सबसे पहले किस प्रौद्योगिकी की ज़रूरत है देश को
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सबसे पहले किस प्रौद्योगिकी की ज़रूरत है देश को

सबसे पहले किस प्रौद्योगिकी की ज़रूरत है देश को

सुविज्ञा जैन

राजनीतिक व्यवस्था कोई भी हो उसका मकसद अपने नागरिकों को सुख सुविधाएं पहुंचाना ही होता है. लेकिन लोकतंत्र की यह सबसे बड़ी खासियत है कि उसमें अधिकतम नागरिकों कों अधिकतम सुख पहुंचाने का विश्वसनीय आश्वासन है. लोकतंत्र में सबको एक जैसा मानने का इरादा होता है. लोकतांत्रिक देश के संसाधनों पर सभी नागरिकों का समान अधिकार होता है. इसीलिए लोकतांत्रिक देश का लक्ष्य अपने सभी नागरिकों को समतुल्य सुख सुविधाएं मुहैया कराना है. लेकिन सिर्फ इरादे से काम बनता नहीं है. अपने मकसद को पूरा करने के लिए तरीका भी निकालना पड़ता है. अपने देश में हम क्या तरीके अब तक अपनाते रहे हैं? इस समय क्या तरीके अपना रहे हैं? और अगर कोई कमी रह गयी हो तो हमें क्या तरीका अपनाना चाहिए? इस पर सोच-विचार के महत्व को कौन नकार सकता है. 

देश की व्यवस्था में क्या-क्या होते हैं काम 

किताबों के मुताबिक राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और वैधानिक काम अगर कोई सरकार व्यवस्थित रूप से कर लेती है तो समझिए कि उसका सारा काम निपट गया. आमतौर पर कामों की लिस्ट तो बन जाती है लेकिन वे होंगे कैसे? उसके तरीके तय करने में मुश्किल आती है. यानी क्या होना है यह तो पता होता है लेकिन कैसे होना है यह शुरू से पता नहीं होता. देश का अबतक अनुभव बताता है कि व्यवस्था के चारों क्षेत्रों में अपने इरादों को पूरा करने के तरीकों को अपनाने में हम गच्चा खाते चले आ रहे हैं.

जनता की आकांक्षा का सवाल 

लोकतांत्रिक व्यवस्था में सबको समान सुख सुविधाएं मुहैया कराने का काम इसलिए और भी बड़ा है क्योंकि लोकतंत्र में नागरिकों की आकांक्षा सबसे ऊपर होती है. जनता की आंकाक्षाओं की पूर्ति के लिए क्या-क्या काम होने हैं उन्हें तय करने के लिए हमारे पास एक ही उपाय है कि देश में उपलब्ध नौकरशाहों और अपने अपने क्षेत्र के विशेषज्ञों की मदद से कामों की लिस्ट बनवा लें. जनता की आंकाक्षा जानने का निरापद उपाय हम आज तक नहीं ढूंढ पाए. ले-देकर एक चुनाव प्रणाली है. इसके जरिए जनता अपने हित में काम करने का हक अपने प्रतिनिधि को दे देती है. आजादी के बाद से यही होता रहा और आज भी इसके अलावा ज्यादा कुछ सोचा नहीं जा पाया. सरकार बन जाने के बाद नौकरशाहों और क्षेत्र विशेष के विशेषज्ञों की सलाह से होते चले आ रहे अच्छे-बुरे कामकाज की जिम्मेदारी लोकतंत्र के अग्रज यानी राजनेता अपने ऊपर लेते चले आ रहे हैं. इसीलिए प्रशंसा और लानत उनको ही मिलती है.

कहां है बेहतरी की गुंजाइश

अब तक का अनुभव यह है कि सरकार के जो भी लक्ष्य नीति या योजना सरकारी योजनाकारों की देखरेख में बनती हैं उनके फायदे हर नागरिक तक पहुंचते नहीं दिखे. साफ दिखता है उन कार्यक्रमों से जितने लाभ की गुंजाइश होती है उतना लाभ नहीं होता. यानी आज हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती योजनाओं और कार्यक्रमों को कारगर तरीके से लागू करने की है. इस काम के लिए हमें विश्वसनीय प्रक्रिया की तलाश है. अब यह सवाल उठता है कि ज्ञान, विज्ञान और प्रौद्योगिकी की अनगिनित शाखाओं में वह कौन सी प्रौद्योगिकी है जिस पर हम भरोसा कर सकें. अनेक प्रौद्योगिकियों के अपने खुद के विकास को देखें तो इस समय प्रबंधन प्रौद्योगिकी पर हमारी नज़र जाती है.

