ZEE जानकारी: महात्मा गांधी को Nobel Prize नहीं मिलने के पीछे का सच
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ZEE जानकारी: महात्मा गांधी को Nobel Prize नहीं मिलने के पीछे का सच

महात्मा गांधी को 5 बार.. यानी वर्ष 1937, 1938, 1939, 1947 और 1948 में नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया.

ZEE जानकारी: महात्मा गांधी को Nobel Prize नहीं मिलने के पीछे का सच

आज महात्मा गांधी की 70वीं पुण्यतिथि है. आज ही के दिन यानी 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या हो गई थी. 30 जनवरी और 2 अक्टूबर... हर वर्ष ये दो दिन ऐसे होते हैं..  जब भारत में महात्मा गांधी को याद किया जाता है. देश भर में बहुत सारे सेमीनार, सभाएं और गोष्ठियां आयोजित की जाती हैं. बड़े-बड़े भाषण दिए जाते हैं. बहुत सारे नेता और बुद्धिजीवी अपने भाषणों और वक्तव्यों की तैयारियां करने के लिए गांधी जी के उपदेशों के Notes बनाते हैं. लेकिन कार्यक्रम खत्म होने के बाद महात्मा गांधी के विचारों किसी Freezer में रख दिया जाता है.. जिसे हिंदी में ठंडा बस्ता कहते हैं.

इतनी विविध संस्कृति और भाषा वाले हमारे देश भारत को एक सूत्र में बांध कर रखने में महात्मा गांधी के महान व्यक्तित्व की बहुत बड़ी भूमिका रही है. लेकिन महात्मा गांधी के उन आदर्शों को हमारा ही समाज और सिस्टम भूल चुका है. महात्मा गांधी की तस्वीरें सरकारी दफ्तरों में लगी होती हैं और इन्हीं सरकारी दफ्तरों में महात्मा गांधी की फोटो के सामने.. अधिकारी घूस लेते हैं. जनता का खून चूसकर अपनी जेबें भरते हैं. झूठ बोलते हैं. गलत रिपोर्ट तैयार करते हैं और आम लोगों को बेवकूफ़ बनाते हैं. महात्मा गांधी की प्रतिमाएं.. देश के ना जाने कितने चौराहों पर स्थापित होंगी. लेकिन उनकी प्रतिमा को साक्षी मानकर सड़कों और चौराहों पर हर तरह के बुरे काम किए जाते हैं. उन्होंने कहा था कि बुरा मत देखो.. बुरा मत बोलो और बुरा मत सुनो.. लेकिन विडंबना ये है कि हमारे देश में बुरी चीज़ें देखी भी जा रही हैं.. सुनी भी जा रही हैं और बोली भी जा रही हैं. अभिव्यक्ति की आज़ादी तो सब मांगते हैं लेकिन अभिव्यक्ति की ज़िम्मेदारी कोई नहीं निभाता.  

हज़ारों वर्षों की मानव सभ्यता में महात्मा गांधी एक ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने मानव जाति को अपना विरोध जताने का एक नया तरीका सिखाया. उन्होंने ये साबित किया कि बिना खून बहाए, और किसी को पीड़ा पहुंचाए बिना भी... विरोध किया जा सकता है. शांति के साथ भी अपनी बात कही जा सकती है. महात्मा गांधी ने असहयोग और अहिंसा की नीति को आगे बढ़ाया. बिना हिंसा किए ही महात्मा गांधी ने अंग्रेज़ों को बहुत परेशान कर दिया था. उनकी अहिंसा और असहयोग की नीति से दुनिया के सभी मानवतावादी लोगों ने प्रेरणा ली. अमेरिका में अश्वेतों की लड़ाई लड़ने वाले मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने महात्मा गांधी को अपना आदर्श माना. दक्षिण अफ्रीका के सबसे बड़े नेता Nelson Mandela ने महात्मा गांधी के सिद्धांतों को अपनाया. पूरी दुनिया में महात्मा गांधी अपनी मृत्यु के 70 वर्षों के बाद भी प्रासंगिक हैं. अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा भी महात्मा गांधी से प्रेरणा लेते हैं. आज हमारे देश में शायद ही ऐसा कोई नेता होगा जिसका भाषण... बिना महात्मा गांधी के नाम का ज़िक्र किए पूरा होता हो. हमारे देश में गांधी Surname के दम पर एक परिवार ने कई पीढ़ियों तक देश की राजनीतिक व्यवस्था पर राज किया है. 
आज हम गांधी जी पर रिसर्च कर रहे थे.. और इस दौरान हमें कुछ चुभने वाली बातें पता चलीं.. 

