ऐसा विरोधियों का कहना है…
हां, लेकिन मुद्दा विरोधियों के ध्यान में ही नहीं आया… इसके चलते किसी विरोधी ने फसल बीमा योजना के संदर्भ में एक ‘शब्द’ भी नहीं कहा और अब ये केंद्र सरकार, जो केंद्रीय कृषि मंत्री हैं, उन्हें और मुख्यमंत्री को ये समझ में आ गया है कि इसमें सुधार होना चाहिए…

आप सत्ता में पांच वर्षों से हैं और अब प्रचार में जाते समय पांच वर्षों में किया गया विकास कार्य, प्रचार का मुद्दा हो सकता है क्या?
क्यों नहीं?

ऐसे कौन से पांच विकास कार्य आप बता सकते हो?
मैं बताता हूं आपको… पहला मुद्दा एक ही है, पांच कार्य बताने की बजाय मैं एक ही महत्वपूर्ण मुद्दा बताऊंगा कि जिस समय शिवसेना लड़ती है वह लोगों को दिखता है. लेकिन सरकार का जब विज्ञापन आता है, यह काम हो गया है, वह काम हो गया, ऐसा दिखाई देता है. शिवसेना ने सरकार को कभी भी दगा नहीं दिया. मैं सरकार के सामने मुद्दे लेकर खड़ा रहा. अब आगे भी अगर मुद्दा रखना होगा तो मैं जरूर रखूंगा… लेकिन मैंने सरकार को कहीं दगा फटका होने दिया क्या? सरकार गिराने में कुछ चालबाजी की क्या? बिल्कुल भी नहीं की, कि सरकार अभी गिरेगी… ये पाप मैंने नहीं किया. मैं महाराष्ट्र के विकास में कभी भी बाधा नहीं बना. फिर वह समृद्धि महामार्ग हो या अब कर्जमाफी की योजना हो… ये सभी योजनाएं और अन्य भी कुछ रास्ते होंगे, पानी की योजना होगी, जैसे सरकार ने जलयुक्त शिवार किया, उसी के साथ शिवसेना ने अपने दम पर शिवजल क्रांति की.

जलयुक्त शिवार योजना फंस गई…
फंस गई इसका कारण बारिश नहीं…

इस प्रकार का दृश्य सामने आया.
जलयुक्त शिवार कहें या बांध कहें… जब तक बारिश नहीं होती, तब तक वह सफल हो ही नहीं सकती, अगर गिरी हुई बारिश… वह पानी बहकर जाने की बजाय उसे इकट्ठा करने के लिए अगर हमने योजना की तो… थोड़े में कहूं तो ऐसा है कि अगर पानी थोड़े ही दिनों में उड़ जाता है या चला जाता है, वह पानी बनाए रखना मतलब मैं जमा करूंगा नहीं… जमा करें कहूंगा या समाकर ले कहूंगा… इसके लिए यह योजना है.

 

आप विकास के मुद्दे पर बोलते हैं… विकास का यह मुद्दा प्रचार में आ सकता है लेकिन भाजपा की नीति अलग है. अमित शाह का कहना ऐसा है… उन्होंने मुंबई में आकर कहा कि अनुच्छेद 370 महाराष्ट्र के विधानसभा के प्रचार का मुद्दा होगा…
हो भी सकता है…

राज्य के प्रचार में 370…?
एक मुद्दा ऐसा है कि विकास कार्यों का विज्ञापन तो शुरू है… सही है? जैसे मैं कहता हूं कि पहले अपनी शिवशाही की सरकार थी, मुंबई-पुणे मार्ग एक सपना… वह सपना… उस समय भाजपा के नितिन गडकरी मंत्री थे… अब समृद्धि महामार्ग… यह मुंबई से नागपुर… यह महामार्ग बनाते समय शिवसेना के एकनाथ शिंदे मंत्री हैं… उन्होंने भी जोर लगाया है.

370 ये विधानसभा का विषय है क्या?
अनुच्छेद 370 कहें तो महाराष्ट्र का है… कहे तो नहीं… लेकिन अंतत: देश का है. जिस समय अनुच्छेद ३७० हटाया गया, उस क्षण जो पत्रकार मेरे पास आए थे उनके सवालों का जवाब देने से पहले मैंने उन्हें पेड़ा खिलाया था क्योंकि वह वर्षों का अपना सपना था या सपना कहने की बजाय उसकी जरूरत थी कहना चाहिए. हमारा देश उस दिन पूर्ण रूप से स्वतंत्र हुआ.

सत्ता में रहते हुए भी आपने कई बार अलग नीति अपनाई है. आपने नाणार हटाया
नाणार नहीं हटाया… नाणार है… नाणार की परियोजना हटाई…

