DNA ANALYSIS: कोरोना वैक्सीन का Patent रद्द करने के लिए US ने भी दी सहमति, लेकिन राह में रोड़ा बन रहा ये देश
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DNA ANALYSIS: कोरोना वैक्सीन का Patent रद्द करने के लिए US ने भी दी सहमति, लेकिन राह में रोड़ा बन रहा ये देश

पोलियो की वैक्सीन बनाने वाले अमेरिकी वैज्ञानिक डॉक्टर जोनास साल्क एक बार कहा था कि सबकी जान बचाने वाली वैक्सीन सिर्फ मेरी कैसे हो सकती है. आज देश पर वापस संकट आ गया है, ऐसे में क्या अब 'पेटेंट पॉलिसी' नोट छापने की मशीन बन गई है? 

DNA ANALYSIS: कोरोना वैक्सीन का Patent रद्द करने के लिए US ने भी दी सहमति, लेकिन राह में रोड़ा बन रहा ये देश

नई दिल्ली: अमेरिकी वैज्ञानिक डॉक्टर जोनास साल्क (Jonas Salk) ने वर्ष 1955 में पोलियो की वैक्सीन (Polio Vaccine) बनाई थी. तब उनसे उनके एक मित्र ने ये पूछा था कि क्या वो इस वैक्सीन को पेटेंट करवाएंगे? तब डॉक्टर साल्क ने हसंते हुए कहा था कि क्या सूर्य का पेटेंट कराया जा सकता है? 

'सबकी जान बचाने वाली वैक्सीन मेरी कैसे हो सकती है'

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इस पर उनके मित्र ने हैरान होते हुए कहा कि ऐसा कैसे हो सकता है? जिस सूर्य का चक्कर पृथ्वी लगाती हो, उस सूर्य का पेटेंट पृथ्वी पर रहने वाला कोई इंसान कैसे करा सकता है? तब अपने मित्र की इस बात पर डॉक्टर जोनास साल्क ने कहा था कि फिर वो कैसे इस वैक्सीन का पेटेंट करवा सकते हैं. क्योंकि जो वैक्सीन सभी की जान बचाएगी, वो सिर्फ उन्हीं की कैसे हो सकती है.

कोरोना वैक्सीन के पेटेंट पर संघर्ष जारी

शायद उस समय उनकी इसी सोच की वजह से दुनिया पोलियो जैसी बीमारी को हरा पाई. लेकिन अब समय बदल गया है और समय के साथ इंसान भी बदल गया है. इस समय पूरी दुनिया में कोरोना वायरस (Coronavirus) से लगभग 32 लाख लोग मर चुके हैं. लेकिन इसके बावजूद वैक्सीन के पेटेंट को लेकर संघर्ष जारी है, और वैक्सीन बनाने वाली कंपनियां नहीं चाहती कि ये पेटेंट हटाया जाए और उनकी पैसे छापने की मशीन बंद हो जाए. इसलिए आज हम सबसे पहले आपसे इसी विषय पर बात करेंगे.

लोग ज्यादा हैं और कोरोना वैक्सीन कम

इस समय पूरी दुनिया में लोग ज्यादा हैं और वैक्सीन कम हैं. इसी वजह से कई देशों में वैक्सीन की कमी है और कई गरीब देशों के पास तो वैक्सीन है ही नहीं. अब ये संकट तभी खत्म हो सकता है, जब हर देश में वैक्सीन का उत्पादन शुरू हो सके. क्योंकि जब सभी देशों में वैक्सीन बनाई जाएगी तो इसकी कमी भी नहीं होगी. लेकिन इस काम में पेटेंट एक बहुत बड़ी बाधा है. वैक्सीन पर पेटेंट की वजह से अभी कई देश खुद वैक्सीन नहीं बना सकते.

US भी तैयार, रद्द होंगे वैक्सीन के पेटेंट!

दुनियाभर में इस बुरी स्थिति को देखते हुए ही भारत और दक्षिण अफ्रीका (South Africa) ने विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) में एक प्रस्ताव दिया था, जिस पर अब अमेरिका (America) ने भी सहमति दे दी है. अमेरिका ने कहा है कि वो कोरोना वायरस की वैक्सीन के शोध और उसके निर्माण से जुड़े सभी पेटेंट्स को अस्थायी तौर पर सस्पेंड करने के लिए तैयार है. ये बहुत बड़ा फैसला है. ऐसा क्यों है? अब आप इसे समझिए

अक्टूबर में भेजा गया था WHO को प्रस्ताव

गौरतलब है कि पिछले साल अक्टूबर के महीने में भारत और दक्षिण अफ्रीका ने WHO को एक प्रस्ताव भेजा था, जिसमें दोनों देशों ने कोरोना वैक्सीन के इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट को हटाने की मांग की थी. यानी दोनों देश इस बात पर सहमत हैं कि वैक्सीन से जुड़े तमाम शोध और उनके निर्माण से जुड़ी सभी जानकारियां दूसरी कंपनियों के साथ भी साझा होनी चाहिए, ताकि दूसरी कंपनियां भी वैक्सीन का उत्पादन कर सकें.