महात्मा गांधी की इतनी महिमा और प्रभाव होने के बाद भी उन्हें कभी Nobel पुरस्कार से सम्मानित नहीं किया गया था. हालांकि आज महात्मा गांधी का नाम और कद इतना बड़ा है.. कि Nobel पुरस्कार उनके सामने छोटा पड़ जाता है. लेकिन हम ये जानना चाहते थे कि ऐसा क्यों हुआ? क्या उस दौर में Nobel पुरस्कारों के पीछे कोई गुप्त एजेंडा होता था? अगर पूरी दुनिया महात्मा गांधी के योगदान की इज़्ज़त करती है.. तो फिर Nobel Prize कमिटी को ये सब दिखाई क्यों नहीं दिया?

महात्मा गांधी को 20वीं शताब्दी में शांति के लिए संघर्ष करने वाला सबसे महान नेता कहा जाता है. लेकिन फिर भी उन्हें कभी भी नोबेल शांति पुरस्कार नहीं मिला. बहुत से लोग ये बात सुनकर हैरान हो रहे होंगे और सोच रहे होंगे कि ऐसा कैसे हो सकता है? क्या नोबेल पुरस्कार देने वाली कमिटी की आंखों पर पट्टी बंधी हुई थी?

आज नोबेल पुरस्कार देने वाली संस्था को इस बात का अफसोस है कि वो महात्मा गांधी को नोबेल पुरस्कार नहीं दे सकी. इसकी वजहें बहुत दिलचस्प हैं. आम तौर पर लोग ये सोचते हैं कि महात्मा गांधी को नोबेल पुरस्कार देकर Norway की Nobel Prize Committee.. ब्रिटेन को नाराज़ नहीं करना चाहती थी. उस दौर में भारत पर अंग्रेज़ों का शासन था.. और महात्मा गांधी अंग्रेज़ों के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे. हालांकि ये इसकी एकमात्र वजह नहीं है. इसके पीछे कुछ इतिहासकारों ((नोबेल कमिटी से जुड़े लोगों)) का पूर्वाग्रह भी है.

महात्मा गांधी को 5 बार.. यानी वर्ष 1937, 1938, 1939, 1947 और 1948 में नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया. पहली बार Norway के एक सांसद ने महात्मा गांधी का नाम नोबेल पुरस्कार के लिए प्रस्तावित किया था.  लेकिन नोबेल कमेटी ने उन्हें नज़रअंदाज़ कर दिया. ऐसा क्यों हुआ इसे लेकर हमने Research किया.  नोबेल पुरस्कार देने वाली संस्था की Website पर ही हमें इस संबंध में एक लेख मिला. इस लेख में नोबेल कमिटी के एक सलाहकार प्रोफेसर Jacob Worm मुलर ((Jacob Worm-Müller)) की एक टिप्पणी का ज़िक्र किया गया है.

नोबेल कमेटी के सलाहकार प्रोफेसर मुलर ने महात्मा गांधी की तारीफ तो की थी लेकिन साथ ही ये भी कह दिया था कि वो उनके व्यक्तित्व पर भरोसा नहीं करते हैं. प्रोफेसर जैकब वॉर्म मुलर ने लिखा है कि 'इसमें कोई शक नहीं है कि महात्मा गांधी एक अच्छे, नेक और तपस्वी व्यक्ति हैं. वो एक प्रसिद्ध व्यक्ति हैं और सम्मान के योग्य हैं, भारत में बहुत बड़ी संख्या में लोग उन्हें प्यार करते हैं लेकिन वो अपनी नीतियों में बहुत तेज़ी से बदलाव करते हैं और बहुत कम ऐसा होता है जब वो इन बदलावों की वजह के बारे में अपने समर्थकों को कोई संतोषजनक जवाब देकर समझा पाते हैं. वो एक स्वतंत्रता सेनानी, आदर्शवादी और राष्ट्रवादी व्यक्ति हैं. अक्सर वो एक संत लगते हैं लेकिन कई बार अचानक वो एक सामान्य राजनेता की तरह नज़र आते हैं.' 

यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि नोबेल कमेटी के सलाहकार प्रोफेसर जैकब मुलर ने ये विचार वर्ष 1937 में नोबेल कमेटी के सामने रखे थे. प्रोफेसर मुलर की तरह उस वक्त पूरी दुनिया में ऐसे बहुत सारे लोग थे जो महात्मा गांधी के व्यक्तित्व को नहीं समझ सकते थे. क्योंकि एक तरफ महात्मा गांधी संत का जीवन बिताते थे. वो सत्य, अहिंसा और नैतिकता की बात करते थे. लेकिन दूसरी तरफ वो एक वकील भी रह चुके थे. उन्हें सरकार की कार्यप्रणाली का ज्ञान था. वो ब्रिटिश सरकार के फैसलों का, एक राजनेता की तरह बहुत कुशल तरीके से विरोध करते थे. इसीलिए बहुत सारे लोग भ्रम में पड़ जाते थे कि आखिर महात्मा गांधी एक संत थे या राजनेता.

प्रोफेसर मुलर ने ये भी लिखा था कि महात्मा गांधी पूरी तरह शांतिवादी नहीं थे. उन्हें इन बातों की कभी परवाह नहीं रही कि अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ उनका अहिंसक प्रदर्शन कभी भी हिंसक रूप ले सकता है. 
जैकब मुलर ने आगे लिखा है कि 'गांधी जी की राष्ट्रीयता भारतीय लोगों तक ही सीमित रही. यहां तक कि दक्षिण अफ़्रीका में उनका आंदोलन भी भारतीय लोगों के हितों तक सीमित रहा. उन्होंने अश्वेतों के लिए कुछ नहीं किया, जो भारतीयों से भी बदतर ज़िंदगी गुज़ार रहे थे.' 

Nobel Committee के सलाहकार प्रोफेसर जैकब वॉर्म मुलर के इन विचारों को दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा क्योंकि जब मार्टिन लूथर किंग जूनियर और Nelson Mandela जैसे लोगों को नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया था तो उन्होंने स्वीकार किया था कि उन्हें महात्मा गांधी से ही प्रेरणा मिली. ये हैरान करने वाली बात है कि महात्मा गांधी से प्रेरणा लेकर जिन लोगों ने काम किया उन्हें तो नोबेल पुरस्कार मिल गया.. लेकिन महात्मा गांधी को ये पुरस्कार नहीं मिला. हालांकि हम एक बार फिर ये कहना चाहते हैं कि अगर महात्मा गांधी को नोबेल पुरस्कार मिला होता तो इससे नोबल पुरस्कार की ही प्रतिष्ठा बढ़ती, महात्मा गांधी को कभी किसी पुरस्कार की इच्छा नहीं थी. 

वर्ष 1937 के बाद वर्ष 1938 और 1939 में भी उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया, लेकिन उनका नाम short list नहीं किया गया. वर्ष 1947 में इस बात की पूरी संभावना थी कि महात्मा गांधी को शांति का नोबेल पुरस्कार दिया जाएगा लेकिन एक बार फिर उन्हें नोबेल पुरस्कार नहीं मिला. 

ये सब इसलिए हो रहा था क्योंकि उस दौर में इसके पीछे कई ताकतें लगी हुई थीं. और इसमें कुछ अंतर्राष्ट्रीय मीडिया Houses की भूमिका थी. यहां आपको ये भी समझना होगा कि नोबेल कमेटी के सलाहकार और इतिहासकार Jens अरुप सीप ((Jens Arup Seip)) ने महात्मा गांधी पर दी गई अपनी रिपोर्ट में क्या लिखा था. उन्होंने लिखा कि वर्ष 1937 से 1947 तक की घटनाएं महात्मा गांधी और उनके आंदोलन के लिए बहुत बड़ी विजय भी है और बहुत बड़ी पराजय भी. भारत को आज़ादी तो मिली लेकिन भारत का बंटवारा भी हो गया. 

