ZEE जानकारी : क्या कहते हैं उपचुनाव के नतीजे?
Advertisement

ZEE जानकारी : क्या कहते हैं उपचुनाव के नतीजे?

दो राज्यों में हुए उप चुनावों के नतीजे घोषित हुए हैं. और ये दोनों उपचुनाव बीजेपी के लिए निराशा लेकर आए हैं. 

ZEE जानकारी : क्या कहते हैं उपचुनाव के नतीजे?

ऐसा कोई सगा नहीं, जिसे नेताओं ने ठगा नहीं. आमतौर पर नेता वोटरों को ठगते हैं.. लेकिन आज वोटरों ने नेताओं को ठग लिया है. और यही आज की सबसे बड़ी राजनीतिक ख़बर है. आज दो राज्यों में हुए उप चुनावों के नतीजे घोषित हुए हैं. और ये दोनों उपचुनाव बीजेपी के लिए निराशा लेकर आए हैं. वैसे तो उपचुनावों को औपचारिकता माना जाता है और उप-चुनावों के नतीजों से किसी सरकार का गिरना या बनना तय नहीं होता. लेकिन अगर उप-चुनाव किसी राज्य के मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री की छोड़ी हुई सीटों पर हों और वो दोनों ही ये सीटें हार जाए, तो फिर नतीजे बड़े हो जाते हैं. उत्तर प्रदेश में ऐसा ही हुआ है. वहां मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री अपनी पार्टी को, अपनी ही सीटों पर नहीं जिता पाए. ये उप चुनाव इसलिए भी खास थे, क्योंकि इनमें बीएसपी ने समाजवादी पार्टी को समर्थन दिया था. इसलिए राजनीतिक विशेषज्ञ मान रहे हैं कि 2019 में नरेन्द्र मोदी या बीजेपी को हराने के लिए ये फॉर्मूला अपना असर दिखा सकता है. इस नतीजे में बहुत सारी शिक्षाएं और समीकरण छिपे हुए हैं इसीलिए आज हम इन नतीजों का DNA टेस्ट करेंगे

लेकिन सबसे पहले आपको आज के उपचुनावों के नतीजे बता देते हैं. 

आज उत्तर प्रदेश की दो और बिहार की एक लोकसभा सीट के नतीजे घोषित हुए हैं. 

और इन तीनों ही सीटों पर बीजेपी हार गई है. 

सबसे पहले बात उत्तर प्रदेश की. यहां गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुए थे. क्योंकि गोरखपुर से सांसद योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे. इसलिए उनकी सीट खाली थी. 

जबकि केशव प्रसाद मौर्या के उत्तर प्रदेश का उप-मुख्यमंत्री बनने के बाद, फूलपुर सीट भी खाली थी. 

लेकिन उत्तर प्रदेश के CM और Deputy CM, अपनी सीटों पर भी, अपनी पार्टी को नहीं जिता पाए. 

दोनों ही सीटों पर समाजवादी पार्टी के प्रत्याशियों की जीत हुई है. 

फूलपुर में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार नागेंद्र पटेल ने बीजेपी के उम्मीदवार कौशलेंद्र पटेल को 59 हज़ार 613 वोट से हराया. 

जबकि गोरखपुर में समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी प्रवीण निषाद ने बीजेपी के उम्मीदवार उपेन्द्र शुक्ला को 21 हज़ार 881 वोटों से हराया है. 

बिहार की अररिया लोकसभा सीट पर हुए चुनावों में RJD के प्रत्याशी सरफराज़ आलम ने 61 हज़ार 788 वोटों से जीत हासिल की है. ये सीट पहले भी RJD के पास थी... यानी RJD ने तो अपनी सीट बचा ली लेकिन बीजेपी अपनी सीटें नहीं बचा पाई.

इसके अलावा बिहार की दो विधानसभा सीटों पर भी उपचुनाव हुए थे. 

बिहार की भभुआ विधानसभा सीट पर हुए चुनाव में बीजेपी की रिंकी रानी पांडे ने जीत हासिल की. 

जबकि जहानाबाद से आरजेडी के प्रत्याशी सुदय यादव जीते हैं. 

अब सवाल ये है कि बीजेपी इन महत्वपूर्ण सीटों का चुनाव क्यों हार गई? सिर्फ 1 साल पहले ही उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में बीजेपी की बंपर जीत हुई थी. ऐसे में विपक्षी पार्टियां ये सवाल उठा रही हैं कि क्या एक साल में ही लोग बीजेपी से निराश हो गए हैं ? 

बीजेपी की हार की सबसे बड़ी वजह रही कम मतदान होना. इन उपचुनावों में गोरखपुर में सिर्फ 47% मतदान हुआ था. 