इन देशों ने प्रस्ताव पर दी अपनी सहमति

भारत और दक्षिण अफ्रीका के इस प्रस्ताव पर कई महीनों चली बहस के बाद अब अमेरिका ने भी इसे अपना समर्थन दे दिया है. अमेरिका ने कहा है कि वो WTO में इस प्रस्ताव को अपना वोट दे सकता है. इसके अलावा यूरोपियन यूनियन ने भी कहा है कि वो इस पर चर्चा के लिए तैयार है. ब्रिटेन ने भी इस पर सहमति दी है कि वो वैक्सीन को पेटेंट मुक्त करने पर विचार करेगा और फ्रांस भी इसके पक्ष में है. 

जर्मनी लगातार कर रहा प्रस्ताव का विरोध

अभी जो एक देश इसके विरोध में है, वो है जर्मनी. जर्मनी (Germany) का मत ये है कि वैक्सीन को पेटेंट मुक्त करने से इसका उत्पादन नहीं बढ़ाया जा सकता. यानी जर्मनी इस प्रस्ताव के विरोध में जाकर खड़ा हो गया है. अब यहां समझने की बात ये है कि WTO में भारत और दक्षिण अफ्रीका के प्रस्ताव को पास कराने के लिए सभी देशों का समर्थन चाहिए होगा. लेकिन अब तक ऐसा होते हुए नहीं दिख रहा. इसलिए यहां ये समझना जरूरी है कि ऐसी स्थिति में क्या होगा? और क्या वैक्सीन पेटेंट मुक्त हो सकती है?

पेटेंट क्या होता है?

जब कोई व्यक्ति या कंपनी किसी चीज का आविष्कार अपने शोध के आधार पर करता या करती है तो वो उसे इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट यानी उसे अपनी बौद्धिक संपदा बताते हुए उसका पेटेंट ले लेती है. जब उस व्यक्ति या कंपनी को उस चीज का पेटेंट मिल जाता है तो फिर दूसरी कंपनी या कोई देश बिना उसकी अनुमति के उसका निर्माण नहीं कर पाता. यानी वैक्सीन पर अभी हो ये रहा है कि जिन कंपनियों ने इसे विकसित किया है वही इसका उत्पादन कर रही हैं और बाकी फार्मा कंपनियां उन मशीनों की तरह बन गई हैं, जो काम तो कर सकती हैं लेकिन कानूनी बाधाओं की वजह से बंद पड़ी हैं. इसीलिए वैक्सीन से पेटेंट हटाने की मांग हो रही है.

US की सहमति से भारत को क्या फायदा?

वैक्सीन बनाने वाली कंपनियां जैसे फाइजर (Pfizer) और मॉडर्ना (Moderna) अमेरिका की ही हैं. मॉडर्ना की वैक्सीन के शोध में तो अमेरिका की सरकार भी शामिल थी, और फाइजर ने इसी शोध के आधार पर अपनी वैक्सीन बनाई. ऐसे में अगर अमेरिका वैक्सीन से पेटेंट हटाने की मांग को मान लेता है तो बाकी देशों पर भी इसका दबाव बढ़ेगा. खासकर उन देशों पर जो फाइजर और मॉडर्ना की वैक्सीन अपने लोगों को लगा रहे हैं. अगर भविष्य में पेटेंट का कानूनी अधिकार हटा लिया जाता है तो सभी देशों की फार्मा कंपनियां वैक्सीन का उत्पादन कर पाएंगी.

वैक्सीन कंपनियां कोर्ट गईं तो क्या होगा?

हालांकि ये इतना आसान नहीं है. क्योंकि पहले तो WTO में इस विषय पर सभी सदस्य देशों को सहमति बनानी होगी, और अगर किसी तरह से सहमति बन भी गई तो वैक्सीन बनाने वाली कंपनियां इस मुद्दे को लेकर कोर्ट का रुख कर सकती हैं. अदालत में ये मामला लंबे समय के लिए उलझ सकता है. जबकि दुनिया को वैक्सीन की जरूरत अभी है.

