Shaligram and Ganapati: मंदिर का निर्माण 1750 में पेशवा राज में हुआ. गणपति मंदिर के लिए 20 स्तंभ बने, जो गणेश भगवान के 32 रूपों में से 20 का प्रतिनिधित्व करते हैं. मंदिर की सबसे चमत्कारी शक्ति ये मानी जाती है कि कर्नाटक-महाराष्ट्र के 5 जिलों के लोग यहां सामूहिक पूजा करते हैं और भाषा और परंपरा के तमाम विरोधभासों के बीच सद्भाव बना रहता है.
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Lord Ganesh kolhapur binkhambi ganesha temple: महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले के गणेशवाडी गांव के गणपति मंदिर में भगवान विष्णु के रूप शालिग्राम और शंकरजी के पुत्र भगवान गणेश की मौजूदगी भक्तों का बेड़ा पार लगाती है. लगभग 300 साल प्राचीन मंदिर में विराजमान हैं ऐसे गणपति, जिनके लिए पूरा गांव बसाया गया. 20 स्तंभों वाले मंदिर का निर्माण कराया गया. इस स्पेशल रिपोर्ट आपको बताएंगे, शालिग्राम, जिन्हें भगवान विष्णु की शिला कहा जाता है, क्या है इस शिला से बने गणपति का रहस्य? महाराष्ट्र और कर्नाटक की सीमा पर क्यों भगवान गणेश के लिए ही ये गांव बसाया गया था?
17वीं सदी का ‘पेशवा काल’ जब कोल्हापुर में बसा गांव
इस गांव की बसावट का काल हमने इसलिए पहले बताया, ताकि इसकी विरासत का कालखंड आपको पता रहे. क्योंकि इसी कालखंड में इस गांव की बुनियाद और यहां भव्य गणपति मंदिर का रहस्य छिपा है. गणेशवाडी के पूर्व सरंपच बलवंत गोरावड़े ने बताया कि मंदिर के निर्माण से पहले गांव बसाया गया. ये गणेशवाडी का संक्षिप्त इतिहास है, जो पूर्व सरपंच ने बताया. तब कोल्हापुर से लगे कर्नाटक की सीमा तक पेशवाओं का शासन था. इस काल में कई गणेश मंदिरों की स्थापना की गई थी, लेकिन इस गांव में गणपति को स्थापित करने के पीछे एक खास वजह है.
उस दौर में कृष्णा नदी के तट पर ये इलाका खेती बाड़ी वाला हुआ करता था. ये इलाका कोंकण और रत्नागिरी जाने का जाने का भी रास्ता था. इसी रास्ते पेशवा के सुबेदार और गणेश भक्त हरिभक्त पटवर्धन. रत्नागिरि जिले के गणपतिपुले के देवता के दर्शन करने जाते थे, लेकिन कोंकण छोड़ने के बाद, पटवर्धन को चिंता हुई कि यह यात्रा छूट जाएगी.
गणपति का गांव
सूबेदार हरिभट्ट पटवर्धन को जैसा सपने में दिखा था, ठीक वैसे ही कृष्णा नदी के तट पर मीनार के नीचे गणेश जी की प्रतिमा दिखाई दी. ये बात सूबेदार के सेवकों को भी हैरान करने वाली थी. आखिर इतनी अद्भुत मूर्ति एक स्वप्न के आधार पर कैसे मिली.इस मूर्ति की खास बात ये थी, कि ये उस कुरुंद पत्थर से तराशी थी, जो कर्नाटक महाराष्ट्र सीमा पर बड़ी मात्रा में मिलता है. इस मूर्ति ने कर्नाटक और महाराष्ट्र दोनों सूबों के किसानों को भाषा और क्षेत्रीय विवादों से उपर उठाया.
आज भी इस मंदिर मंदिर में विराजमान, कोल्हापुर के साथ सांगली और कर्नाटक के बीजापुर और बेलगाम के लोगों के लिए कुलदेवता की तरह है. कन्नड़ मे इसे देवरहाली नाम से जाना जाता है. देवरहाली का मतलब हुआ भगवान का गांव. इसका निर्माण कर्नाटक और महाराष्ट्र के पांच जिले के लोगों ने मिलकर किया. और नाम दिया गया गणेशवाड़ी. मंदिर में जब गणपति की प्राण प्रतिष्ठा की गई, तो कुछ ही दिनों में कई चमत्कारिक शक्तियां की वजह से ये मंदिर लोगों के बीच चर्चा केन्द्र बन गया.
गणेशवाडी का चमत्कारी विष्णु गणेश मंदिर!
गणेशवाडी के गणपति को लेकर एक चमत्कारी मान्यता है. यहां विष्णु-गणेश की जय-जयकार होती है. इस मंदिर में विराजे गणपति जिस पत्थर पर उकेरे गए हैं, वो शालिग्राम है. यानी भगवान विष्णु की शिला. इसलिए इन्हें विष्णु गणेश कहा जाता है. करीब तीन फीट ऊंची प्रतिमा की खास बात ये है, कि इसका रंग पारंपरिक स्याह की जगह केसरिया है. इस रूप में मूर्ति का स्वरूप भक्तों की आंखों में बस जाता है.
मूर्ति की आंखे इतनी भावपूर्ण है, कि ये भक्तों के दिल में उतर जाती है.अब यहां गणपति से जुड़ी भगवान विष्णु की शिला- यानी शालीग्राम का रहस्य जान लीजिए.
शालीग्राम मुख्य रूप से एक जीवाश्म पत्थर है.
6 करोड़ साल पुराने अमोनाइट जीवाश्म का हिस्सा माना जाता है.
ये में काली गंडकी नदी में विशेष रूप से मिलता है.
ये काला, भूरा, पीला, हरा और नीले रंग का होता है.
शिला में सुदर्शन चक्र की तरह आकृति दिखती है.
इसीलिए भगवान विष्णु का प्रतीक पत्थर माना जाता है
दक्षिण में कृष्णा नदी में मिलने वाले शालीग्राम अमूमन पीले या भगवा रंग के होते हैं. इन्हें भी भगवान विष्णु की प्रतीक शिला के रूप में जाना जाता है. इसी शिला से गणपति की मूर्ति बनी होने की वजह से खास महत्व है.
एक सूनसान इलाके में मंदिर के निर्माण के बाद पेशवा के 12 बलूतेदारों ने गांव की नीव रखी. वो तिथि थी माघ महीने की. आज भी फरवरी माह में माघी गणेश जयंती पर गणेशवाडी में बड़ा उत्सव होता है जो गणेशवाडी गांव और इस मंदिर की स्थापना से जुड़ा है.
मंदिर का निर्माण 1750 से 1756 में पेशवा शासन में कराया गया था. गणपति के मंदिर के लिए अनूठी शैली में 20 स्तंभ बनाए गए, जो गणेश जी के 32 रूपों में से 20 का प्रतिनिधित्व करते हैं. कर्नाटक और महाराष्ट्र के पांच जिलों के लोग इनकी सामूहिक पूजा की वजह से भाषा और परंपरा के तमाम विरोधभासों के बीच हमेशा सद्भाव बना रहता है.