ZEE जानकारी: असम में नागरिकता बिल को लेकर विरोध-प्रदर्शन के पीछे हैं ये दो आधार
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ZEE जानकारी: असम में नागरिकता बिल को लेकर विरोध-प्रदर्शन के पीछे हैं ये दो आधार

आज दिन भर देश के अलग-अलग राज्यों में नए नागरिकता कानून का विरोध हुआ. नए नागरिकता कानून के विरोध में ये तर्क दिया जा रहा है कि इसकी वजह से असमिया लोगों की संस्कृति खतरे में पड़ जाएगी और उनके अधिकारों का अतिक्रमण होने लगेगा लेकिन सच्चाई क्या है? इसके लिए हमको इतिहास में जाना पड़ेगा. 

ZEE जानकारी: असम में नागरिकता बिल को लेकर विरोध-प्रदर्शन के पीछे हैं ये दो आधार

लोकतंत्र में किसी भी व्यक्ति की सबसे बड़ी पहचान उसकी नागरिकता होती है और जब लोकतांत्रिक सरकारें नागरिकता से जुड़ा कोई कानून बनाती हैं या बदलती हैं तो इसके असर दूरगामी होते हैं. 11 दिसंबर को संसद में नागरिकता संशोधन कानून पास होने के बाद हमारे देश में खुशी भी है और आक्रोश भी. देश का जागरूक नागरिक होने के नाते आपको इस मुद्दे पर अपनी समझ बढ़ानी चाहिए और तर्क मज़बूत करने चाहिए. आज इसी काम में आपकी मदद के लिए, हम नए नागरिकता कानून का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विश्लेषण करेंगे. 

सबसे पहले आपको बताते हैं कि आज क्या हुआ. आज दिन भर देश के अलग-अलग राज्यों में नए नागरिकता कानून का विरोध हुआ. गुवाहाटी में AASU यानी All Assam Students' Union के सदस्यों ने भूख हड़ताल की और इस कानून को वापस लेने की मांग की. दिल्ली में जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्रों ने कानून के विरोध में सड़क जाम किया. पुलिस ने छात्रों को ऐसा करने से रोकने की कोशिश की तो छात्रों ने पुलिस पर पत्थरबाज़ी की, जिसके बाद पुलिस को लाठी चार्ज करना पड़ा. इसी तरह पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में प्रदर्शनकारियों ने ट्रेन रोक दी और रेल की पटरी पर आग लगा दी. वहां प्रदर्शन के नाम पर अराजकता की तस्वीरें देखने को मिलीं. 

किसी भी फैसले या कानून का वैचारिक विरोध तो समझ में आता है, धरना और शांतिपूर्ण प्रदर्शन को भी गलत नहीं माना जा सकता लेकिन आंदोलन के नाम पर जनता को परेशान करना और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाना, सही नहीं ठहराया जा सकता. 

इस कानून के विरोध में हो रहे प्रदर्शन के दौरान आज असम के डिब्रूगढ़ में पुलिस की फायरिंग में एक प्रदर्शनकारी की मौत हो गई. नागरिकता कानून के विरोध में जारी हिंसक प्रदर्शन में अबतक 4 मौत हो चुकी है और ये चारों मौत असम में ही हुई है. असम के 4 ज़िलों में अभी भी कर्फ्यू जारी है. ये ज़िले हैं- गुवाहाटी, डिब्रूगढ़, जोरहाट और तिनसुकिया. असम के 10 ज़िलों में धारा 144 भी लगाई गई है. जबकि असम और मेघालय में इंटरनेट पूरी तरह से बंद है. असम में स्कूल और कॉलेज भी 22 दिसंबर तक के लिए बंद कर दिए गए हैं. असम और त्रिपुरा से आने-जाने वाली ट्रेनें बंद हैं और कुछ उड़ानें भी फिलहाल रोक दी गई हैं. एक बड़ी खबर ये भी है कि इंग्लैंड, फ्रांस और इज़रायल ने अपने देश के यात्रियों को सलाह दी है कि वो अगर भारत के पूर्वोत्तर इलाके में जा रहे हैं तो सावधानी बरतें. 

