ZEE जानकारी: कासगंज हिंसा ने बहुत से Media Houses, पत्रकारों को बेनकाब कर दिया
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ZEE जानकारी: कासगंज हिंसा ने बहुत से Media Houses, पत्रकारों को बेनकाब कर दिया

संविधान का आर्टिकल 14 देश के हर नागरिक को समानता का अधिकार देता है. लेकिन ये समानता.. हमारे मीडिया की रिपोर्टिंग में दिखाई नहीं देती.

ZEE जानकारी: कासगंज हिंसा ने बहुत से Media Houses, पत्रकारों को बेनकाब कर दिया

उत्तर प्रदेश के कासगंज में हुई सांप्रदायिक हिंसा ने बहुत से Media Houses और पत्रकारों को बेनकाब कर दिया है. अक्सर हम DNA में स्वच्छ मीडिया अभियान की बात करते हैं. और किसी भी देश की मीडिया के स्वच्छ होने का पहला कदम ये है कि उसे सच्चा होना चाहिए.. और उसे कभी भी Selective Reporting नहीं करनी चाहिए. लेकिन दुर्भाग्य ये है कि भारत के कुछ Media Houses.. घटनाओं और मुद्दों की Selective Reporting करने से बाज़ नहीं आते. वो अब भी पीड़ित की जाति और धर्म देखकर ही Reporting करते हैं. और ऐसा ही कासगंज में भी हो रहा है. सबसे पहले आपको संक्षेप में ये बताते हैं कि कासगंज में हुआ क्या था? 

कासगंज में 26 जनवरी को यानी गणतंत्र दिवस के दिन कुछ युवा तिरंगा यात्रा निकाल रहे थे. ये तिरंगा यात्रा वहां हर साल निकलती है. और इसका आयोजन कुछ हिंदूवादी संगठन करते हैं. इस साल 26 जनवरी को जब ये यात्रा मुसलमानों के एक मोहल्ले से होकर गुज़री तो आरोपों के मुताबिक यात्रा निकालने वाले लोगों पर पथराव किया गया. जिसके बाद हिंसा भड़क गई. दोनों पक्षों के बीच पत्थरबाज़ी और फायरिंग भी हुई. और इस हिंसा में चंदन गुप्ता नाम के एक युवक की मौत हो गई. 

इसके बाद पूरे शहर में कई जगहों पर आगज़नी और पथराव की घटनाएं हुईं. दुकानें जलाई गईं, वाहन जलाए गए और हिंसाग्रस्त इलाकों में कर्फ्यू लगाना पड़ा. कासगंज में 3 दिनों तक इसी तरह हिंसा होती रही, लेकिन आज हालात काबू में हैं. पुलिस ने इस घटना में कुल 112 लोगों को अब तक गिरफ्तार किया है, लेकिन इस घटना के असली आरोपी अब भी आज़ाद घूम रहे हैं. 20 साल के चंदन गुप्ता को अपने ही देश में तिरंगा यात्रा निकालना बहुत महंगा पड़ गया. 

इस मामले में तरह तरह के आरोप सामने आ रहे हैं, ये भी कहा जा रहा है कि इस यात्रा का विरोध इसलिए किया गया, क्योंकि इसमें भारत माता की जय और हिंदुस्तान ज़िंदाबाद के नारे लग रहे थे. और कुछ लोग इसके विरोध में पाकिस्तान ज़िंदाबाद के नारे भी लगा रहे थे. हमें ये नहीं पता कि कौन सही बोल रहा है और कौन गलत? इस हिंसा के पीछे की असली वजह तो जांच होने के बाद सामने आएगी. लेकिन एक बात सच है और वो ये है कि इस हिंसा में एक युवक की जान गई है.और इस मौत को मीडिया के बुद्धिजीवी वर्ग ने उतना महत्व नहीं दिया.. जितना दादरी के अखलाक या दलित छात्र रोहित वेमुला की मौत को दिया था.

अब ज़रा अब ये कल्पना कीजिए, अगर इस घटना में चंदन गुप्ता की नहीं, बल्कि किसी और संप्रदाय के युवक की मौत हुई होती, तो क्या स्थिति होती? अगर ऐसा हुआ होता, तो अब तक पूरे देश में असहनशीलता का प्रचार करने वाला गैंग सक्रिय हो जाता. ये कहा जाने लगता कि भारत में लोकतंत्र खतरे में है. बहुत से बुद्धिजीवी अपने Award वापस करना शुरू कर देते, News Channels पर बड़ी बहस शुरू हो जातीं. हो सकता है कि कुछ News Channels... Primetime में अपनी Screen काली कर देते. अब तक कासगंज में बड़े बड़े नेताओं के दौरे शुरू हो गये होते. तमाम पार्टियों के राष्ट्रीय अध्यक्ष, और दूसरे प्रदेशों के मुख्यमंत्री कासगंज पहुंच चुके होते और असहनशीलता वाले डायलॉग मारकर... विरोध की रणनीति तैयार की जाती. 

