Zee जानकारी : किसी हत्या पर चिंतित होने के लिए क्या उसमें सांप्रदायिक रंग होना ज़रूरी है?
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Zee जानकारी : किसी हत्या पर चिंतित होने के लिए क्या उसमें सांप्रदायिक रंग होना ज़रूरी है?

आपने अक्सर सुना होगा कि भारत एक शांति प्रिय देश है, भारत के राष्ट्रीय ध्वज में सफेद रंग को भी शांति के प्रतीक के तौर पर ही शामिल किया गया है, भारत की परंपराओं, संस्कृति और धार्मिक ग्रंथों में अहिंसा को बहुत ऊंची जगह दी गई है। हमारे धर्मग्रंथ गुस्से पर काबू रखने की सीखों से भरे पड़े हैं लेकिन अफसोस इस बात का है कि भारत में लोग जैसे ही घर से बाहर निकलते हैं तो इनका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच जाता है। कई बार इसका खामियाजा निर्दोष लोगों को अपनी जान देकर चुकाना पड़ता है। इसलिए जिस खबर का डीएनए टेस्ट हम करेंगे वो भारत की सफेद रंग वाली शांति पर एक लाल, खूनी धब्बे की तरह है और सफेद रंग पर ऐसे धब्बे देखकर अक्सर देश सहम जाता है।

 Zee जानकारी : किसी हत्या पर चिंतित होने के लिए क्या उसमें सांप्रदायिक रंग होना ज़रूरी है?

नई दिल्ली : आपने अक्सर सुना होगा कि भारत एक शांति प्रिय देश है, भारत के राष्ट्रीय ध्वज में सफेद रंग को भी शांति के प्रतीक के तौर पर ही शामिल किया गया है, भारत की परंपराओं, संस्कृति और धार्मिक ग्रंथों में अहिंसा को बहुत ऊंची जगह दी गई है। हमारे धर्मग्रंथ गुस्से पर काबू रखने की सीखों से भरे पड़े हैं लेकिन अफसोस इस बात का है कि भारत में लोग जैसे ही घर से बाहर निकलते हैं तो इनका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच जाता है। कई बार इसका खामियाजा निर्दोष लोगों को अपनी जान देकर चुकाना पड़ता है। इसलिए जिस खबर का डीएनए टेस्ट हम करेंगे वो भारत की सफेद रंग वाली शांति पर एक लाल, खूनी धब्बे की तरह है और सफेद रंग पर ऐसे धब्बे देखकर अक्सर देश सहम जाता है।

देश की राजधानी दिल्ली में गुस्से से उबल रही भीड़ ने एक डॉक्टर की पीट-पीट कर हत्या कर दी। हत्या की वजह इतनी छोटी है कि सुनकर आपको यकीन नहीं होगा कि इस पर भी कोई किसी की हत्या कर सकता है। इस घटना की एफआईआर के मुताबिक दिल्ली के विकासपुरी इलाके में डॉक्टर पंकज नारंग अपने बेटे के साथ घर के अंदर क्रिकेट खेल रहे थे। इस दौरान बॉल बाहर चली गई और वो अपने बेटे के साथ बॉल ढूंढने बाहर गए उसी समय वहां टू ह्वीलर पर सवार 2 लोग तेज़ी से गुज़रे और दुर्घटना होते-होते बच गई। इस पर डॉक्टर ने उन लोगों को सावधानी से ड्राइविंग करने की सलाह दी। इसे लेकर कहासुनी हुई और फिर देर रात को 10 से 15 लोगों की भीड़ ने डॉक्टर पंकज नारंग के घर पर हमला कर दिया और उन्हें पीट-पीट कर मार डाला। 

