रिपोर्ट: मयूर शुक्ला.


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UP Chunav 2022: बहुजन समाज पार्टी (BSP) के पारंपरिक दलित वोट बैंक (Dalit Vote Bank) पर सभी राजनीतिक दलों की नजर है. बसपा सुप्रीमो मायावती (Mayawati) तो ठंडे बस्ते में नजर आ रही हैं. ऐसे में अगर दलित वोट बैंक बीएसपी से खिसकता है तो फिर वह किस के पाले में जाएगा?


उत्तर प्रदेश में दलित वोट बैंक को अपना बना कर बसपा सुप्रीमो मायावती चार बार यूपी की सत्ता हासिल करने में कामयाब रही हैं, लेकिन इस बार के विधानसभा चुनाव में मायावती कुछ बदली बदली सी नजर आ रही हैं. वह सत्ताधारी भाजपा (BJP) के खिलाफ ना तो कोई जहर उगल रहीं ना ही चुनाव को लेकर कोई मजबूत तैयारी है. ऐसे में मायावती के इस निष्क्रिय व्यवहार के चलते अगर प्रदेश का दलित नाराज होता है तो वह बीएसपी छोड़कर आखिर किस पार्टी को अपना रहनुमा बनाएगा सबसे बड़ा सवाल तो यह है.


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21% प्रतिशत से अधिक आबादी का साथी कौन
उत्तर प्रदेश की राजनीति में 21% से अधिक दलित आबादी ने हमेशा ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. पहले यह आबादी कांग्रेस (Congress) का हाथ थाम कर चलती थी. लेकिन, बाद में बहुजन समाज पार्टी को इसका आशीर्वाद मिला और तीन दशक से दलित समाज बीएसपी के साथ खड़ा है. हालांकि, पिछले चुनावी नतीजों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अब दलित वोट बैंक बहुजन समाज पार्टी से दूर खिसक रहा है. ऐसे में भाजपा दलित वोट बैंक में सेंध लगाने में काफी हद तक कामयाब भी होती दिख रही है. सिर्फ भाजपा ही नहीं, बल्कि कांग्रेस और सपा भी दलितों को अपने पाले में लाने की कवायद में लगी हैं.


सबसे पहले आपको दलित वोट बैंक का समीकरण समझाते हैं. प्रदेश में दलितों की कुल जनसंख्या 21% के आसपास है जिसमें
11.70% जाटव हैं
3.3% पासी हैं
3.15% कोरी वाल्मीकि हैं
1.05% धानुक, गोंड, खटिक हैं और
1.57% अन्य दलित जातियां हैं


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जो जितनी जल्दी इस समीकरण को समझ गया, उसको सत्ता की चाबी मिलना उतना ही आसान हो जाता है. मायावती अभी तक इस गणित को अच्छे से समझती आई हैं, लेकिन अब यह वोट बैंक उनके हाथ से खिसकता नजर आ रहा है. यही वजह है कि वर्ष 2012 में मायावती को अपनी सत्ता गंवानी पड़ी और 2014 में बसपा का कांटा 0 पर आकर रुक गया.


पिछली बार सबसे ज्यादा आरक्षित सीटों पर कब्जा जमाने वाली भाजपा एक बार फिर से सत्ता में वापसी के लिए कई बड़े दलित नेताओं को महत्व दे रही है और दलितों के लिए तमाम कल्याणकारी योजनाएं भी चला रही है. सिर्फ भाजपा ही नहीं, बल्कि 2012 में सर्वाधिक आरक्षित सीटों पर कब्जा जमा कर समाजवादी पार्टी भी दलित वोट बैंक पर अपनी नजर गड़ाए है. वही, बहुजन समाज पार्टी भी अपनी खोई हुई साख को हासिल करने में लगी है. हालांकि, दलितों का कांग्रेस से पहले ही मोहभंग हो चुका है. ऐसे में कांग्रेस को अभी बहुत मेहनत करने की जरूरत है.


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403 में से 84 सीटें आरक्षित
यूपी की 403 विधानसभा सीटों में से अनुसूचित जाति के लिए 84 सीटें आरक्षित हैं. वहीं अनुसूचित जनजाति के लिए 2 सीट आरक्षित हैं. पिछले कई दशकों से बीएसपी ने दलित वोट बैंक पर अपनी पैठ जमा कर रखी है. मायावती की जाटव मतदाताओं पर अच्छी पकड़ है, लेकिन उसके नतीजों ने यह साबित किया है कि दलित वोट अब बिखराव की स्थिति में है.


300 से ज्यादा सीटों पर दलित वोटरों का प्रभाव
उत्तर प्रदेश में 80 सीटें आरक्षित हैं, लेकिन 50 जिलों की तकरीबन 300 सीटों पर दलित वोटर प्रभावशाली भूमिका निभाते हैं. 20 जिले तो ऐसे हैं, जहां 25 फ़ीसदी से ज्यादा अनुसूचित जाति और जनजाति की आबादी है. यही वजह है कि सभी राजनीतिक दल गैर आरक्षित विधानसभा सीटों पर ऐसे उम्मीदवारों को टिकट देते हैं जिनका प्रभाव दलितों के बीच भी होता है. ऐसे में अगर राजनीतिक पार्टियां यह कहती हैं कि वह धर्म और जाति के आधार पर राजनीति नहीं करते तो इसे हास्यास्पद कहना गलत नहीं होगा.


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