वैक्सीन कंपनियों ने कोर्ट में दी ये दलील

अमेरिका में तो इसके संकेत भी मिलने लगे हैं. वहां पेटेंट हासिल करने वाली फार्मा कंपनियां सरकार के फैसले से नाराज हैं. इसके पीछे इन कंपनियों की दो बड़ी दलील हैं. पहली ये कि वैक्सीन से पेटेंट हटाने पर भी दूसरे देशों की कंपनियां इसका उत्पादन नहीं कर पाएंगी. क्योंकि वैक्सीन बनाने के लिए कच्चा माल चाहिए और एक साथ कई कंपनियों को इसकी सप्लाई नहीं हो सकती. दूसरी दलील ये है कि ज्यादा प्रोडक्शन के नाम पर बाजारों में नकली वैक्सीन आ जाएंगी, जिससे लोग मर भी सकते हैं.

कुल मिला कर कहें तो अमेरिका और दूसरे देशों के रुख में बदलाव जरूर आया है, लेकिन वैक्सीन को पेटेंट मुक्त करने की राह अब भी थोड़ी मुश्किल है. हमें लगता है कि जब ऐसा होगा तो कई बड़ी फार्मा कंपनियां नोट छापने वाली इस मशीन को बचाने के लिए पानी की तरह पैसा बहाएंगी और इस मामले को कोर्ट में ले जाया जाएगा. ऐसे में घूम फिर कर बात फिर से यहीं आ जाती है कि हम क्या कर सकते हैं? तो इसका जवाब ये है कि केंद्र सरकार (Central Government) सिर्फ Co-Vaxin के निर्माण के लिए थर्ड पार्टी कंपनियों को अनिवार्य लाइसेंस जारी कर सकती हैं. लेकिन कोविशील्ड के मामले में ऐसा नहीं हो सकता. क्योंकि कोविशील्ड का पेटेंट ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के पास है. भारत की सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (SII) कंपनी सिर्फ इसका उत्पादन कर रही है.

दुनिया में सिर्फ 13 कंपनियां बना रहीं वैक्सीन

ये हालात तब है जब पूरी दुनिया में ही वैक्सीन की कमी का संकट है. इस समय पूरी दुनिया में कुल 13 कंपनियां वैक्सीन का उत्पादन कर रही हैं. दुनिया की कुल आबादी है 750 करोड़. अगर सभी लोगों को वैक्सीन की दोनों डोज दी जाएं तो हमें वैक्सीन की 1500 करोड़ डोज चाहिए होंगी. लेकिन समस्या ये है कि बना सिर्फ 13 रही हैं. 

इंतजार किया तो कई लोगों की हो सकती है मौत

वहीं भारत की स्थिति से इसे देखें तो हमारे देश की कुल आबादी 135 करोड़ है. अगर हमारे देश में सभी लोगों को वैक्सीन लगाई जाती है तो हमें 270 करोड़ डोज की जरूरत पड़ेगी. जबकि अभी वैक्सीन बना रही हैं सिर्फ 2 कंपनियां. ये दो कंपनियां हर महीने औसतन 8 करोड़ डोज ही बना पाती हैं. इस हिसाब से देखें तो इन दो कंपनियों को सभी लोगों के लिए वैक्सीन बनाने में लगभग 3 साल लग जाएंगे. लेकिन अब आप खुद सोचिए कि क्या हमारे देश की स्थिति ऐसी है कि वो तीन साल इंतजार कर सके? अगर हमने इतना इंतजार किया तो कई लोगों की जान चली जाएगी.

भारत में सिर्फ 2 कंपनियां बना रहीं वैक्सीन

अब हम यहां ये कहना चाहते हैं कि अगर वैक्सीन से पेटेंट हटाया जाता है तो दुनिया में अभी जो सिर्फ 13 कंपनियां वैक्सीन बना रही हैं, उनकी संख्या हजारों में हो सकती है. यही भारत में भी हो सकता है. भारत में कुल 3 हजार फार्मा कंपनियां हैं. लेकिन वैक्सीन सिर्फ दो कंपनियां बना रही हैं. इन परिस्थितियों को देख कर हमें चेचक की याद आती है. दुनिया को पहली वैक्सीन वर्ष 1796 में मिली थी. ये वैक्सीन चेचक की थी और इसका अविष्कार ब्रिटिश वैज्ञानिक Edward Jenner ने किया था और उस समय वैक्सीन पर पेटेंट जैसे कानूनी अधिकार लागू नहीं होते थे. लेकिन सोचिए तब अगर ये व्यवस्था होती तो क्या होता? तो शायद इस बीमारी से करोड़ों लोगों की जान नहीं बच पाती. मौजूदा समय में शायद कुछ ऐसा ही हो रहा है. वो भी तब जब WHO भी कह चुका है कि जीवनरक्षक दवाइयों और टीकों का पेटेंट नहीं होना चाहिए.