Jens अरुप की रिपोर्ट मुख्य तौर पर तीन घटनाओं पर केंद्रित थी.
पहली घटना थी... भारत के लोगों और ब्रिटिश सरकार का संघर्ष.
दूसरी घटना थी..... दूसरे विश्व युद्ध में भारत के लोगों के शामिल होने का सवाल.
और तीसरी घटना थी... हिंदुओं और मुसमलानों के बीच हुई हिंसा.

इतिहासकार Jens अरुप ने लिखा कि इन सभी मामलों में महात्मा गांधी अहिंसा के अपने सिद्धांत पर लगातार कायम रहे. वर्ष 1937 में नोबेल कमेटी के सलाहकार प्रोफेसर जैकब मुलर ने महात्मा गांधी के बारे में जो रिपोर्ट दी थी उसके मुकाबले वर्ष 1947 में इतिहासकार Jens अरुप सीप की रिपोर्ट महात्मा गांधी के पक्ष में थी, लेकिन इसके बावजूद महात्मा गांधी को नोबेल पुरस्कार नहीं मिला. इसकी वजह को ढूंढने के लिए हमने कई किताबों का अध्ययन किया. जिनसे हमें पता चला कि वर्ष 1947 में नोबेल शांति पुरस्कार के लिए चुने गए 6 नामों में गांधी जी का नाम शामिल था. लेकिन गांधी जी के नाम को लेकर पुरस्कार समिति के सदस्यों में गंभीर मतभेद थे. इसी बीच गांधी जी ने एक प्रार्थना सभा में सांप्रदायिक तनाव की आशंकाओं को देखते हुए कहा था कि 'अगर ऐसा ही अनाचार चलता रहा तो भारत और पाकिस्तान में युद्ध छिड़ जाएगा ' इस बयान को Britain के अखबार 'The Times' ने नमक-मिर्च लगाकर प्रकाशित किया. इस समाचार ने आग में घी डालने का काम किया और 5 में से तीन सदस्यों ने महात्मा गांधी के खिलाफ मतदान कर दिया. जिसकी वजह से उन्हें नोबेल पुरस्कार नहीं मिला.

आप समझ सकते हैं Media की एक गलत रिपोर्टिंग की वजह से इतिहास में किस तरह की गलतियां हो सकती हैं. महात्मा गांधी ने भारत और पाकिस्तान के बीच किसी संभावित युद्ध को रोकने को लेकर बयान दिया था लेकिन इस बयान को The Times ने बढ़ा चढ़ाकर पेश किया. The Times की नमक-मिर्च वाली पत्रकारिता ने नोबेल पुरस्कार समिति के सदस्यों के दिमाग पर ऐसा असर डाला कि वो सही फैसला नहीं ले सके. यानी खबर को बेचने के लिए नमक-मिर्च लगाने वाली बीमारी पत्रकारिता में काफी पुरानी है. 

वर्ष 1948 में भी नोबेल पुरस्कार के लिए महात्मा गांधी का नाम प्रस्तावित किया गया. इस बार उन्हें नोबेल पुरस्कार मिलने की प्रबल संभावना भी थी. लेकिन नामांकन की आख़िरी तारीख़ के सिर्फ दो दिन पहले ही गांधी जी की हत्या हो गई. उस समय तक किसी को भी मरणोपरांत नोबेल पुरस्कार नहीं दिया गया था फिर भी ये गुंजाइश थी कि विशेष परिस्थितियों में ये पुरस्कार मरणोपरांत दिया जा सकता है. लेकिन कमेटी के सामने तब ये समस्या थी कि पुरस्कार की रक़म किसे अदा की जाए, क्योंकि गांधी जी का कोई संगठन या ट्रस्ट नहीं था. ऐसे में ये पुरस्कार कौन लेता? आखिर में हालत ये हो गई कि वर्ष 1948 में नोबेल शांति पुरस्कार.. किसी को भी नहीं दिया गया. 

