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नई दिल्ली: हम आपको बताएंगे कि कैसे तब्लीगी जमात पर सऊदी अरब की ओर से प्रतिबंध लगाने के बाद अब इस्लामिक देशों में तब्लीगी जमात को लेकर वैचारिक जंग छिड़ गई है. पाकिस्तान के पंजाब प्रांत की विधान सभा में तब्लीगी जमात के समर्थन में एक प्रस्ताव पास हुआ है और सऊदी अरब की आलोचना की गई है.
आपको जानकर हैरानी होगी कि जिस तब्लीगी जमात पर पाकिस्तान और सऊदी अरब एक-दूसरे का विरोध कर रहे हैं, उसकी स्थापना आज से 94 साल पहले वर्ष 1927 में दिल्ली के पास मेवात में हुई थी. सबसे पहले आपको इस प्रस्ताव के बारे में बताते हैं.
ये प्रस्ताव पाकिस्तान के पंजाब प्रांत की विधान सभा में पास हुआ है, जो ये कहता है कि तब्लीगी जमात का आतंकवाद से कोई लेना देना नहीं है. सऊदी अरब ने पिछले दिनों जब तब्लीगी जमात पर प्रतिबंध लगाया था, तब उसने तब्लीगी जमात को आतंकवाद का द्वार बताया था. यानी इस प्रस्ताव के जरिए पाकिस्तान ने सऊदी अरब के खिलाफ वैचारिक जंग शुरू कर दी है.
हालांकि आप सोच रहे होंगे कि पाकिस्तान को तब्लीगी जमात का समर्थन करके क्या मिलेगा? तो इसका जवाब ये है कि पाकिस्तान ऐसा करके खुद को दुनिया में इस्लाम धर्म का सबसे बड़ा चैम्पियन साबित करना चाहता है. वो ये दिखाना चाहता है कि जब सऊदी अरब अपने देश की महिलाओं को ज्यादा अधिकार दे रहा है और तब्लीगी जमात जैसे इस्लामिक संगठनों पर बैन लगा रहा है, तब वो इन संगठनों के साथ खड़ा है और इस्लाम धर्म की मान्यताओं को सख्ती से लागू करने की मांग कर रहा है.
दूसरी बात, इस प्रस्ताव की एक वजह भारत भी है. वर्ष 2019 में जब प्रधानमंत्री मोदी ने जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 को समाप्त किया था, तब पाकिस्तान की कोशिशों के बावजूद सऊदी अरब और UAE ने इस पर भारत के खिलाफ जाने से इनकार कर दिया था. उन्होंने पाकिस्तान को ये मुद्दा इस्लामिक देशों के संगठन Organisation of Islamic Cooperation में भी नहीं उठाने दिया था.
एक और पॉइंट ये है कि इस समय पूरी दुनिया में अगर तब्लीगी जमात सबसे ज्यादा कहीं संगठित है तो वो देश हैं पाकिस्तान और भारत. इसलिए पाकिस्तान चाह कर भी तब्लीगी जमात के खिलाफ कभी नहीं जाएगा और भारत में भी ऐसा करना मुश्किल है. क्योंकि यहां इस्लाम को धर्म नहीं बल्कि राजनीति का हिस्सा बनाया जा चुका है. इसके नाम पर चुनाव लड़े जाते हैं और इसे वोट बैंक की तरह देखा जाता है. इसलिए भारत में तब्लीगी जमात पर बैन लगाने का फैसला लेना बहुत मुश्किल है.
तब्लीगी जमात की स्थापना देश की राजधानी दिल्ली से केवल 100 किलोमीटर दूर हरियाणा के मेवात में हुई थी. ये बात वर्ष 1927 की है. उस समय कुछ मुस्लिम धर्मगुरु इस बात से परेशान थे कि भारत का मुस्लिम समाज हिन्दू धर्म की मान्यताओं और त्योहारों से काफी प्रभावित था. इसे रोकने के लिए ही इस्लामिक धर्मगुरु मोहम्मद इलियास अल कांधलवी ने वर्ष 1927 में तब्लीगी जमात की नींव रखी, जिसका मकसद था मुसलमानों को इस्लाम के रास्ते पर चलने की प्रेरणा देना.
