उर्दू शायरी के चमिनस्तान में हज़ारों फूलों ने अपनी ख़ुशबू बिखेरी है. वक़्त तो गुज़रते गए और नए नए फूल चमन को आबाद करते गए. लेकिन कुछ ख़ुशबुओं का एहसास आज भी लोगों के दिलो दिमाग़ पर छाया हुआ है.
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सैयद अब्बास मेहदी रिजवी/ नई दिल्ली: उर्दू शायरी के चमिनस्तान में हज़ारों फूलों ने अपनी ख़ुशबू बिखेरी है. वक़्त तो गुज़रते गए और नए नए फूल चमन को आबाद करते गए. लेकिन कुछ ख़ुशबुओं का एहसास आज भी लोगों के दिलो दिमाग़ पर छाया हुआ है. उन्ही गुलों के हुजूम में एक फूल खिला जिसे दुनिया ने जौन एलिया के नाम से जाना और पहचाना.
मैं जो हूं जौन एलिया हूं जनाब
इसका बेहद लिहाज़ कीजिएगा
जौन उर्दू शायरी के एक आबाद शहर का नाम था. जिसकी दीवारों पर इश्क़ के क़िस्से लिखे थे. जिसकी मुंडेरों पर उल्फ़त के चिराग़ जल रहे थे. जिसकी फ़सीलों पर मुहब्बत के परचम लहरा रहे थे. जिसकी गलियों में ग़ज़लें गश्त करती थीं. जिसकी जमीन अशार उगलती थी. जिसको अंधरों से मुहब्बत थी. जो उजालों से डर जाता था. कभी पहलू पर हाथ मारता था. कभी लंबी ज़ुल्फ़ों को चेहरों से झटक कर शेर सुनाता था. कभी रो पड़ता था. कभी जुनून के आलम में महफ़िल को लूट लिया करता था...
उस की उम्मीद-ए-नाज़ का हम से ये मान था
कि आप उम्र गुज़ार दीजिए उम्र गुज़ार दी गई
जी हां जौन एलिया की शख़्सियत भी उतनी ही अजीब थी जितनी उनकी शायरी. वो बहुत सादगी के साथ ज़िंदगी का निचोड़ पेश करते थे. इस बेमिसाल शायर को गुज़रे तकरीबन 18 साल हो गए. यानी 8 नवंबर 2002. ज़िंदगी में शायद जौन को उतनी शोहरत नहीं मिली जितनी विसाल के बाद. जौन को जानने वाले कहते हैं कि वो बचपन से ही नरगिसी ख़्याल और रुमानियत पसंद थे. जौन एलिया को पसंद करने वाले अफ़राद...जौन के चाहने वाले लोग उनकी शायरी से जितना लगाव रखते हैं उससे कहीं ज़्यादा उनके अंदाज़ पर मरते हैं. जिंदगी की छोटी छोटी सच्चाइयों से लेकर तजर्बे की गहराइयों तक उनकी शायरी सब कुछ बयान करती है.
तुम जब आओगी तो खोया हुआ पाओगी मुझे
मेरी तन्हाई में ख़्वाबों के सिवा कुछ भी नहीं
मेरे कमरे को सजाने की तमन्ना है तुम्हें
मेरे कमरे में किताबों के सिवा कुछ भी नहीं
उनके कमरे की किताबें इंकार की तालीम देती थीं. इसी कमरे में बैठकर वो बग़ावत के जज़्बात को काग़ज़ पर उतार दिया करते थे. जौन को अपने दर्द से बहुत प्यार था. वो अपने दर्द से बाहर आना ही नहीं चाहते थे दर्द की दवा तो बिलकुल नहीं करना चाहते थे.
चारासाज़ों की चारा-साज़ी से दर्द बदनाम तो नहीं होगा
हाँ दवा दो मगर ये बतला दो , मुझ को आराम तो नहीं होगा
दर्द को जुनून की हद तक प्यार किया. इतना प्यार किया कि उनके मद्दाह ख़ुद ऐसे दर्द की दुआ करने लगे. लोग उनकी शायरी को समझने के लिए दर्द में डूबने लगे. उनके अशार पढ़कर ये एहसास करने लगे कि जैसे जौन ने हमारे हालाते ग़म को शायरी में ढाल कर बड़े क़रीने से बहुत सलीक़े से पेश किया है.
