Who is Banu Mushtaq: कर्नाटक की 77 साल की बानू मुश्ताक ने एक इतिहास रचा है. उन्हें 2025 का अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिला है. बानू की उनकी लघु कहानी संग्रह 'हार्ट लैंप' के लिए प्रतिष्ठित इंटरनेशनल बुकर प्राइज 2025 मिला है. आइए जानते हैं आखिर कौन हैं बानू मुश्ताक.
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International Booker Prize 2025 Banu Mushtaq: 77 साल की बानू मुश्ताक अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीतने वाली पहली कन्नड़ लेखिका बन गई हैं. यह सम्मान उन्हें अपनी किताब हार्ट लैंप के लिए मिला है. लंदन में उन्होंने मंगलवार रात टेट मॉडर्न में एक समारोह में अपनी अनुवादक दीपा भस्थी के साथ यह पुरस्कार प्राप्त किया, इस मौके पर जानते हैं आखिर कौन हैं बानू मुश्ताक? कहां से अपनी पढ़ाई लिखाई पूरी की क्या रहा उनका जीवन सफर.
कौन हैं बानू मुश्ताक?
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, बानू मुश्ताक का जन्म 1948 में कर्नाटक के हासन कस्बे में एक बड़े मुस्लिम परिवार में हुआ. उनकी बचपने के दौरान घर में उर्दू और कुरान की तालीम ली और स्कूल में पिता की जिद पर कन्नड़-माध्यम कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ाई की. बानू आठ साल की उम्र में ही कन्नड़ में पढ़ने-लिखने लगीं, जो आगे चलकर उनकी रचनात्मक भाषा बनी. बानू मुश्ताक पेशे से वकील और पत्रकार हैं. वह कवयित्री, उपन्यासकार और सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं. उनके लेखन में सामाजिक मुद्दों पर गहरी पकड़ है. वे महिलाओं के अनुभव, प्रजनन अधिकार, आस्था, जाति, शक्ति संरचना और उत्पीड़न जैसे विषयों पर लिखती हैं.
शिक्षा, विवाह और लेखन की शुरुआत
उस दौर में जब महिलाओं के लिए पढ़ाई बहुत मुश्किल थी, बानू ने परंपराओं को तोड़ा. उन्होंने विश्वविद्यालय में पढ़ाई की और 26 साल की उम्र में प्रेम विवाह किया, जिसके चलते परिवार और समाज से खूब आलोचना झेली. लोगों ने जमकर विरोध किया. उसी साल उनकी पहली कहानी कन्नड़ पत्रिका प्रजामाता में छपी. लेकिन बानू का लेखन तब परवान चढ़ा, जब वह व्यक्तिगत संकट से गुज़र रही थीं. बानु को डिप्रेशन हुआ था. उन्होंने इस पर खुलकर बात भी की थी, उनका कहना था कि जैसे कुछ अंदर टूट रहा हो. एक बार लगा कि जिंदगी खत्म कर लें. लेकिन पति ने उन्हें बचा लिया. इस अनुभव ने उन्हें और संवेदनशील बनाया, जो उनकी कहानियों में झलकता है.
साहित्य के जरिए विरोध
बानू की रचनाएं उनकी सामाजिक सक्रियता से जुड़ी हैं. उनकी कहानियां कर्नाटक की मुस्लिम महिलाओं के दैनिक संघर्षों को बयां करती हैं. 1970 और 1980 के दशक में देखे गए दलित आंदोलन, किसान प्रदर्शन, भाषा आंदोलन और पर्यावरण की लड़ाई ने उन्हें प्रेरित किया. तभी तो बानू ने बुकर प्राइज फाउंडेशन से कहा, “हाशिए पर पड़े लोगों, खासकर महिलाओं और वंचितों की ज़िंदगी में मेरी सीधी भागीदारी ने मुझे लिखने की ताकत दी. कर्नाटक की सामाजिक सच्चाइयों ने मुझे गढ़ा.” उनकी रचनाएं आत्मकथात्मक हैं, जहां हकीकत और कल्पना का मेल है. वह कहती हैं, “मेरा दिल ही मेरा अध्ययन क्षेत्र है.” उनकी कहानियाँ उन महिलाओं की आवाज़ बनती हैं, जो धर्म, समाज और राजनीति की बेड़ियों में जकड़ी हैं, लेकिन अपनी गरिमा और आज़ादी की खोज में हैं.
बानू मुश्ताक: किताबें और सम्मान
बानु का साहित्यिक योगदान बहुत ही बड़ा है. उन्होंने छह लघु कहानी संग्रह, एक उपन्यास, निबंध संग्रह और कविता संग्रह लिखा. उनकी रचनाओं का कई भारतीय भाषाओं और हाल ही में अंग्रेजी में अनुवाद हुआ. हार्ट लैंप उनकी पहली अंग्रेजी अनुवादित किताब है. उनकी कहानी “कारी नागरगालु” 2003 में पुरस्कार विजेता फिल्म हसीना बन चुकी है. उन्हें कर्नाटक साहित्य अकादमी पुरस्कार और दाना चिंतामणि अत्तिमब्बे पुरस्कार मिल चुके हैं, लेकिन अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार ने उन्हें पूरी दुनिया में एक अलग पहचान दिला दी है.
किस किताब के लिए मिला बुकर
दीपा भास्थी द्वारा अनुवादित हार्ट लैंप 12 कहानियों का संग्रह है, जो 1990 से 2023 तक कर्नाटक की मुस्लिम महिलाओं की ज़िंदगी, उनके संघर्ष, खुशियों और चुपके से किए गए विद्रोह को दर्शाता है. यह पहला कन्नड़ संग्रह है, जिसने अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीता. जजों ने इसे “जीवंत और उत्साहवर्धक” कहानियाँ बताया, जो अंग्रेजी पाठकों के लिए कुछ नया पेश करती हैं. पुरस्कार ग्रहण करते हुए बानु ने कहा, “यह सिर्फ़ मेरी जीत नहीं, बल्कि उन अनसुनी आवाज़ों का कोरस है, जो अब तक दबी थीं.”