1860 में उत्तर भारत में पहली बार एक थियेटर खुला था. इसके लिए अंग्रेजों को जगह पहाड़ों की रानी मसूरी में मिली थी.
इसकी शुरूआत इलीसमेयर हाउस नाम से हुई थी. यहां 1860 से 1868 तक नाटकों का मंचन होता था, लेकिन 1935 में इसका नाम बदलकर मैजेस्टिक सिनेमा हॉल रखा गया.
नाम बदले जाने के साथ ही यहां पर बाइस्कोप दिखाना शुरू किया गया था. इस थियेटर की 350 सीटों की क्षमता थी. शुरूआत में यहां सिर्फ दो शो दिखाए जाते थे.
यूरोप के सिनेमा को मसूरी में स्थापित करने का सपना अंग्रेजी अफसर जॉन स्टीवर का था, लेकिन 20वीं सदी की शुरूआत में महामारी प्लेग में उनकी मौत हो गई.
स्टीवर की मौत के बाद उनका सपना जस लिलिट नाम के शख्स ने पूरा किया. 1913 के आसपास यहां 'द इलेक्ट्रिक पिक्चर पैलेस' का निर्माण शुरू किया गया था.
एक साल बाद यानी 1914 में ये बनकर तैयार हुआ. यहां देखी गई पहली फिल्म 'द होली नाइट' थी. उस दौरान माल रोड पर भारतीयों की एंट्री बैन थी.
भारतीयों का प्रवेश बंद होने के बावजूद इलेक्ट्रिक पिक्चर पैलेस में जब भी कोई फिल्म लगती थी, तो भारतीय और अंग्रेज सब एक साथ फिल्म देखा करते थे.
इस थियेटर के लिए 1948 मील का पत्थर साबित हुआ. दरअसल, यहां फिल्म 'चंद्रलेखा' लगी थी, तब यहां इस फिल्म को देखने के लिए भीड़ इकट्ठी हो गई.
हालात ऐसे हो गए थे कि टिकट के लिए यहां पर चार काउंटर लगाए गए, लेकिन समय आगे बढ़ने से 20वीं सदी में ये थियेटर बंद करना पड़ा.