लेकिन ऐसा कुछ नहीं हो रहा है, क्योंकि इस घटना में किसी ऐसे समुदाय के व्यक्ति की जान नहीं गई, जो इन नेताओं या डिज़ाइनर पत्रकारों के एजेंडे को Suit करता हो. 

हमारे देश के ज्यादातर नेता.. बड़े बड़े प्रदर्शन और राजनीतिक आंदोलन तब करते हैं, जब किसी हिंसा में किसी मुस्लिम या दलित की मौत हो जाए. क्योंकि अल्पसंख्यकों और दलितों को वोटों की गारंटी माना जाता है. लेकिन चंदन गुप्ता ना तो मुस्लिम थे और ना ही दलित. इसलिए उनकी मौत पर राजनीति करने से ऐसे नेताओं का कोई राजनीतिक लाभ नहीं होता. इसीलिए आपको इस वक्त कासगंज में ऐसे नेता नहीं दिख रहे हैं. इस बात को अच्छी तरह समझने के लिए आपको समय के चक्र को पीछे की दिशा में घुमाना होगा. 

आपको याद होगा सितंबर 2015 में उत्तर प्रदेश के दादरी में ही एक व्यक्ति की हत्या हो गई थी. जिसका नाम था अखलाक. अखलाक मुस्लिम समुदाय से थे, इसलिए उनकी हत्या पर बहुत सी पार्टियों ने अपनी अपनी सुविधा के मुताबिक एजेंडा चलाया और राजनीति की. आपको याद होगा उस दौर में असहनशीलता वाली बहस बहुत तेज़ हो गई थी. बहुत से बुद्धिजीवी अपने Award लौटा रहे थे. बहुत से Media Houses ने दादरी से अपने Prime time बुलेटिन का Broadcast शुरू कर दिया था. 

इसी तरह जनवरी 2016 में जब हैदराबाद में एक छात्र रोहित वेमुला ने आत्महत्या की, तो दलित एंगल पर रिपोर्टिंग करने के लिए ये पत्रकार हैदराबाद भी पहुंच गए थे.  

दादरी में तो बड़ी बड़ी पार्टियों के नेताओं के दौरे हो रहे थे. उस वक्त उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी और अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. लेकिन इन तमाम बुद्धिजीवियों, डिज़ाइनर पत्रकारों और नेताओं के लिए इस घटना की ज़िम्मेदार केन्द्र सरकार थी, उत्तर प्रदेश की सरकार नहीं. तब ये लोग इस घटना को Law and Order यानी कानून व्यवस्था की खामी मानने को तैयार नहीं थे. लेकिन अब कासगंज में चंदन गुप्ता की मौत को यही लोग कानून व्यवस्था की गलती बता रहे हैं. यानी पहले निशाना उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के बजाए.. केंद्र सरकार पर था.. लेकिन अब निशाना मुख्यमंत्री य़ोगी आदित्यनाथ पर है. 

ये दोहरे मापदंड है, जिन्हें आपको पहचानने की ज़रूरत है. अब आप दादरी और कासगंज की घटना का एक तुलनात्मक विश्लेषण देखिए और फिर ये समझिए कि कैसे हमारे देश के नेताओं, बुद्धिजीवियों और डिज़ाइनर पत्रकारों को किसी खास संप्रदाय के लोगों की मौत ही Suit करती है. 

दादरी और कासगंज दोनों ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश का हिस्सा हैं. दादरी में अखलाक की मौत हुई थी, जबकि कासगंज में चंदन की मौत हुई है. अखलाक की हत्या के आरोपी हिंदू थे, जबकि चंदन की हत्या का आरोप कुछ मुस्लिम युवकों पर लगा है. दादरी की हिंसा को देश में असनशीलता बताया गया था, जबकि कासगंज की हिंसा को खराब कानून व्यवस्था बताया जा रहा है. 

दादरी की घटना की कवरेज के लिए कई हफ्तों तक देश का राष्ट्रीय मीडिया घटनास्थल पर ही डटा था, जबकि कासगंज की घटना को राष्ट्रीय मीडिया 3 दिनों में ही भूल गया है. दादरी की घटना पर.. देश के बड़े बड़े शहरों के प्रेस Clubs में 'बढ़ती असहनशीलता' के विषय पर सेमिनार और गोष्ठियां आयोजित की जा रही थीं, जबकि कासगंज की घटना के बाद देश में ऐसा कुछ नहीं हो रहा है. 