इसकी बड़ी वजह ये रही कि बीजेपी का अपना मतदाता वोट देने ही नहीं गया.

बीएसपी द्वारा एसपी को दिए गए समर्थन की वजह से दलित, पिछड़ा वर्ग और मुस्लिम वोट समाजवादी पार्टी को मिला. 

गोरखपुर में करीब 4 लाख निषाद मतदाता हैं. और हर बार ये वर्ग बीजेपी को वोट देता था. 

लेकिन इस बार अखिलेश यादव ने सीधे निषाद पार्टी के साथ गठबंधन कर लिया. निषाद पार्टी के अध्यक्ष के बेटे प्रवीण निषाद ने समाजवादी पार्टी के चुनाव चिह्न पर चुनाव लड़ा. और इससे समाजवादी पार्टी को लाभ हुआ.

इसके अलावा यादवों, मुस्लिमों और दलितों के वोट भी समाजवादी पार्टी को मिले. 

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार पर ठाकुरवाद का आरोप लगता रहा है. और इसकी प्रतिक्रिया इस बार इन चुनावों में देखने को मिली. क्योंकि गोरखपुर का ब्राह्मण वोट बैंक Silent हो गया और वोट देने ही नहीं गया. 

गोरखपुर में करीब 2 लाख ब्राह्मण वोटर्स हैं. और इन वोटर्स की उदासीनता की वजह से 29 वर्षों में पहली बार गोरखपुर से बीजेपी की हार हुई है.

इसके अलावा बीजेपी के आम कार्यकर्ताओं में इस बात की भी नाराज़गी है कि पुलिस और प्रशासन के अधिकारी कार्यकर्ताओं की बात नहीं सुनते. इसलिए बीजेपी का कार्यकर्ता भी Silent रहा और ज्यादा सक्रिय नहीं हुआ.

गोरखपुर में ऑक्सीजन की कमी से बहुत से बच्चों की मौत हुई और इस वजह से भी योगी सरकार की किरकिरी हुई थी. कुछ लोग इसे भी हार की एक बड़ी वजह मान रहे हैं. 

अब आपको ये बताते हैं कि फूलपुर से बीजेपी क्यों हारी? 

फूलपुर कांग्रेस की परंपरागत सीट रही है. इस सीट से पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू चुनाव लड़ते थे. 
2014 में नरेंद्र मोदी की लहर थी और इसीलिए पहली बार ये सीट बीजेपी के खाते में आई थी. तब केशव प्रसाद मौर्य को 52% वोट मिले थे और वो जीत गये थे.

लेकिन इस बार बीजेपी ने कौशलेन्द्र पटेल को अपना प्रत्याशी बनाया. वो फूलपुर के लिए एक बाहरी नेता थे. वो मूल रूप से मिर्ज़ापुर के रहने वाले हैं. इसलिए स्थानीय प्रत्याशी का ना होना भी बीजेपी के लिए नुकसान दायक रहा. 

फूलपुर में कुर्मी या पटेल वोटर्स की संख्या करीब 3 लाख है, जबकि यादव ढाई लाख, दलित 4 लाख, मुस्लिम 2 लाख और अन्य पिछड़ी जातियों के 2 लाख वोटर हैं. 

ऐसे में जब एसपी और बीएसपी का समझौता हुआ, तो जातीय समीकरण सीधे उनके पक्ष में चले गए . कुर्मी, यादव, मुस्लिम और दलितों ने मिलकर समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी को जिता दिया. 

फूलपुर में भी सिर्फ 37.39 प्रतिशत मतदान हुआ था. इसकी वजह ये थी कि बीजेपी का वोटर वोट देने ही नहीं आया. शहरी इलाकों में तो सिर्फ 19% वोटिंग हुई. और इसका फायदा समाजवादी पार्टी को हुआ. 

और इसकी वजह से फूलपुर में समाजवादी पार्टी का वोट 20% से 47% हो गया. यानी 27% का फायदा, इसमें BSP के हिस्से वाले 17% वोट भी शामिल हैं. 

जबकि बीजेपी 52% से 39% पर सिमट गई यानी 13% का नुकसान हुआ .

ये तो नतीजों की बात हो गई. लेकिन अब ये देखते हैं कि इन नतीजों से कौन सी बड़ी बातें निकल कर सामने आई हैं.

आज एक बार फिर ये बात साबित हो गई है कि बीजेपी के पास प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अलावा कोई दूसरा ऐसा चेहरा नहीं है, जो चुनाव में जीत की गारंटी बन सके.