डॉक्टर पंकज नारंग के बेटे की उम्र सिर्फ 7 साल है। जरा सोचिए कि उस बच्चे पर क्या बीत रही होगी जिसके पिता को उसकी आंखों के सामने मार डाला गया हो। ये ऐसी घटना है जिस पर कोई बात नहीं करना चाहता, जिसे लेकर कोई चिंतित नहीं है। इसे लेकर किसी की सहनशीलता नहीं टूट रही। शायद इसकी वजह ये है कि इस हत्या में अब तक सांप्रदायिक रंग नहीं आया है। सवाल ये है कि क्या किसी हत्या पर चिंतित होने के लिए उसमें सांप्रदायिक रंग होना ज़रूरी है? क्या इस बात पर किसी को चिंतित नहीं होना चाहिए कि देश की राजधानी दिल्ली में 10 से 15 लोगों ने एक डॉक्टर के घर में घुसकर, उसके परिवार के सामने उसे पीट-पीटकर मार डाला। 

भीड़ का ये गुस्सा और ये हिंसा इस बात की प्रतीक है कि भारत में लोग खुशी से ज्यादा गुस्से में रहने के आदी हो गए हैं, गुस्सा ना सिर्फ दूसरों को चोट पहुंचाता है बल्कि क्रोधित लोग, देश को उदास और निराश बनाने का काम भी करते हैं। कुछ दिनों पहले डीएनए में हमने आपको दिखाया था कि कैसे भारत क्रोधित और उदास लोगों का देश बन गया है। वर्ल्ड हैपीनेस इंडेक्स 2016 के मुताबिक इस बार जब दुनिया के सबसे खुश देशों की लिस्ट बनाई गई तो उसमें भारत को 118वां स्थान मिला। हमारे पड़ोसी चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका जैसे देश भी भारत के मुकाबले ज़्यादा खुश थे और विकासपुरी की घटना को देखकर भी यही बात साबित होती है कि हमारे देश में, खासतौर पर महानगरों में लोग हमेशा गुस्से में रहते हैं और जरा सी कहासुनी भी उन्हें इतना क्रोधित कर देती है कि वो मरने -मारने पर उतारू हो जाते हैं।

डॉक्टर पंकज नारंग की हत्या के आरोप में दिल्ली पुलिस ने 5 लोगों को गिरफ्तार करने के साथ-साथ 4 नाबालिगों को भी पकड़ा है यानी गुस्से के बीज बचपन में ही बोए जा रहे हैं। दुख की बात ये है कि भारत में लोगों का आत्मसम्मान जरा-जरा सी बात पर छलनी हो जाता है, ऐसा लगता है कि हमारे देश के लोग धैर्य, संयम, आत्मनियंत्रण, दूसरों का सम्मान और दूसरों की तकलीफ की परवाह करना, धीरे-धीरे भूलते जा रहे हैं।

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंस के मुताबिक 80 फीसदी भारतीय युवा बहुत ज्यादा गुस्सैल हैं, इस स्टडी के मुताबिक 15 से 26 वर्ष के हर 10 युवाओं में से 8 हमेशा क्रोधित रहते हैं। डॉक्टर पंकज नारंग एक ज़िम्मेदार नागरिक थे वो अपने सभी टैक्स समय पर भरते थे। उन्होंने देश के विकास और यहां की व्यवस्थाओं के लिए टैक्स के जरिए अपना योगदान दिया था लेकिन इसके बावजूद उन्हें अपने जीवन की गारंटी नहीं मिली और हिंसक भीड़ ने उनकी सामूहिक हत्या कर दी। 

आपको ये जानकर हैरानी हो सकती है दुनिया भर में जितने लोग आतंकवादी घटनाओं में मारे जाते हैं उससे कहीं ज्यादा आपसी रंजिश या दूसरे कारणों से होने वाली हिंसा का शिकार होते हैं। ग्लोबल टेररिज्म इंडेक्स 2015 के मुताबिक वर्ष 2014 में दुनिया भर में आतंकवादी घटनाओं में 32 हज़ार 685 लोग मारे गए जबकि आपसी रंजिश और भीड़ द्वारा की गई हिंसा की वजह 4 लाख 37 हज़ार लोगों की मौत हुई। इसका रेशियो ये है कि जब आतंकवाद से एक आदमी मारा जाता है तो आपसी रंजिश में 13 लोग मारे जाते हैं, यानी आपसी रंजिश और भीड़ का हिंसक हो जाना आतंकवाद से 13 गुना ज्यादा खतरनाक है। 