प्रबंधन प्रौद्योगिकी को इतना महत्त्व किस आधार पर

क्योंकि प्रबंधन प्रौद्योगिकी ही है जिसका प्रशिक्षु सबसे पहले पढ़ता और जानता है कि उसे किन-किन चीजों के प्रबंधन का काम जानना है. उसे पांच चीजों के प्रबंधन का हुनर सिखाया जाता है. पूरी दुनिया के विश्वविद्यालय इन्हें '5 एम' के नाम से पढ़ाते हैं. ये हैं मैन, मनी, मटेरियल, मशीन और मैथड. अग्रेंजी के ये पांचों शब्द बहुश्रुत हैं इसलिए इनके हिंदी में मायने या व्याख्या की जरूरत नहीं दिखती. इन पांचों पर गौर करें तो कसी भी सरकार के सारे काम इन पांच एम के दायरे में आ जाते हैं. सरकार के सारे मंत्रालयों को देखें तो ऊपर से नीचे तक उनके अधिकारी और कर्मचारी दिन रात इन्हीं पांच एम में से किसी एक एम के प्रबंधन में लगे दिखते हैं. लेकिन सामान्य अनुभव है कि सत्तर साल के अपने हृष्ट-पुष्ट लोकतंत्र में अब तक हमने प्रबंधन प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में नहीं किया. जबकि आज की जरूरत को देखें तो प्रबंधन प्रौद्योगिकी का हर प्रकार का कौशल देश की हर व्यवस्था को सुचारू बनाने में आश्चर्य रूप से कारगर हो सकता है.

उदाहरणार्थ, देश में बेरोजगारी का अप्रबंधन क्या पहले एम यानी मैन के प्रबंधन में आ रही अड़चन की तरफ इशारा नहीं करता. अपने घोषित लक्ष्यों को हासिल करने में मनी की दिक्कत क्या दूसरे एम की याद नहीं दिलाती. प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न अपने देश में मैटेरियल या कच्चे माल के प्रबंधन में ढिलाई, और हमेशा ही विदेशी मशीन की तरफ मुंह ताकना और पांचवे एम के तौर पर फाइन और एफिशियंट टैक्नोलाजी यानी मैथड के रूप में विदेशी टैक्नालजी पर निर्भरता बढ़ती जाना क्या यह साबित नहीं कर रहे हैं कि देश को हर क्षेत्र में प्रबंधन प्रौद्योगिकी की दरकार है.

काम का तरीका इसी प्रौद्योगिकी का विषय है

कहते हैं कि 'ए प्रोजक्ट वैल प्लॅान्ड इज़ हाफ डन' यानी किसी काम की एक सुविचारित योजना बन जाने का मतलब है कि आधा काम निपट गया. बाकी आधा काम उसका व्यवस्थित तरीके से कार्यान्वयन से पूरा होता है. प्रबंधन प्रौद्योगिकी के प्रशिक्षण का पूरा पाठयक्रम प्रशिक्षु को इस काम में हुनरमंद बनाने के लिए ही होता है. और बेशक उद्योग व्यापार जगत में वे आजकल अपने इस हुनर का डंका बजा रहे हैं. ये हुनरमंद लोग इस समय अपनी प्रौद्योगिकी को किसी एक उद्योग या एक व्यापार चलाने तक सीमित रखे हैं. जबकि उनका इस्तेमाल पूरे देश की व्यवस्थाओं में किए जाने की दरकार है.

प्रबंधन प्रौद्योगिकी के मुताबिक सोचा जाए तो दुनिया जिस रफ्तार से आगे बढ़ रही है अगर हमें उसी रफ्तार से आगे बढ़ना है तो पांचों एम के प्रबंधन में मैनेजमेंट प्रोफेशनल्स को शामिल करना होगा. इससे हम मैन, मनी मटेरियल का सही एवं व्यवस्थित प्रबंधन कर सकेंगे और मशीन एवं मैथड के मामले में आत्मनिर्भर बन सकेंगे. क्योंकि विदेशों से टेक्नोलॉजी और मशीनरी लेते रहकर लॉन्ग टर्म में विकास को सस्टेन नहीं कराया जा सकता.

(लेखिका प्रबंधन प्रौद्योगिकी की प्रशिक्षित विशेषज्ञ और सोशल इंटरप्रेन्योर हैं) 

 

 

 

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