आमतौर पर प्रधानमंत्री उपचुनावों में प्रचार नहीं करते हैं. इसलिए इन सीटों पर भी उन्होंने प्रचार नहीं किया था. और शायद इसी का ख़ामियाज़ा बीजेपी को भुगतना पड़ा.  
इन चुनावी नतीजों की बड़ी बात ये है कि अगर विपक्ष एकजुट हो जाए, तो बीजेपी का मुकाबला किया जा सकता है और उसे हराया भी जा सकता है. समाजवादी पार्टी और बीएसपी ने, ये करके दिखा दिया है. 

वैसे इन नतीजों को आप तीसरे मोर्चे का Trailer भी कह सकते हैं. लेकिन बड़ी बात ये है कि ये ऐसा तीसरा मोर्चा है, जिसका नेतृत्व कांग्रेस के हाथों में नहीं है. 

एसपी और बीएसपी ने ये बता दिया है कि कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में उनकी शर्तों पर ही चलना होगा. 

क्योंकि दोनों ही जगहों पर कांग्रेस के प्रत्याशियों की ज़मानत ज़ब्त हो गई. फूलपुर से कांग्रेस के उम्मीदवार को सिर्फ 19 हज़ार 334 वोट मिले. और गोरखपुर से कांग्रेस के प्रत्याशी को 18 हज़ार 844 वोट मिले.

वैसे तो इन चुनावों के नतीजों से लोकसभा में बीजेपी की स्थिति में कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ेगा. लेकिन अब बीजेपी के पास बहुमत के आंकड़े से सिर्फ 2 सीटें ही ज्यादा हैं. 

2014 में हुए लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने 282 सीटों पर जीत हासिल की थी. लेकिन अब घटते घटते बीजेपी के 274 सांसद हो गए हैं. और बहुमत के लिए 272 सीटों की ज़रूरत है. 

इसके अलावा अकाली दल, टीडीपी और शिवसेना जैसे सहयोगी अभी बीजेपी के साथ हैं. 

देशव्यापी राजनीति की नज़र से देखा जाए तो ये तीसरे मोर्चे का Trailer है. अगर बीएसपी और समाजवादी पार्टी, चुनावी गठबंधन कर लें, तो बीजेपी से मुकाबला कर सकती हैं. यहां आप कुछ आंकड़ों पर गौर कीजिए .

2017 में हुए उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को 39.67% वोट मिले थे. 

जबकि बीएसपी को 22.23% और समाजवादी पार्टी को 21.82% वोट मिले थे. 

अगर इन दोनों दलों ने एक साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ा होता, तो स्थिति दूसरी होती.

अगर समाजवादी पार्टी और बीएसपी, दोनों के वोट मिला दिए जाएं, तो ये 44.05% वोट होंगे, यानी बीजेपी से 4.38% ज़्यादा वोट. 

इसी तरह से 2014 में जब लोकसभा चुनाव हुए थे, तो उत्तर प्रदेश के 8 करोड़ 5 लाख लोगों ने वोट दिया था, जिनमें से 3 करोड़ 43 लाख वोट बीजेपी को मिले थे, यानी करीब 42.63% 

जबकि BSP को 1 करोड़ 59 लाख लोगों ने वोट दिया था यानी करीब 19.77% 

जबकि 1 करोड़ 80 लाख लोगों ने समाजवादी पार्टी को वोट दिया था, यानी करीब 22.35%

अब अगर इन दोनों पार्टियों के वोटों को मिला दिया जाए, तो 3 करोड़ 39 लाख वोट बनते हैं यानी 42.12%

ये बीजेपी को मिले वोटों से 4 लाख कम है, लेकिन 2014 में समीकरण अलग थे. तब देश में नरेंद्र मोदी की लहर चल रही थी. 

इसीलिए ये नतीजे बीजेपी के लिए खतरे की घंटी हैं. क्योंकि अगर 2019 के लोकसभा चुनावों में बीएसपी और समाजवादी पार्टी ने गठबंधन कर लिया, तो उनके लिए मुश्किल हो जाएगी. सीटों के लिहाज़ से उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य है. यहां लोकसभा की 80 सीटें हैं. और 2014 में बीजेपी को 80 में से 71 सीटें मिली थीं. उत्तर प्रदेश में मिली इस बंपर जीत की वजह से केन्द्र में बीजेपी की सरकार बनी थी. 

लेकिन इस बार गठबंधन के साथ साथ बीजेपी को Anti Incumbency यानी सत्ता विरोधी लहर का सामना भी करना पड़ सकता है. हमने इन आंकड़ों में कांग्रेस का ज़िक्र इसलिए नहीं किया, क्योंकि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को इन दोनों क्षेत्रीय दलों की शर्तों पर ही चलना होगा. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का जनाधार नहीं है. वो सिर्फ रायबरेली और अमेठी तक ही सीमित है.