नाणार परियोजना आपने हटाई… भाजपा अथवा सरकार को अथवा मुख्यमंत्री को उक्त परियोजना यहीं चाहिए… लेकिन आपने अलग नीति अपनाई?
क्यों अपनाई? उसे जरा समझ लें. वहां की जनता के लिए ये नीति अपनाई.
परसों जब मुख्यमंत्री वहां गए थे… जनादेश यात्रा पर… तब उन्होंने दोबारा वही पक्ष रखा कि मुझे यह परियोजना यहीं चाहिए… लेकिन शिवसेना की नीति के चलते मुझे वो हटाना पड़ा.
मेरी नीति जनता के साथ रहने की है. वहां मुख्यमंत्री के कहने के बाद जो कुछ जनाक्रोश उमड़ा, जो क्रिया-प्रतिक्रिया वहां हुई… मतलब दंगल नहीं हुआ… लेकिन आम माताओं और बहनों की जो भी प्रतिक्रियाएं मुझ तक पहुंचीं, वे बेहद उद्विग्न और गुस्से में बोल रही थीं… ये कोई खेल नहीं… दिया… निकाला… वो परियोजना वहां से हट गई है. शिवसेना की नीति ये मेरी व्यक्तिगत या मेरे व्यक्तिगत स्वार्थ की, शिवसेना के स्वार्थ की नहीं थी. अगर जनता को कोई चीज चाहिए तो चाहिए. नहीं चाहिए तो उन पर थोपा नहीं जा सकता… जैसा समृद्धि महामार्ग है. समृद्धि महामार्ग का भी विरोध हुआ… मैं स्वयं वहां गया… एकनाथ शिंदे को वहां भेजा… और जो कुछ भी मैंने अपनी आंखों से देखा वो ये है कि फलों से लदे पेड़ को सरकारी बाबुओं ने पथरीली जमीन के रूप में घोषित किया है… ये सरकारी बाबू हैं… ये केवल कागजों पर ही वीर होंगे… लेकिन जो राजनीतिज्ञ हैं वो जमीन से जुड़े हुए हैं.

आप मेट्रो कारशेड का विरोध कर रहे हैं…
कारशेड का बिल्कुल भी विरोध नहीं है… जगह का विरोध कर रहे हैं…

आरे के संदर्भ में शिवसेना का आंदोलन शुरू है…
निश्चित ही, एक बात ऐसी है…

ये आंदोलन सरकार विरोधी है…
नहीं… मैं दोबारा एक बार कह रहा हूं… समृद्धि महामार्ग का उदाहरण मैं दोबारा दूंगा. वहां भी जनता ने विरोध किया था. हमने ही सब कुछ शांत किया. उन किसानों से बातचीत की, जहां-जहां जो-जो करना संभव था वो-वो करके… मतलब कुछ जगहों पर उन फलों के बागों को बचाते हुए रास्ता बदला…

मतलब सकारात्मक मार्ग निकाला?
सकारात्मक मार्ग निकाला. मेरा वही कहना है… विकास मतलब किसी की कब्र बांधकर नहीं. आज आरे के कारशेड का शिवसेना जो विरोध कर रही है वो विरोध शिवसेना का नहीं बल्कि मुंबईकरों का है. मतलब कोई मुंबईकर ऐसा न समझे कि ये शिवसेना का व्यक्तिगत मामला है. आपके लिए हम लड़ रहे हैं. हम सब मुंबईकर हैं. मेट्रो चाहिए ही… विकास चाहिए ही… लेकिन कुछ कमाते समय जो अधिक मूल्यवान है उसे गंवाने का कोई मतलब नहीं. मुंबई विश्व का एकमात्र शहर ऐसा है कि जिन शहरों में प्राकृतिक जंगल और उसमें वनसंपत्ति है. वनसंपत्ति मतलब वन्य प्राणी भी. ऐसा विश्व में कोई भी शहर नहीं.
और आप सरकार में होते हुए भी अलग भूमिका अपना रहे हैं…
है ही न… ये अलग भूमिका जनता से आई है. मेरे बाग के पेड़ नहीं कटे. मेरे बाग के पेड़ों पर मेट्रो कारशेड निर्भर नहीं है. अगर ये कुछ वन संपत्ति होगी, उसमें भी कइयों ने, विशेषज्ञों ने कबूल किया है कि वहां क्या-क्या है, तो तुम उसकी कीमत वैâसे आंकते हो? ये सरकारी बाबू जो हैं, यूं कहें तो वे शिक्षित हैं… कहें तो अनाड़ी हैं… इसका कारण ऐसा है कि कल मुंबई की बर्बादी हुई तो ये कहां होंगे? कहीं तो बंगला बनाकर, उस बंगले में टीवी चालू कर, एयरकंडीशन में बैठकर देखेंगे कि मुंबई वैसे डूबी?

आज पेड़ों की कटाई हुई वहां…
फिर वही है न. इसमें जो आक्रोश है… ये शिवसेना के अकेले का मामला नहीं है. इसके लिए मुंबईकरों को सड़क पर उतरना चाहिए.

पेड़ कट रहे हैं जिस तरीके से… आधी रात में काटने की शुरुआत की गई, अंधेरे में. इसकी जरूरत थी क्या?
बिल्कुल नहीं. ये जो कोई हत्यारे अधिकारी वहां बैठे हैं… पेड़ों के कातिल हैं वो, उन्हें इसकी कीमत चुकानी होगी. भोगना पड़ेगा. यशवंत जाधव द्वारा दायर याचिका पर आए फैसले में उन पर 50 हजार रुपए का दंड लगाया गया. ठीक है, ये उस याचिका की कीमत हुई या दंड हुआ. लेकिन पर्यावरण का जो नुकसान हुआ है उसकी कीमत इन पेड़ों के कातिलों को चुकानी पड़ेगी और अगर कल मुंबई पर आपत्ति आई, मुंबई दोबारा डूबनी शुरू हुई… तो उसका जिम्मेदार कौन? मुझे अब इस विवाद में नहीं पड़ना है लेकिन इसके लिए ये अधिकारी ही जिम्मेदार होंगे. लेकिन मैं सर्वोच्च न्यायालय का आभार मानता हूं कि उन्होंने इस पर अलग भूमिका अपनाई है.

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