आपदा ने किया सब बर्बाद, अब न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए चक्कर काट रहे हैं सेब काश्तकार
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आपदा ने किया सब बर्बाद, अब न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए चक्कर काट रहे हैं सेब काश्तकार

हालात ये हैं कि अब काश्तकारों को बैंक का लोन चुकाने की चिंता सताए जा रही है और वो सरकार से न्यूनतम समर्थन मूल्य जारी करने के लिए देहरादून के चक्कर काटने को मजबूर हो गए हैं.

सेब की बची हुई फसल भी पूरी तरह तबाह होने के कगार पर है.

देहरादून: उत्तराखंड के उत्तरकाशी के आराकोट क्षेत्र में आई आपदा ने न सिर्फ क्षेत्र में भारी तबाही मचाई है बल्कि अब वहां के सेब के काश्तकारों को भी बर्बादी के मुहाने पर ला खड़ा किया है. हालात ये हैं कि अब काश्तकारों को बैंक का लोन चुकाने की चिंता सताए जा रही है और वो सरकार से न्यूनतम समर्थन मूल्य जारी करने के लिए देहरादून के चक्कर काटने को मजबूर हो गए हैं.  

उत्तरकाशी के आराकोट क्षेत्र में प्रकृति की रौद्र रूप ने जो तांडव मचाया है, उसके जख्म तो शायद ही कभी भरेंगे. लेकिन उस भीषण तबाही ने वहां के काश्तकारों को कभी न भूलने वाले गम दे दिए.  

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पहले ही पर्वतीय क्षेत्रों में खेती किसानी से लोगों का मोह छूट रहा और जो कर भी कर भी रहे हैं तो प्रकृति और सिस्टिम की मार खेती किसानी से उनका मोह भंग कर रही है. हालात ये हैं कि आपदा के चलते अभी तक करोड़ों रुपये का सेब बर्बाद हो चुका है और जो बचा भी है तो वो भी बर्बाद होने के कगार पर है. 

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अभी भी क्षेत्र के कई गांव संपर्क मार्ग से जुड़ नहीं पाए हैं. क्षेत्र के मौंडा, बलावट ऐसे गांव हैं, जिन्हें संपर्क मार्ग से जुड़ने में एक महीने तक का वक्त भी लग सकता है. ग्रामीणों की मानें तो यह संपर्क मार्ग बनने में काफी वक्त लगेगा. लेकिन तब तक उनकी सेब की बची हुई फसल भी पूरी तरह तबाह हो जाएगी. लिहाजा किसान सेब का न्यून्तम समर्थन मूल्य देने की मांग कर रहे हैं. काश्तकारों का कहना है कि जिस तरह से 2013 की भीषण आपदा के दौरान काश्तकारों को राहत दी गई थी, वैसी ही राहत सरकार उन्हें दे.  

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काश्तकारों का कहना है कि उन्होंने बैंक से लाखों रुपये का कर्ज भी उठाया हुआ है. अपनी फसल बेचकर वो इस कर्ज का भुगतान करते हैं. लेकिन जब फसल की बर्बाद हो रही हो तो फिर वो कैसे कर्ज चुकाएंगे. 

एक तरफ कृषि विभाग हिमाचल की तर्ज पर सेब की बागवानी को बढ़ावा देने की बात कर रहा है. किसानों की आय को 2022 तक दोगुना करने के सपने दिखा रहा है. वहीं, दूसरी तरफ हालात ये हैं कि आपदा की मार से जूझ रहे काश्तकारों की मदद के लिए अभी तक भी कोई ऐलान नहीं हो पाया है. ऐसे में भला कौन पहाड़ में खेती-किसानी करना चाहेगा.

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