Zee जानकारी : NSG सदस्यता, आखिर क्यों नहीं गिर पाई चीन की 'दीवार'?
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Zee जानकारी : NSG सदस्यता, आखिर क्यों नहीं गिर पाई चीन की 'दीवार'?

आपके दिमाग में एक सवाल उठ रहा होगा कि जब परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) के 48 सदस्य देशों में से 47, भारत का समर्थन कर रहे थे, तो फिर चीन की दीवार क्यों नहीं गिर पाई, इसे समझने के लिए हम आपको कुछ ज़रूरी बातें बताएंगे। एनएसजी के नियमों के मुताबिक, अगर एनएसजी  के सदस्य देशों में से एक भी देश, किसी की सदस्यता का विरोध करता है, तो एनएसजी की सदस्यता नहीं मिलती है।

Zee जानकारी : NSG सदस्यता, आखिर क्यों नहीं गिर पाई चीन की 'दीवार'?

नई दिल्ली : आपके दिमाग में एक सवाल उठ रहा होगा कि जब परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) के 48 सदस्य देशों में से 47, भारत का समर्थन कर रहे थे, तो फिर चीन की दीवार क्यों नहीं गिर पाई, इसे समझने के लिए हम आपको कुछ ज़रूरी बातें बताएंगे। एनएसजी के नियमों के मुताबिक, अगर एनएसजी  के सदस्य देशों में से एक भी देश, किसी की सदस्यता का विरोध करता है, तो एनएसजी की सदस्यता नहीं मिलती है।

-भारत के मामले में भी ऐसा ही हुआ है, क्योंकि चीन ने भारत का विरोध किया।
-इसकी सबसे बड़ी वजह है, न्यूक्लियर नॉन-प्रोलिफरेशन ट्रीटी यानी परमाणु अप्रसार संधि पर भारत का हस्ताक्षर ना करना।
-नियमों के मुताबिक एनएसजी का सदस्य बनने के लिए परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करना अनिवार्य है, और ये नियम पूरे अंतरराष्ट्रीय समुदाय के बनाए हुए हैं, जो इस ग्रुप में शामिल हैं।
-न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप में भारत जैसे गैर एनपीटी देशों को शामिल करने के लिए सर्वसम्मति नहीं है, यही वजह है कि भारत की सदस्यता का विरोध हो रहा है।
-अब सवाल ये है, कि भारत परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर क्यों नहीं करना चाहता ?
-परमाणु हथियारों का विस्तार रोकने और परमाणु तकनीक के शांतिपूर्ण ढंग से इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए, परमाणु अप्रसार संधि का प्रस्ताव लाया गया था।
-इसका उद्देश्य परमाणु हथियारों को उन 5 देशों तक सीमित रखना था, जो ये स्वीकार करते थे, कि उनके पास परमाणु हथियार हैं।
-ये 5 देश थे, अमेरिका, सोवियत संघ, चीन, ब्रिटेन और फ़्रांस इनमें से सोवियत संघ के टूटने के बाद रूस ने उसकी जगह ले ली।
-ये एक तरह की मोनोपोली यानी एकाधिकार है और भारत लंबे समय से इस परमाणु एकाधिकार की आलोचना करता रहा है, और यही वजह थी, कि वर्ष 1974 में भारत ने शांतिपूर्ण परमाणु परीक्षण किया था।
-जिसके बाद, भारत जैसे किसी और देश को परमाणु परीक्षण करने से रोकने के लिए, न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप का गठन किया गया था।
-अगर भारत ने एनपीटी पर नॉन-न्यूक्लियर वीपन स्टेट के तौर पर हस्ताक्षर कर दिए होते, तो वो कभी परमाणु परीक्षण नहीं कर पाता।
-एनपीटी के तहत भारत को परमाणु संपन्न देश की मान्यता नहीं दी गई है। जो इसके दोहरे मापदंड को दर्शाती है।
-इस संधि के तहत परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र उसे ही माना गया है, जिसने 1 जनवरी 1967 से पहले परमाणु हथियारों का निर्माण और परीक्षण कर लिया हो।
-इसी आधार पर भारत को ये दर्जा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हासिल नहीं हुआ है। क्योंकि भारत ने अपना पहला परमाणु परीक्षण 1974 में किया था।
-भारत ये चाहता है, कि उसे एक परमाणु हथियार संपन्न देश माना जाए।
-यही वजह है, कि भारत ने एनपीटी पर दस्तख़त नहीं किए हैं, और इस वजह से भारत ग़ैर-परमाणु हथियार संपन्न देशों की श्रेणी में आता है।
-ध्यान देने वाली बात ये भी है, कि अगर भारत को एनपीटी पर दस्तख़त करना हो, तो उसे एक ग़ैर-परमाणु हथियार संपन्न देश के रूप में हस्ताक्षर करना होगा, जो भारत कभी नहीं चाहेगा। ये देश के हित में नहीं है

चीन की असली परेशानी क्या है?