अब आपको ये बताते हैं कि आज के लोकसभा चुनाव के नतीजों में किसके लिए क्या संदेश छिपा हुआ है? सबसे पहले बात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की . ऐसा बहुत कम होता है कि कोई हार किसी को मज़बूती दे. लेकिन इस केस में ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश के चुनावों की हार ने प्रधानमंत्री को पार्टी के अंदर और मज़बूती दी है. 
अब एक बार फिर ये साबित हो गया है कि बीजेपी, नरेन्द्र मोदी के चेहरे के बिना चुनाव नहीं जीत सकती. 

योगी आदित्यनाथ को भी अगर चुनाव जीतना है.. तो उन्हें मंच पर मोदी की ज़रूरत है. वैसे इन चुनावों में हार के बाद योगी आदित्यनाथ की स्थिति कमज़ोर हुई है. वो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री होते हुए भी अपनी पार्टी को, अपनी ही सीट पर जिता नहीं पाए. ये योगी आदित्यनाथ के लिए एक बड़ा राजनीतिक झटका है. इससे उनका राजनीतिक कद कम होगा और उत्तर प्रदेश में उनके विरोधियो को बल मिलेगा.

अब बात करते हैं अखिलेश यादव की. 2017 के विधानसभा चुनावों में जब अखिलेश यादव की हार हुई थी, तो उन पर और उनकी पार्टी के अस्तित्व पर सवाल उठाए गये थे. लेकिन ये अखिलेश यादव की मेहनत और राजनीतिक सूझबूझ का ही नतीजा है कि वो इन उप चुनावों में मायावती का समर्थन हासिल करने में कामयाब रहे. हालांकि इस समर्थन के बदले में वो बीएसपी के राज्यसभा प्रत्याशी को समर्थन देंगे. लेकिन उन्होंने बीएसपी के साथ भविष्य के गठबंधन का रास्ता खोल दिया है. इसलिए इन चुनावों ने अखिलेश यादव के कद को बढ़ाया है. असल में आज के हीरो अखिलेश यादव हैं.

उत्तर प्रदेश के उपचुनाव में बीजेपी की हार, मायावती के लिए एक संजीवनी की तरह है. क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनावों में उन्हें एक भी सीट नहीं मिली थी और 2017 के विधानसभा चुनावों में भी सिर्फ 19 सीटें ही मिलीं थीं. बहुत से लोग ये मान रहे थे कि मायावती का राजनीतिक Career खत्म हो गया. लेकिन बीजेपी की हार से मायावती ने Comeback किया है. और अपने राजनीतिक अहम को एक तरफ रखना.. उनके लिए बहुत शुभ साबित हुआ है.

लेकिन सवाल ये है कि जब 2019 की बात आएगी और इन दोनों दलों के बीच गठबंधन होगा, तो नेतृत्व कौन करेगा, मायावती या अखिलेश यादव? 

और अंत में राहुल गांधी की बात करते हैं. राहुल गांधी 2019 में प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे हैं. लेकिन आज के चुनावी नतीजों ने राहुल गांधी के इन सपनों पर पानी फेरने का काम किया है. क्योंकि केन्द्र में उत्तर प्रदेश की सीटों के बिना अपने दम पर सरकार बना पाना मुश्किल है. और गठबंधन की स्थिति में उत्तर प्रदेश के किंगमेकर या तो अखिलेश यादव बनेंगे या फिर मायावती.इसका सीधा सा मतलब ये हुआ कि राहुल गांधी को बीजेपी के खिलाफ गठबंधन करने के लिए भी अखिलेश यादव और मायावती की शर्तें मानने के लिए तैयार रहना होगा.

एक दिन पहले ही सोनिया गांधी ने विपक्षी पार्टियों को एक डिनर दिया था. उनकी कोशिश तो ये थी कि वो अपने पुत्र को तीसरे मोर्चे के नेता के रूप में स्थापित कर दें... लेकिन आज के नतीजों ने इस कोशिश पर पानी फेर दिया.

और वोटरों के लिए अच्छी ख़बर ये है कि वोटरों ने एक बार फिर ये बता दिया नेता उन्हें हल्के में नहीं ले सकते. वोटरों से वफादारी की उम्मीद करना एक बहुत बड़ी गलतफहमी है.

हालांकि इसी से जुड़ी हुई एक बुरी ख़बर ये भी है कि हमारे देश में आज भी चुनाव, जातीय समीकरणों के आधार पर ही लड़े जाते हैं. प्रत्याशियों को उनकी जाति के आधार पर चुना जाता है, उनकी काबिलियत के आधार पर नहीं

Trending news