दादरी की घटना के बाद बड़े बड़े संपादक देशभर के अखबारों में संपादकीय लिख रहे थे, जिसमें ये बताया जा रहा था कि देश का लोकतंत्र खतरे में है. लेकिन कासगंज की घटना के बाद कोई संपादक अखबारों में ऐसा संपादकीय नहीं लिख रहा है. दादरी की घटना के बाद वहां बड़े बड़े नेता पहुंच गए थे. ये नेता असहनशीलता के मुद्दे पर मीडिया के कैमरों के सामने एक तरह से रैलियां कर रहे थे, लेकिन अब कासगंज में चंदन गुप्ता के घर जाने की फुरसत किसी के पास नहीं है. 

दादरी की घटना के बाद बड़े बड़े पत्रकार, बुद्धिजीवी और नेता Tweet कर रहे थे . Hashtag InternationalShame Trend कर रहा था. लेकिन कासगंज की घटना के बाद इन नेताओं, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों की Twitter Timeline पर ऐसे Tweet.. देखने को नहीं मिल रहे हैं. कुछ पत्रकारों ने इस मामले में Tweet किया है.. कि ये कहने की कोशिश की है.. कि पूरी गलती तिरंगा यात्रा निकालने वालों की थी.

जून 2017 में एक लोकल ट्रेन में सीट को लेकर हुए विवाद में जुनैद नाम के एक युवक की हत्या हो गई थी. ये घटना दिल्ली से मथुरा जाने वाली एक लोकल ट्रेन में हुई थी. जिसमें जुनैद अपने दोस्तों के साथ दिल्ली से बल्लभगढ़ जा रहा था. उस वक्त सीट को लेकर हुए इस विवाद को मीडिया के एक हिस्से ने Mob Lynching की घटना बताकर इसकी रिपोर्टिंग की थी. उस वक्त भी हमारे देश में एजेंडा चलाने वाली फैक्ट्रियां बहुत तेज़ी से Selective विरोध का उत्पादन कर रही थीं. उस वक्त भी देश में ऐसा माहौल तैयार किया जा रहा था, जैसे असहनशीलता बढ़ गई हो. तब बड़े बड़े सेमीनार हो रहे थे और Not in My Name जैसे Hashtag Twitter पर Trend करवाए जा रहे थे. 

संविधान का आर्टिकल 14 देश के हर नागरिक को समानता का अधिकार देता है. लेकिन ये समानता.. हमारे मीडिया की रिपोर्टिंग में दिखाई नहीं देती. सवाल ये है कि क्या चंदन गुप्ता को पूरे मीडिया और नेताओं ने इसलिए नज़रअंदाज़ कर दिया.. क्योंकि उसका Surname उनके एजेंडे को सूट नहीं करता था? 

आपने भी ये बात नोट की होगी कि हमारे देश में जब भी कोई हत्या होती है, तो उसमें अपने हिसाब से Angle तलाश लिए जाते हैं. सबसे पहले मरने वाले की धर्म और जाति Check की जाती है. अगर पीड़ित मुस्लिम या दलित निकल आए तो हमारे देश के मीडिया का एक वर्ग और डिज़ाइनर प्रदर्शनकारी उसे हाथों हाथ ले लेते हैं. फिर Social Media में घटनाओं की कड़ी निंदा शुरू हो जाती है. और देश के अलग अलग शहरों में Candle Light March का आयोजन होने लगता है. दुख की बात ये है कि ऐसे डिज़ाइनर प्रदर्शन करने वाले लोग और पत्रकार अक्सर भीड़तंत्र के अपराधों को धर्म के चश्मे से देखते हैं. आप ये भी कह सकते हैं कि भीड़ द्वारा की जाने वाली हत्याओं के मामले में भी आरक्षण हो गया है. 

जैसे स्वादिष्ट खाना बनाने के लिए अच्छे मसालों की ज़रूरत होती है, आजकल मीडिया के एक वर्ग को अच्छी ख़बर बनाने के लिए कुछ मसालों की ज़रूरत पड़ती है. और इन मसालों का नाम है - दलित, मुस्लिम, अल्पसंख्यक, बीफ, गो-रक्षक. भीड़तंत्र देश के लोकतंत्र के लिए खतरनाक है. जब भी किसी देश में भीड़तंत्र से जुड़ी घटनाएं दिखती हैं, तो उस देश की आतंरिक सुरक्षा भी खतरे में पड़ती है. इसलिए भीड़तंत्र द्वारा की जाने वाली हत्याओं पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए. लेकिन भीड़तंत्र का विरोध करते हुए या इस पर रिपोर्टिंग करते हुए कभी भी Selective नहीं होना चाहिए.

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