असम में जारी प्रदर्शन की वजह से गुवाहाटी में 15 से 17 दिसंबर तक होने वाले भारत-जापान वार्षिक सम्मेलन की तारीख भी आगे बढ़ा दी गई है. इस सम्मेलन की तैयारी में पूरे शहर को सजाया गया था. दीवारों को एक ही रंग में रंगा गया था लेकिन प्रदर्शनकारियों ने दीवारों पर नागरिकता कानून के विरोध में नारे लिख दिए हैं.  इसी तरह बांग्लादेश के विदेश मंत्री का दौरा भी पहले ही रद्द किया जा चुका है. ज़ी न्यूज़ पहला चैनल है, जो असम में जारी विरोध के बीच से ग्राउंड रिपोर्टिंग कर रहा है इसलिए सबसे पहले हम भी आपको गुवाहाटी ले चलेंगे. 

नए नागरिकता कानून के विरोध में ये तर्क दिया जा रहा है कि इसकी वजह से असमिया लोगों की संस्कृति खतरे में पड़ जाएगी और उनके अधिकारों का अतिक्रमण होने लगेगा लेकिन सच्चाई क्या है? इसके लिए हमको इतिहास में जाना पड़ेगा. 

हमने पिछले दिनों आपको बताया था कि नागरिकता संशोधन बिल का आधार बंटवारा है. हमने आपको ये भी बताया कि बंटवारा 1947 में नहीं, 1905 में ही हो गया था. 1905 में बंगाल को दो आधार पर बांट दिया गया था. धर्म पहला आधार था और भाषा दूसरा. आज जो असम में विरोध प्रदर्शन और आगजनी हो रही है, उसके पीछे बंटवारे के यही दो आधार हैं. असमिया भाषी लोगों में ये डर है कि पहले बंगाली मुसलमानों की घुसपैठ से उनकी आबादी का संतुलन बिगड़ा था और अब उन्हें डर है कि इस संशोधन के बाद बंगाली हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता मिलने से उनकी सांस्कृतिक पहचान को और नुकसान पहुंचेगा. 1905 में जो बंटवारा हुआ था, उसमें हिंदु बाहुल्य पश्चिम बंगाल के साथ ओडिशा और पूर्वी बंगाल के साथ असम के क्षेत्रों को जोड़ने से विभाजन की लकीरें भाषा के आधार पर खिंच गई थीं. जहां पूर्वी बंगाल में हिंदू अल्पसंख्यक हो गए थे, वहीं पश्चिम बंगाल में बंगाली अल्पसंख्यक हो गए थे. आज असम में असमिया भाषा, बंगाली हिंदू और मुसलमानों के आधार पर विभाजन है. 

असम में कुल 33 ज़िले हैं, जिनमें से 3 दीमा हसाव, ईस्ट कर्बी आंगलॉन्ग और वेस्ट कर्बी आंगलॉन्ग स्वायत्त ज़िले हैं. इसके अलावा 4 ज़िले बोड़ो-लैंड इलाके में आते हैं. इनके नाम हैं- कोकराझार, बक्सा, चिरांग और उदलगुरी. ये ज़िले भारत के संविधान की छठी अनुसूची में आते हैं, इसलिए नागरिकता संशोधन बिल इन पर लागू नहीं होता है. ऐसा इसलिए है क्योंकि इन ज़िलों पर लागू होने वाले कानून राज्यपाल के अधीन हैं. स्वाभाविक है कि इन क्षेत्रों के लोगों को इस बिल से डरने की आवश्यकता नहीं है लेकिन यहां भी इस समय अलर्ट है. यानी, दुष्प्रचार फैला तो इन ज़िलों में भी प्रदर्शन शुरू हो सकते हैं. 