आज महात्मा गांधी की 70वीं पुण्यतिथि पर Nobel Prize Commitee ने एक Tweet करके महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि दी है. Nobel Prize Commitee ने लिखा है कि महात्मा गांधी को उनकी हत्या के कुछ दिन पहले Nobel Peace Prize के लिए नामांकित किया गया था. उस वर्ष Committee ने ये कहा था कि कोई भी जीवित व्यक्ति इस पुरस्कार के योग्य नहीं था' (That year, the Nobel Committee decided to make no award on the grounds that "there was no suitable living candidate".) इन शब्दों से ये संकेत मिलते हैं कि उस साल अगर महात्मा गांधी जीवित होते तो नोबेल पुरस्कार उन्हें ही मिलता. वर्ष 1989 में जब दलाई लामा को नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया था तब नोबेल कमेटी ने सार्वजनिक तौर पर ये स्वीकार किया था कि महात्मा गांधी को नोबेल पुरस्कार ना देना एक गलती थी.

महात्मा गांधी को नोबेल शांति पुरस्कार ना दिए जाने के अपने फैसले पर नोबेल कमेटी आज भी आंसू बहाती है. लेकिन सवाल ये भी उठता है कि कहीं ये सिर्फ एक दिखावा तो नहीं है. सच्चाई ये है कि महात्मा गांधी की प्रशंसा करके नोबेल कमिटी सिर्फ अपनी गलतियों पर पर्दा डालने की ही कोशिश कर रही है. वर्ष 1948 में आखिरी बार महात्मा गांधी को नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था. हमने ये जानने के लिए Research किया कि इससे पहले किन लोगों को नोबेल शांति पुरस्कार मिला. हमें इस List में एक बहुत चौंकाने वाला नाम मिला. वर्ष 1906 में अमेरिका के राष्ट्रपति Theo-dore Roosevelt  को भी शांति का नोबेल पुरस्कार दिया गया था. 

ये बहुत हैरान करने वाली बात थी. नोबेल पुरस्कार देने वाली कमेटी ने उनके विषय में लिखा कि 1904 से 1905 के बीच हुए रूस और जापान के युद्ध में शांति का प्रयास करने के लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार दिया गया. दुनिया की कई प्रतिष्ठित Magazines और अखबारों में नोबेल कमेटी के इस फैसले की आलोचना की गई थी. क्योंकि अमेरिका के राष्ट्रपति Theo-dore Roosevelt अमेरिका की सेना में कर्नल के पद पर तैनात थे. वर्ष 1898 में Spain और America के बीच युद्ध हुआ. Theo-dore Roosevelt ने इस युद्ध में हिस्सा भी लिया था.

लेकिन नोबेल कमेटी ने Theodore Roosevelt के Military career को पूरी तरह भुला दिया और सिर्फ इस बात पर ही पूरा ध्यान दिया कि रूस और जापान के बीच हुए युद्ध को रोकने में उन्होंने एक मध्यस्थ की भूमिका निभाई थी. यानी नोबेल कमेटी के सलाहकार महात्मा गांधी की अहिंसा की नीति में भी हिंसा ढूंढ रहे थे. महात्मा गांधी को शांति का नोबेल पुरस्कार ना मिले.. इसके लिए कई तरह के तर्क गढ़ रहे थे. लेकिन अमेरिका के राष्ट्रपति को प्रसन्न करने के लिए सारे मापदंड और नीतियों को एक तरफ रख दिया गया. 

कुल मिलाकर आज महात्मा गांधी को अपने प्रभाव के लिए किसी नोबेल पुरस्कार की ज़रूरत नहीं है, लेकिन नोबेल पुरस्कार को अपना इतिहास गौरवशाली बनाने के लिए महात्मा गांधी के नाम की ज़रूरत है. नोबेल Prize कमिटी अगर चाहती तो ये काम बहुत आसानी से कर सकती थी. महात्मा गांधी जैसी शख्सियत को सम्मानित करने के लिए नये नियम बनाए जा सकते हैं. आज उनकी मौत के 70 साल बाद भी नोबेल कमिटी के पास ये मौका है कि वो अपनी गलती सुधार ले. 

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