खो गयीं गायों की खोज के लिए नौजवानों ने 12 गांवों में किया ये अनोखा काम, किसी ने भी एक दूसरे से नहीं बोला एक भी शब्द
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खो गयीं गायों की खोज के लिए नौजवानों ने 12 गांवों में किया ये अनोखा काम, किसी ने भी एक दूसरे से नहीं बोला एक भी शब्द

मौनिया बुंदेलखंड का सबसे प्राचीन नृत्य है. इसे सेहरा और दीपावली नृत्य भी कहते है. इस लोकनृत्य में युवा गांव-गांव मे मोर पंख लेकर नृत्य करते हैं.

मौनिया बुंदेलखंड का सबसे प्राचीन नृत्य है.

ललितपुर: देशभर में दीपावली का त्योहार धूम-धाम से मनाया जा रहा है. दीपोत्सव के पांच दिन बेहद खास माने जाते हैं. प्रदेश के कई ऐसे क्षेत्र हैं, जहां दीपावली में कई ऐसी परंपराएं होती हैं जो सदियों से उनकी पहचान बनी हैं. ऐसे ही एक परंपरा बुंदेलखंड में भी है. यहां दीपपर्व में पुरुषों द्वारा मौनिया लोक नृत्य किया जाता है. 

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मौनिया बुंदेलखंड का सबसे प्राचीन नृत्य है. इसे सेहरा और दीपावली नृत्य भी कहते है. इस लोकनृत्य में युवा गांव-गांव मे मोर पंख लेकर नृत्य करते हैं. इस दौरान टीम में शामिल लोग एक दूसरे से बात नहीं करते. ग्रामीणों द्वारा यह नृत्य बड़े ही मोहक अंदाज मे किया जाता है. 

12 अलग-अलग गांवों में जाकर करते हैं नृत्य 
स्थानीय ग्रामीण राजकुमार ने बताया कि दीपावली के ठीक एक दिन बाद मौन परमा के दिन गांव के लोग ग्वालों का रूप धारण कर मोर पंख बांधते हैं. अपना श्रृंगार करते हैं और 12 अलग-अलग गावों के मंदिरों में जाकर भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन करते हैं. साथ ही चौराहों पर मौन रहते हुए अपना मौनिया नृत्य करते हैं. उन्होंने बताया कि 12वें गांव के आखिरी मंदिर में जाकर लोग अपना मौन व्रत खोलते हैं. 

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क्यों मनाई जाती है यह परंपरा?
मान्यता है कि एक दिन भगवान श्री कृष्ण यमुना नदी के किनारे बैठे थे. तभी अचानक उनकी सारी गायें कहीं चली गईं. अपनी गायों को जान से भी ज्यादा प्यार करने वाले भगवान श्री कृष्ण दुखी होकर मौन हो गए, जिसके बाद श्रीकृष्ण के सभी ग्वालबाला परेशान होने लगे. जब ग्वालों ने सभी गायों को तलाश लिया. तब भगवान श्री कृष्ण ने अपना मौन तोड़ा. तभी से परंपरा के अनुसार श्री कृष्ण के भक्त मौन व्रत रखते हैं.

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ऐसे पूरा होता है व्रत 
ग्रामीण अंचलो के लोगों के मौन होकर नृत्य करने के कारण इस नृत्य का नाम मौनिया रखा गया और व्रत रखने वालों को मौनी बाबा कहा जाता है. इस नृत्य मे पुरुष अपना पारंपरिक परिधान पहनते हैं. मोर के पंखों को लेकर एक घेरा बनाकर यह नृत्य करते हैं.  इस व्रत को करने वाले लोग लगातार 12 वर्षों तक दीपावली के अगले दिन यह नृत्य करते हैं. जिसके बाद इस व्रत को पूरा माना जाता है. व्रत के पूरा होने पर लोग मथुरा और भगवान श्रीकृष्ण की नगरी वृंदावन जाकर गोवर्धन की परिक्रमा लगाकर ध्वज चढ़ाते हैं. 

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