दुनिया भर में आपसी हिंसा रोकने के लिए औसतन प्रति व्यक्ति 18 हज़ार 787 रुपये सरकारों को खर्च करने पड़ते हैं। जबकि आतंकवाद को रोकने के लिए सरकारें प्रति व्यक्ति औसतन 7 हज़ार 688 रुपये ही खर्च करती हैं। ये हमारे देश का दुर्भाग्य है कि यहां पर नेताओं की नेतागीरी और मीडिया की रिपोर्टिंग एक अघोषित एजेंडे से चलती है, जिसमें हर घटना को एजेंडे की सुविधा के हिसाब से देखा जाता है। मीडिया के एक हिस्से का हाल ये है कि जब कोई ऐसी घटना होती है तो ये महान पत्रकार और संपादक पीड़ित का धर्म और जाति देखते हैं। अगर जाति और धर्म किसी विशेष समुदाय से जुड़ा होता है तो वो इस घटना पर अपनी संपादकीय नीतियों के घोड़े खोल देते हैं। 

लेकिन अगर पीड़ित की जाति और धर्म इनके एजेंडे को सूट नहीं करता, तो वो ऐसी खबरों को अपराध या फिर सामान्य खबरों की श्रेणी में डालकर छुट्टी पा लेते हैं, और अपनी महान सेक्यूलर पत्रकारिता की नींद वाली झपकियां लेने लगते हैं। ज़ी न्यूज हमेशा से ही इस तरह की पत्रकारिता के खिलाफ रहा है जिसमें पीड़ित की जाति और धर्म दिखाकर सुविधा के हिसाब से खबरें दिखाई जाती हैं। हमें लगता है कि हर घटना में जाति और धर्म को लेकर आ जाना देश के लिए बहुत नुकसानदायक है। ये भारत का दुर्भाग्य है कि मीडिया का एक हिस्सा और देश के कुछ नेता घटनाओं में जाति और धर्म की मिलावट करके देश का नुकसान करते रहे हैं। देश को इस तरह के तथाकथित महान पत्रकारों, संपादकों, लेखकों, प्रोफेसर्स, बुद्धिजीवियों और नेताओं से बचना होगा। 

आजकल महान पत्रकार, संपादक, प्रोफेसर, लेखक और बुद्धिजीवी उन नेताओं के एजेंडे को आगे बढ़ाते हैं जिन नेताओं को हर घटना में जाति और धर्म के हिसाब से वोटों की खुशबू आती है। दिल्ली के विकासपुरी में जो घटना हुई है उससे ऐसा लगता है कि अपराधियों को कानून का डर नहीं है और ऐसा इसलिए होता है क्योंकि इन्हें राजनैतिक सरंक्षण मिलता है। ये बहुत ही ख़तरनाक स्थिति है। इसलिए हमें इस तरह की राजनीति और इस तरह के नेताओं से सावधान रहना होगा।

घूम फिरकर सवाल फिर वही है कि क्या किसी हत्या पर चिंतित होने के लिए उसमें सांप्रदायिक रंग होना ज़रूरी है? हमारे मन में कई सवाल उठ रहे हैं, आपके मन में भी कई सवाल उठ रहे होंगे। ऐसे में एक बात ये भी है कि क्या इन सवालों का जवाब मारे गए डॉक्टर के सरनेम में छिपा हुआ है? ये दुखद है कि हमारे लेखकों, पत्रकारों, प्रोफेसर्स और नेताओं ने इस ख़बर पर कोई आंदोलन नहीं किया। अगर मरने वाला किसी और जाति या धर्म का होता तो तस्वीर कुछ और होती। 

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