उम्र गुज़रेगी इम्तिहान में क्या
दाग़ ही देंगे मुझ को दान में क्या
अपनी महरूमियाँ छुपाते हैं
हम ग़रीबों की आन-बान में क्या
ये मुझे चैन क्यूँ नहीं पड़ता
एक ही शख़्स था जहान में क्या
फिर जौन अपनी ही शायरी का इंकार करने का हौलसा भी रखते हैं. उन्होने कहा था कि अपनी शायरी का जितना मुन्किर मैं हूँ, उतना मुन्किर मेरा कोई बदतरीन दुश्मन भी ना होगा. कभी कभी तो मुझे अपनी शायरी बुरी, बेतुकी लगती है इसलिए अब तक मेरा कोई मज्मूआ शाया नहीं हुआ. और जब तक खुदा ही शाया नहीं कराएगा उस वक्त तक शाया होगा भी नहीं. तो ये इंकार का आलम था..
जौन ने मोहब्बत को लज़्ज़ते हयात कहा लेकिन शायद ख़ुद उनकी मोहब्बत बेलज़्ज़त रही. और इस ज़ायक़े को बदलने के लिए उन्होने शराब से मुहब्बत कर ली. शराब इतनी पी के बाद में शराब उन्हें पीने लगी. शोअरा के हुजूम में जौन एक ऐसे लहजे के शायर हैं जिनका अंदाज़ न आने वाला कोई शायर अपना सका.. न गुज़रने वाले किसी शायर के अंदाज़ से उनका अंदाज़ मिलता है. जौन इश्क़ और मुहब्बत के मौज़ूआत को दोबारा ग़जल में खींच कर लाए. लेकिन हां वो रिवायत के रंग में नहीं रंगे. बल्कि उन्होने इस क़दीम मौज़ू को ऐसे अंदाज़ से बर्ता कि गुज़रे जमाने की बातें भी नयी नज़र आयीं. ग़ज़ल का रिवायती मक़सद महबूबा से बातें करना है लेकिन तरक़्क़ी पसंदी,जदीदीयत, वजूदीयत और कई तरह के इरादों के ज़ेरे असर उनकी शायरी में इश्क़ के अलग ही रंग नज़र आए...
हो रहा हूँ मैं किस तरह बरबाद
देखने वाले हाथ मलते हैं
क्या तकल्लुफ़ करें ये कहने में
जो भी ख़ुश है हम उस से जलते हैं
अपने इसी अंदाज़ की वजह से, जौन अब तक के शायरों में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले शायरों में शुमार हैं. जौन एलिया 14 दिसंबर 1931 को अमरोहा में पैदा हुए. यहीं पले बढ़े. तक़सीम के बाद 1957 मे एलिया पाकिस्तान चले गए और कराची में मुस्तक़िल सुकूनत अख़्तियार की. लंबी बीमारी के बाद जौन एलिया का कराची में 8 नवंबर 2002 को इंतेक़ाल हो गया. लेकिन आख़िरी वक़्त तक उन्हे अपने वतने अज़ीज़ हिंदुस्तान से बिछड़ने का ग़म सताता रहा. ख़ासकर अमरोहा का ज़िक्र तो उनकी बात बात में आता रहता था. वो सरहद पर बैठ कर कहते थे कि
मत पूछो कितना गमगीं हूँ गंगा जी और जमुना जी
ज्यादा मै तुमको याद नहीं हूँ गंगा जी और जमुना जी
अपने किनारों से कह दीजो आंसू तुमको रोते है
अब मै अपना सोग-नशीं हू गंगा जी और जमुना जी
अमरोहे में बान नदी के पास जो लड़का रहता था
अब वो कहाँ है? मै तो वही हूँ गंगा जी और जमुना जी
जौन एलिया की विलादत उर्दू कैलेंडर के मुताबिक़ 13 रजब को हुयी थी. जौन इस बात को भी बार बार कहते थे. कि मेरी विलादत और हज़रत अली की विलादत की तारीख़ एक है. इस पर बड़ा फ़ख़्र करते थे वो. लेकिन जब किसी ने जन्मदिन की मुबारकबाद दी तो तपाक से कहा...
क्या कहा आज जन्मदिन है मेरा,
जौन तो यार मर गया कब का
ये जौन की यादें हैं,बाते है, ज़िक्र है, जौन होना मज़ाक नहीं कमाल है
ये है जब्र इत्तेफ़ाक़ नहीं
जौन होना कोई मज़ाक़ नहीं
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