एनएसजी में भारत की सदस्यता को लेकर चीन की असली परेशानी एनपीटी पर हस्ताक्षर करना नहीं बल्कि कुछ और ही है। ये एक ऐसा छिपा हुआ सच है, जिसके बारे में आपको पता होना चाहिए।

-चीन नहीं चाहता, कि भारत एनएसजी का सदस्य बनने के बाद, आसानी से दूसरे देशों से यूरेनियम और नई परमाणु तकनीक ले सके।
-चीन ये भी नहीं चाहता, कि भारत को न्यूक्लियर ट्रेड ग्रुप में जगह मिले, साथ ही वो भारत को न्यूक्लियर कंपोनेन्ट्स के निर्यात से भी रोकना चाहता है।
-चीन जानता है, कि अगर भारत एनएसजी का सदस्य बन जाता है, तो एनएसजी का सदस्य होने के नाते, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) के लिए उसकी दावेदारी और मज़बूत हो जाएगी, इसलिए भी वो भारत का विरोध कर रहा है।
-एनएसजी में भारत की सदस्यता का विरोध करके चीन, अमेरिका सहित भारत का समर्थन करने वाले सभी देशों को दिखाना चाहता है, कि वो कितना ताकतवर है और किसी भी फैसले में उसकी मर्ज़ी का कितना महत्व है।
-आपको बता दें, कि चीन ने एमटीसीआर यानी मिसाइल टेक्नॉलजी कंट्रोल रेजीम में भी भारत की एंट्री का विरोध किया था।

हालांकि, खुद चीन मिसाइल और न्यूक्लियर तकनीक को गलत हाथों में सौंपने का दोषी है। पाकिस्तान, नॉर्थ कोरिया और ईरान में मिसाइल्स और न्यूक्लियर तकनीक को लीक करने का काम भी चीन ने ही किया है। 1986 में चीन के वैज्ञानिकों ने पाकिस्तान की मदद करना शुरू किया था। चीन ने उस दौर में पाकिस्तान को 10 परमाणु हथियार बनाने के लिए न्यूक्लियर टेक्नॉलजी का ट्रांस्फर भी किया था। चाइना न्यूक्लियर एनर्जी इंडस्ट्री कॉरपोरेशन ने पाकिस्तान को ख़ासतौर पर डिज़ाइन किए गये 5,000 रिंग मैग्नेट्स दिए थे। इन मैग्नेट्स का इस्तेमाल परमाणु हथियारों से जुड़ी तकनीक विकसित करने में होता है। इन घटनाओं का ज़िक्र कई किताबों में भी है।

अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति का एक नियम है, कि दोस्त बनाओ तो ऐसे बनाओ, जो हर मुश्किल परिस्थिति में आपका साथ दें। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी एक अच्छी पहल करते हुए अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों से नज़दीकी बढ़ाई लेकिन अब प्रधानमंत्री मोदी के ताकतवर अंतर्राष्ट्रीय मित्र कम होते जा रहे हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति के तौर पर बराक ओबामा का ये आखिरी साल है। दूसरी तरफ ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने ब्रेक्जिट पर हुए जनमत संग्रह का फैसला आने के बाद, इस्तीफे का ऐलान कर दिया है और अक्टूबर में वो प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़ देंगे। डेविड कैमरन और बराक ओबामा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निजी तौर पर पसंद करते हैं और कई अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर नरेंद्र मोदी की जमकर तारीफ कर चुके हैं। नवंबर 2015 में जब प्रधानमंत्री मोदी ब्रिटेन गये थे तब डेविड कैमरन ने नरेंद्र मोदी की तारीफ करते हुए कहा था कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत के अच्छे दिन ज़रूर आएंगे।

प्रधानमंत्री मोदी ने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से भी गहरी दोस्ती निभाई लेकिन एनएसजी में भारत का विरोध करके चीन ने, दोस्ती की आड़ में दुश्मनी निभाने का ही काम किया है। यानी इससे पीएम मोदी और शी जिनपिंग के रिश्तों पर भी असर पड़ना तय है। कुल मिलाकर कहें, तो अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति के एक्सपर्ट बन चुके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी फिलहाल थोड़ी कमज़ोरी ज़रूर महसूस कर रहे होंगे।

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