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Chief Justice N V Ramana on increasing number of court cases: मुख्यमंत्रियों और मुख्य न्यायधीशों के सम्मेलन में चीफ जस्टिस एन वी रमना (N V Ramana) ने कहा है कि अदालतों के फैसलों पर सरकार सालों तक अमल नहीं करतीं, जिसके नतीजा है कि अवमानना याचिकाओं के रूप में एक नया बोझ न्यायपालिका के ऊपर है. अदालती फैसलों की जानबूझकर कर अवहेलना लोकतंत्र के हित में नहीं है. चीफ जस्टिस रमना मुख्यमंत्रियों और मुख्य न्यायधीशों के सम्मेलन में बोल रहे थे.
चीफ जस्टिस एन वी रमना (N V Ramana) ने बिना बहस- चर्चा के कानून को पास करने पर चिंता जाहिर की. उन्होंने कहा कि कानून में स्पष्ठता का अभाव मुकदमों के बोझ के रूप में सामने आता है. विधायिका से ही उम्मीद की जाती है कि वह किसी भी कानून को अमल में लाने से पहले उस पर जनता की राय लें, सदन में उस पर बिंदुवार विचार विमर्श हो. अगर विधायिका गहन विचार विमर्श के बाद लोगों के हितों को ध्यान में रखते हुए, दूरदर्शिता के साथ किसी कानून को पास करती है तो फिर उस कानून को अदालत में चुनौती देने की संभावना बेहद कम हो जाती है.
चीफ जस्टिस ने कहा कि कार्यपालिका के विभिन्न अंगों के सही तरह से जिम्मेदारी न निभाने के चलते भी मुकदमों का बोझ बढ़ता है. मसलन अगर एक तहसीलदार एक किसान की राशन कार्ड या फिर जमीन के सर्वे से जुड़ी उसकी दिक्कत को सुलझा देता है तो फिर किसान को कोर्ट आने की जरूरत नहीं होगी. अगर एक मिनुसिपल अथॉरिटी, ग्राम पंचायत अपनी जिम्मेदारी को सही तरीके से निभाती है तो लोगों को कोर्ट आने की जरूरत नहीं है. अगर रेवेन्यू अथॉरिटी कानून सम्मत तरीके से जमीन अधिग्रहण करेंगी तो देश की अदालतें पर इस तरह जमीनी विवाद का बोझ नहीं होगा. अभी कुल पेंडिंग केस में 66 फीसदी केस जमीनी विवाद से जुड़े हैं.
चीफ जस्टिस ने कहा कि ये मेरी समझ से परे है कि सरकार के विभिन्न विभागों के बीच या फिर सार्वजनिक उपक्रमों और सरकार के बीच के विवाद भी कोर्ट में ही आकर क्यों सुलझते है. अगर सर्विस मामलों में सीनियरिटी, पेंशन में सर्विस नियमों का सही तरीके से पालन किया जाएगा तो किसी भी कोर्ट आने की जरूरत नहीं पड़ेगी. अभी 50 फीसदी केस में सरकार पार्टी है. अगर पुलिस जांच सही तरीके से हो, गैरकानूनी तरीके से गिरफ्तारियां और कस्टडी के दौरान टॉर्चर के मामले खत्म हो जाए तो कोर्ट तक मामला पहुंचने की नौबत नहीं आएगी.
बड़ी संख्या में लंबित मुकदमों के लिए अक्सर न्यायपालिका को दोष दिया जाता है लेकिन हकीकत ये है कि जजों पर काम का बोझ बहुत कम है. खाली पड़े पदों पर जल्द नियुक्ति करके और जजों की स्वीकृत संख्या को बढ़ाकर पेंडेंसी से निपटा जा सकता है. अभी की जजों की स्वीकृत संख्या के मुताबिक हमारे पास दस लाख की कुल जनसंख्या के लिए सिर्फ 20 जज है जो की चिंता का विषय है. 2016 में न्यायिक अधिकारियों की कुल स्वीकृत संख्या 20811 थी जो कि 16 फीसदी बढ़ाकर अब 24112 कर दी गई है लेकिन इस बीच जिला अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या 2 करोड़ 65 लाख से 54.64 बढ़कर 4 करोड़ 11 लाख हो गई है. ये आंकड़ा दर्शाता है कि किस तरीके से अभी जजों की स्वीकृत संख्या पर्याप्त नहीं है.
चीफ जस्टिस ने कहा कि ज्यूडिशियल इंफ्रास्ट्रक्चर को बेहतर करने की जरूरत है. कुछ जिला अदालतों का वातावरण तो इस कदर खराब है कि महिला क्लाइंट की बात छोड़ दीजिए जहां तक महिला वकील भी कोर्ट रूम में घुसने में अपने आप को असहज महसूस करती है.
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चीफ जस्टिस ने कहा कि संविधान लोकतंत्र के तीन स्तम्भों को अलग-अलग अधिकार प्रदान करता है. इनके बीच बेहतर सामंजस्य ही पिछले सात दशक में भारत में लोकतंत्र को मजबूत करता आया हैं. हम सबको अपनी जिम्मेदारी को निभाते हुए इस लक्ष्मणरेखा को ध्यान में रखना चाहिए. अगर सब कुछ कानून के मुताबिक हो तो न्यायपालिका कभी भी सरकार के रास्ते में नहीं आएगी. हम भी आपकी तरह लोगों के हितों के लिए फिक्रमंद है. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की करीब 140 करोड फीसदी जनता न्याय के लिए न्यायपालिका पर निर्भर करती है दुनिया में कोई भी दूसरा संवैधानिक कोर्ट इतने मामले नहीं सुनता है जितना सुप्रीम कोर्ट सुनता है.
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