इसके संस्थापकों को लगता था कि भारत का मुसलमान भटक गया है और उसे फिर से इस्लाम के रास्ते पर लाना होगा. यहां सही रास्ते से मतलब ये था कि, जो लोग इस्लाम को मानते हुए भी हिन्दू तौर तरीको और त्योहारों को नहीं छोड़ पा रहे हैं, उनसे बात करके उन्हें ये समझाना कि वो ऐसा करके गलत कर रहे हैं और उनके ऐसा करते रहने से एक दिन इस्लाम धर्म समाप्त हो जाएगा.
शुरुआती वर्षों में तब्लीगी जमात ने भारत में इस्लाम के प्रचार प्रसार पर बहुत काम किया और इस दौरान पुरुषों को लम्बी दाढ़ी रखने की सलाह दी गई. महिलाओं को बुर्के में रहने के लिए कहा गया और उस समय के तब्लीगी जमात से जुड़े मुस्लिम धर्मगुरुओं ने आधुनिकीकरण और धर्मनिरपेक्षता का भी खुल कर विरोध किया. यानी जिस समय भारत में आजादी के लिए स्वतंत्रता सेनानी कुर्बानियां दे रहे थे, उस समय तब्लीगी जमात मुस्लिम समुदाय के बीच हिन्दू परम्पराओं के प्रभाव को कम करने पर ध्यान दे रही थी.
आजादी के बाद 1950 के दशक में तब्लीगी जमात का काफी विस्तार हुआ और सऊदी अरब ने इस संस्था की आर्थिक रूप से काफी मदद की. यानी जो सऊदी अरब आज तब्लीगी जमात को आतंकवाद का द्वार बता रहा है, उसी सऊदी अरब ने एक समय इस इस्लामिक संस्था की मदद की थी. इसके पीछे मकसद ये था कि तब्लीगी जमात सुन्नी इस्लाम की जिन मान्यताओं का प्रचार प्रसार करती है, उससे इस्लाम की एक और विचारधारा Wahhabism का विस्तार होगा. मतलब वहाबी विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए तब्लीगी जमात का सहारा लिया गया.
समय के साथ-साथ ये इस्लामिक संस्था दुनिया में मजबूत होती चली गई. Pew Research के मुताबिक आज तब्लीगी जमात को मानने वालों की संख्या 1 करोड़ 20 लाख से 8 करोड़ के बीच हो सकती है और ये संस्था 150 से ज्यादा देशों में काम कर रही है. इनमें अकेले यूरोप में इसके डेढ़ लाख सक्रिय सदस्य हैं.
तबलीगी जमात का मकसद, इस्लाम का प्रचार प्रसार करना है और लोगों को इस्लाम के रास्ते पर चलने की प्रेरणा देना है. लेकिन सिर्फ यही सच नहीं है, इस संस्था की गतिविधियों की वजह से सऊदी अरब की तरह कई देशों में इस पर प्रतिबंध लग चुका है. 2013 में उजबेकिस्तान, ताजिकिस्तान और कजाखस्तान जैसे देशों ने इस पर बैन लगा दिया था. इन देशों में इस संस्था पर कट्टर इस्लाम को बढ़ावा देने का आरोप था.
कुछ वर्ष पहले Wikileaks ने भी तब्लीगी जमात को लेकर एक बड़ा खुलासा किया था जिसमें आरोप था कि दिल्ली स्थित निजामुद्दीन के इसके मुख्यालय का इस्तेमाल संदिग्ध गतिविधियों के लिए किया जाता है. कुछ देशों का तो आरोप है कि तब्लीगी जमात द्वारा कई देशों में आतंकवादियों की भी भर्ती की जाती है.