तो प्रश्न उठता है कि उग्र विरोध प्रदर्शन करवा कौन रहा है? रिपोर्ट के अनुसार AASU यानी ALL ASSAM STUDENTS UNION इस प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहा है.  AASU का विरोध उन हिंदू शरणार्थियों से है, जो बांग्लादेश से यहां आए हैं और जो नए कानून के बाद यहां के नागरिक हो जाएंगे. AASU को कई क्षेत्रीय संगठन समर्थन दे रहे हैं. इनका डर ये है कि असमिया भाषा बोलने वाली आबादी अल्पसंख्यक न हो जाए. 1991 में असम में, असमिया बोलने वालों की जनसंख्या 58 प्रतिशत थी जो 2011 में घटकर 48 प्रतिशत हो गई. वहीं बांग्ला भाषी जनसंख्या इसी दौरान 22 प्रतिशत से बढ़कर 32 प्रतिशत हो गई. इनकी चिंता ये भी है कि जो ASSAM ACCORD यानी असम समझौता हुआ था, उसके अनुसार राज्य में शरणार्थियों के प्रवेश की अंतिम तारीख 25 मार्च 1971 रखी गई थी. जैसे ही नया नागरिकता कानून लागू होता है, ये तारीख 43 वर्ष आगे बढ़कर 31 दिसंबर 2014 पर पहुंच जाएगी. बराक Valley, जहां बंगाली हिंदू शरणार्थी भारी मात्रा में हैं, वहां इस नए कानून का समर्थन किया जा रहा है. 

दूसरा प्रश्न ये है कि असम और पूर्वोत्तर में धर्म और भाषा के आधार पर अलगाव कब खत्म हो पाएगा? 1905 में बंगाल में अंग्रेजों द्वारा बोया बंटवारे का बीज आज वृक्ष बनकर खड़ा है. कांग्रेस पार्टी पर प्रधानमंत्री मोदी का आरोप है कि वो नागरिकता कानून को लेकर अफवाह फैला रही है. अब हम आपको ये बताएंगे कि संवैधानिक तौर पर भी कैसे ये कानून गलत नहीं है. संविधान के अनुच्छेद 11 के अनुसार भारत की संसद को पूरा अधिकार है कि वो नागरिकता को लेकर कोई भी कानून बना सकती है. संविधान के निर्माताओं ने संसद को ये अधिकार दिया था कि अगर वो चाहे तो, उन्हें भी नागरिकता दे सकती है जो संविधान बनने के वक्त भारत के नागरिक नहीं थे.  भारत का सर्वोच्च न्यायालय भी ये कहता है कि किसी खास वर्ग को फायदा पहुंचाने के लिए अगर कानून बनता है तो वो अनुच्छेद 14, यानी समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं है. खास तौर पर तब, अगर कानून का आधार सही हो. इसका विवरण Parisons Agrotech Private Limited बनाम Union Of India केस के फैसले में दर्ज है. यहां कानून का आधार भारत में अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आए करोड़ों शरणार्थियों की परेशानी और उनके ऊपर किए गए धार्मिक अत्याचार दोनों हैं. इसलिए सर्वोच्च न्यायालय में इन्हें नकार पाना आसान नहीं होगा. 

संविधान के मुताबिक नए नागरिकता कानून को लागू करना हर राज्य के लिए जरूरी है क्योंकि इसे संविधान की 7वीं अनुसूची के तहत सूचीबद्ध किया गया है, जिसे केंद्रीय कानूनों की सूची भी कहते हैं. नागरिकता का विषय केंद्रीय कानूनों की इसी सूची में आता है लेकिन खुद असम विधानसभा के अध्यक्ष ने इस कानून का विरोध किया है. 

देश में इस समय 6 राज्य इस कानून को लागू करने से मना कर रहे हैं. पश्चिम बंगाल, केरल और पंजाब ने नए कानून को लागू करने से साफ मना कर दिया है जबकि छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र का कहना है कि ये कानून देश को बांटने वाला है. ज़रा सोचिए, हमारे लोकतंत्र में ये कैसी परंपरा शुरू हो रही है. राज्य सरकारें, केंद्र सरकार के फैसले को चुनौती देकर एक तरह से संघीय ढांचे को ही चुनौती दे रही हैं.

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