इतिहास इन बातों से भरा पड़ा है कि विभिन्न बीमारियों की वैक्सीन में पश्चिमी देशों के प्रयास सबसे महत्वपूर्ण थे. पश्चिमी देशों ने भी हमेशा से इस बात का खूब प्रचार प्रसार किया. लेकिन इतिहास कभी हमारे देश के लोगों के साथ न्याय नहीं कर पाया. आपमें से बहुत कम लोग जानते होंगे कि दुनिया ने ये भारत से सीखा कि टीकाकरण अभियान कैसे चलाया जाता है और वैक्सीन कैसे बांटी जाती है.

ब्रिटेन में बना था चेचक का पहला टीका

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इसे आप इन तस्वीरों से समझ सकते हैं जो 18वीं सदी की हैं. तब कई देशों में चेचक की बीमारी तेजी से फैल रही थी और पश्चिमी देश इससे सबसे ज्यादा प्रभावित थे. और काफी संघर्ष के बाद वर्ष 1796 में ब्रिटेन पहला ऐसा देश बना, जब उसने चेचक का टीका विकसित कर लिया. हालांकि वहां बड़े पैमाने पर लोगों को ये टीका लगाने से पहले भारत के लोगों पर इसका परीक्षण किया गया.

भारतीयों पर जबरन हुआ था वैक्सीन का ट्रायल

अमेरिका के हार्वर्ड स्कूल और पब्लिक हेल्थ के प्रोफेसर डॉक्टर जेसी बम्प कहते हैं कि आज से करीब 219 साल पहले जब पूरी दुनिया चेचक की चपेट में थी, तब इसकी वजह से लाखों लोग अपनी जान गंवा रहे थे. ऐसे समय में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय लोगों पर जबरन वैक्सीन का क्लीनिकल ट्रायल शुरू किया था. भले ही इसका फायदा पूरी दुनिया को हुआ, लेकिन इसके लिए तब भारत के लोगों पर अत्याचार हुए.

कई बीमारियों के टीकों का भारत में हुआ ट्रायल

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चेचक के अलावा दूसरी बीमारियों के टीकों का भी भारत के लोगों पर इस्तेमाल हुआ. उस समय ब्रिटिश वैज्ञानिक शुरुआत में तैयार होने वाली सभी वैक्सीन का ट्रायल पहले गायों पर करते थे, फिर यहां रहने वाले अनाथ लोगों पर ये वैक्सीन इस्तेमाल होती थी और बाद में जबरन बाकी लोगों को भी ये टीका लगाया जाता था. ये वो दौर था, जब अंग्रेजों ने भारत को अपना गुलाम बना लिया था. और लोग अंग्रेजी हुकूमत के सामने लाचार थे.

ये तस्वीरें बताने के लिए काफी हैं कि ये टीकाकरण अभियान नस्लवादी और असंवेदनशील हुआ करते थे. लेकिन बड़ी बात ये है कि इतिहास की किताबों में आपको इसका जिक्र कहीं नहीं मिलेगा. जबकि कड़वी सच्चाई ये है कि ज्ञान और 'वेस्टर्न सुप्रीम' के नाम पर भारतीय लोगों के साथ बड़े स्तर पर मेडिकल क्राइम हुए. यहीं से पूरी दुनिया ने वैक्सीनेशन कैंपेन चलाना, वैक्सीन को बांटना सीखा.

UNICEF ने भी अपनाया भारतीय तरीका

समझने वाली बात ये है कि संयुक्त राष्ट्र की संस्था UNICEF आज भी भारतीय पैटर्न पर ही काम कर रही है. आज भी ऐसी वैक्सीन्स के ट्रायल के लिए भारत दुनिया की सबसे बड़ी जगह है. जबकि पश्चिमी देश इससे बचते आए हैं. भारत में एक नहीं कई वैक्सीन के ट्रायल हुए और अंग्रेजी सरकार के दौरान ये अत्याचार खूब हुआ. लेकिन इसके बावजूद भारत के लोगों को इसका श्रेय कभी नहीं मिला. 

यहां आज हम आपसे यही कहना चाहते हैं कि अब तक दुनिया को जो भी वैक्सीन मिल पाई हैं, इसके लिए उन्हें भारत का शुक्रिया करना चाहिए. लेकिन पश्चिमी देश ऐसा करने से बचते हैं. जबकि भारत आज भी इस संघर्ष में लगा हुआ है. अगर वैक्सीन पेटेंट मुक्त हो गई तो इसका फायदा सिर्फ हमारे देश के लोगों को नहीं मिलेगा. बल्कि इससे दुनिया की अंतिम पंक्ति में खड़े गरीब लोगों तक भी वैक्सीन उपलब्ध हो सकेगी. यही भारत की मांग भी है.

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