वर्ष 2007 में ब्रिटेन के ग्लासगो एयरपोर्ट पर एक आतंकवादी हमला हुआ था, इस हमले का आरोप कफील अहमद नाम के युवक पर लगा था और आरोप लगे कि कफील तब्लीगी जमात से जुड़ा था. वर्ष 2005 में लंदन में हुए बम धमाकों के आतंकवादी शहजाद तनवीर और मोहम्मद सिद्दिकी खान भी तब्लीगी जमात के सदस्य थे. लेकिन अब खुद सऊदी अरब इस संस्था को खतरनाक मान रहा है. हालांकि आपके मन में भी ये सवाल होगा कि तबलीगी जमात पर सऊदी अरब ने किस डर से प्रतिबंध लगाया है? क्योंकि पहले तो वो उसकी मदद कर रहा था.
सऊदी अरब ने पिछले कुछ वर्षों में ऐसे फैसले लिए हैं, जो ये बताते हैं कि वो खुद को इस्लामिक कट्टरपंथ से अलग रखना चाहता है. जैसे उसने महिलाओं को गाड़ी चलाने की इजाजत दे दी है. अब वहां महिलाएं अकेले रह सकती हैं और बिना किसी पुरुष के बाहर कहीं भी आ जा सकती हैं. माना जाता है कि इन फैसलों से तब्लीगी जमात में असंतोष था और वो सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के खिलाफ लोगों को भड़का रही थी, जिसकी वजह से तब्लीगी जमात को बैन कर दिया गया.
ये एक बड़ा विरोधाभास है कि दुनिया में इस्लाम के जो मुख्य केंद्र हैं, जो देश खुद को इस्लामिक राष्ट्र कहते हैं, उन देशों में तो बदलाव आ रहा है. ऐसे देश अपनी छवि को बदलने के लिए खुद को इस्लामिक कट्टरपंथ से अलग कर रहे हैं. लेकिन भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे देशों में मुस्लिम धर्मगुरुओं द्वारा इस्लामिक कट्टरपंथ को मजबूत किया जा रहा है और ऐसा शायद इसीलिए है क्योंकि इन देशों में इस्लाम को धर्म नहीं बल्कि राजनीति का हिस्सा बनाया जा चुका है. इसके नाम पर चुनाव लड़े जाते हैं और इसे वोट बैंक की तरह देखा जाता है जबकि इन देशों में इस्लाम 1200 साल पहले आया है.
आज से 1200 साल पहले तक भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लाम धर्म नहीं था. इसका प्रवेश 8वीं शताब्दी में हुआ, जब एक अरब सिपहसालार मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर हमला किया. लेकिन सोचिए, जिस भारतीय उपमहाद्वीप में आज से 1200 साल पहले तक इस्लाम धर्म था ही नहीं, वहां तो कट्टरपंथी इस्लामिक मान्यताएं मजबूत हो रही हैं, लेकिन जो देश खुद को इस्लामिक राष्ट्र कहते हैं, वहां ये ट्रेंड बदल रहा है.
मुसलमानों के सबसे बड़े धार्मिक स्थल मक्का के काबा को पिछले साल फरवरी में ही कोविड की वजह से आम लोगों के लिए बंद कर दिया गया था और तीर्थयात्रियों के लिए मक्का और मदीना की धार्मिक यात्रा को रोक दिया गया था. लेकिन भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में जब कोविड की वजह से मस्जिदों को बन्द करने की बात आई तो यहां काफी विवाद हुआ. पाकिस्तान में तो कोरोना के मामले बढ़ने के बाद भी मस्जिदों को बन्द नहीं किया गया और भारत में भी मस्जिदों को बन्द करने पर काफी विवाद हुआ.
कुल मिलाकर कहें तो सऊदी अरब हो, UAE हो, टर्की हो या ईरान हो, इन सभी देशों में मस्जिदों में सामूहिक नमाज इसलिए बन्द कराई जा सकती है, क्योंकि इन देशों की राजनीति मुस्लिम वोटों पर आश्रित नहीं है. लेकिन हमारे यहां क्योंकि वर्षों से वोटबैंक की राजनीति होती रही है इसीलिये इस्लाम धर्म को लेकर ऐसे किसी कड़े फैसले की बात होती है तो वोट बैंक आड़े आ जाता है, असहिष्णुता की दुहाई दी जाने लगती है. वर्ना सोचिए, क्या जो फैसला तब्लीगी जमात पर सऊदी अरब ने लिया है, वो भारत ले सकता है?