'आदिवासी क्षेत्र की बोलियों-कथाओं को दुनिया के सामने लाने की जरूरत'
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'आदिवासी क्षेत्र की बोलियों-कथाओं को दुनिया के सामने लाने की जरूरत'

देश के सुदूर क्षेत्रों में शिक्षा की कमी के अंधेरे के बीच उम्मीद की किरण की मौजूदगी का एहसास कराते हुए लेखकों एवं साहित्यकारों ने इस संदर्भ में सुदूर एवं आदिवासी इलाकों की भाषा की कथाओं के अनुवाद एवं इन भाषाओं के फोंट का अविष्कार किये जाने की जरूरत बतायी।

'आदिवासी क्षेत्र की बोलियों-कथाओं को दुनिया के सामने लाने की जरूरत'

नई दिल्ली : देश के सुदूर क्षेत्रों में शिक्षा की कमी के अंधेरे के बीच उम्मीद की किरण की मौजूदगी का एहसास कराते हुए लेखकों एवं साहित्यकारों ने इस संदर्भ में सुदूर एवं आदिवासी इलाकों की भाषा की कथाओं के अनुवाद एवं इन भाषाओं के फोंट का अविष्कार किये जाने की जरूरत बतायी।

‘समन्वय भारतीय भाषा महोत्सव' के दौरान लेखक पंकज चतुर्वेदी ने दिल्ली से मीलों दूर बस्तर इलाके की बदलती बोलियों पर अपने विचार व्यक्त करते हुए उस क्षेत्र में बोली जाने वाली हल्बी, गोंड एवं अन्य भाषाओं की परिस्थितियों का जिक्र किया और इन्हें दुनिया के सामने लाने की जरूरत बतायी।

विचारकों का मानना है कि अनुवाद और उस भाषा में काम की उपलब्धता भाषा की स्थिति को सुधारने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं।

समारोह के दौरान लेखक के सीताराम ने क्षेत्रीय और आदिवासी भाषाओं को सहेजने की जरूरत बतायी। उन्होंने कहा कि अगर इन भाषाओं को संरक्षण प्रदान नहीं किया गया तो विकास के अंधधुंध दौर में इनका अस्तित्व नहीं बचेगा। सीताराम ने हल्बी भाषा में फोंट का आविष्कार किया है। इस दौरान तीसरा समन्वय भाषा सम्मान जाने माने साहित्यकार, विचारक अशोक वाजपेयी को प्रदान किया गया।

भाषा के सरोकार पर सत्र के दौरान भारत और श्रीलंका के तमिलों की राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों पर चर्चा की गई और उसमें भाषा की समग्रता एवं उसकी विविधता में एकता के स्वर को रेखांकित किया गया। विचारकों ने कहा कि कभी कभी भाषा द्वारा और कभी हमारे अपनों की ओर से बहुत सारी अनदेखी सीमाएं खींच जाती है। आज अनुवाद को केवल एक लिखे हुए माध्यम से परे अलग रूप में देखने की जरूरत है।

सत्र के दौरान लेखिक अनु सिंह चौधरी ने कहा, ‘हर लिखने वाले, बोलने वाले की इच्छा होती है कि उसकी बात कोई सुने। आज के दौर में सोशल मीडिया बहुत आसानी से इन चाहतों को पूरा करता हुआ नजर आ रहा है।’’ समन्वय के क्रिएटिव निदेशक सत्यनंद निरूपम ने कहा, ‘लोग कविता के प्रति उदासीन नहीं हुए हैं बल्कि आज पाठक और प्रकाशक के बीच तंत्र नष्ट हो गया है।’

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