उफ्फ ये गरीबी! और कितना होगा गरीबी का मजाक

देश में गरीबी के पैमाने से आंकड़ों के साथ खिलावाड़ गरीबों के मुंह पर घोर तमाचा है। पहले निरर्थक ढंग से गरीबी की परिभाषा तय करना और फिर दिन-रात संघर्ष कर अपना पेट पालने वाले लोगों के लिए चंद रुपयों का मापदंड तय करना, यह गरीबी का मजाक नहीं तो और क्‍या है।

बिमल कुमार
देश में गरीबी के पैमाने से आंकड़ों के साथ खिलावाड़ गरीबों के मुंह पर घोर तमाचा है। पहले निरर्थक ढंग से गरीबी की परिभाषा तय करना और फिर दिन-रात संघर्ष कर अपना पेट पालने वाले लोगों के लिए चंद रुपयों का मापदंड तय करना, यह गरीबी का मजाक नहीं तो और क्‍या है। जिन्‍हें गरीबी की छाया ने दूर-दूर तक नहीं छुआ है, वे क्‍या जानें गरीबी क्‍या होती है। इस बात को कहने से कोई गुरेज नहीं है कि देश की शासन सत्‍ता या तो अब तक गरीबी को समझ ही नहीं पाई या फिर सब जानते हुए भी अनजान बने रहना चाहती है।
इसके पीछे का कड़वा सच क्‍या है ये तो वही जानें पर आजाद भारत के इतिहास में गरीबी का ऐसा उपहास कभी देखने को नहीं मिला। ऊपर से राजनेताओं के फिजूल बयान गरीबों के जख्‍मों को और कुरेदते नजर आते हैं। योजना आयोग की हाल में आई रिपोर्ट में जिक्र किया गया है कि भारत में गरीबी घट रही है और गरीबी के अनुपात में 21.9 प्रतिशत की गिरावट आई है। इन आंकड़ों की बाजीगरी पर नेताओं की अनर्गल बयानबाजी थमने का नाम नहीं ले रही है और पिस रहा है तो सिर्फ गरीब...।
बात यूं उठी कि योजना आयोग ने एक्सपर्ट कमिटी के सुझाए मापदंडों को आधार बनाकर गरीबी का नया पैमाना तय किया। योजना आयोग की रिपोर्ट सुरेश तेंदुलकर समिति के फार्मूले पर आधारित है, जिसके अनुसार 34 रुपये प्रतिदिन व्यय करने वाला व्यक्ति गरीबी रेखा से ऊपर है। इसके तहत अब गांवों में प्रति व्यक्ति 26 रुपये की जगह 27.2 रुपये और शहरों में 32 रुपये की जगह 33.3 रुपये से ज्यादा खर्च करनेवाले गरीब नहीं कहलाएंगे। यही नहीं, आयोग के मुताबिक 2009-10 में देश में गरीबों की संख्या 40.7 करोड़ थी जो नई गरीबी रेखा के बाद 2011-12 में घट कर 26.9 करोड़ रह गई। गरीबी के इस पैमाने से शायद ही देश का कोई व्‍यक्ति सहमत होगा। यह तो विशुद्ध रूप से गरीबी को कमतर आंके जाने जैसी बात है। कैसे कोई व्‍यक्ति 34 रुपये प्रतिदिन की आमदनी में जीवन बिता सकता है।
सबसे पहले योजना आयोग को यह समझना चाहिए कि प्रतिदिन की आमदनी के आधार पर गरीबी की सीमा तय नहीं की सकती। जरूरत तो इस बात की है कि लोगों की पोषणयुक्त भोजन के साथ जीवन की बुनियादी जरूरतें पूरी हों और व्यक्ति सम्मान के साथ जी सके। गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करने वालों को लेकर सरकार जो भी आंकड़े पेश करे, पर सच्‍चाई इससे कोसों दूर है। यदि यह आंकड़े एक मायने में सही मान भी लें तो क्‍या इससे देश भर में वाकई गरीबी घटती जा रही है। योजना आयोग की ऐसी कुत्सित सोच से गरीबी को मांपने के तरीके और आधार पर ही सवाल उठने लगे हैं। गरीबी को कुछ कैलोरी या प्रतिदिन की आमदनी के आधार पर किसी भी सूरत में तय नहीं किया जा सकता है।
बीपीएल के आंकड़ों और गरीबी स्तर में गिरावट आने की योजना आयोग की रिपोर्ट की चौतरफा आलोचना और विवाद के बीच सरकार को अब नींद से जागना होगा, वरना पहले से ही अभिशप्‍त गरीब और गरीबी का खेवनहार कौन बनेगा। वैसे भी अपनी जिंदगी की डोर पहले से ही ईश्‍वर के हाथ छोड़ने वाला गरीब तबका इन आकड़ों के सामने यही दुहाई देगा कि भगवान! अब किसी भी जन्‍म में गरीबी से पाला नहीं पड़ने देना।
इस समय तो लगता है कि जैसे सस्ते खाने पर नेताओं के बीच वाकयुद्ध छिड़ गया हो। वाकया हैरतअंगेज तब हो जाता है जब गरीबी का मजाक उड़ाते ये नेता सत्‍ता पक्ष से जुड़ें हों। पर इन पर लगाम लगाने वाला कोई नहीं है।
कांग्रेस नेता राज बब्बर और राशिद मसूद तो यहां तक कह गए कि मुंबई और दिल्‍ली में आप क्रमश: 12 रुपये और पांच रुपये में भरपेट भोजन कर सकते हैं। राशिद मसूद के शब्‍दों में दिल्ली में किसी भी व्‍यक्ति को 5 रुपये में पूरा खाना मिल जाएगा और मैं अपने खाने पर पांच रुपये से कम खर्च करता हूं। वहीं, गरीबी पर जारी बहस के बीच केंद्रीय मंत्री फारुख अब्दुल्ला ने तो यहां तक कह डाला कि एक रुपये में ही भरपेट भोजन मिल सकता है। देश की संसद ऐसी जगह है, जहां आज 12 रुपये में खाना मिलता है। जी हां, हम बात कर रहे हैं संसद के कैंटीन की। कहीं ऐसा तो नहीं है कि ये नेता वहां मिल रहे खाने के आधार पर देशभर में मिल रहे भोजन का पैमाना आंक रहे हों। यदि ऐसा है तो इसे देश का दुर्भाग्‍य ही कहा जाएगा। हैरत इस बात को लेकर भी होती है कि इस कमरतोड़ महंगाई में ये नेता ऐसे फिजूल और गैरजिम्मेदाराना बयान कैसे दे सकते हैं। क्या इन्हें नहीं मालूम कि आम आदमी का इस महंगाई में जीना ही मुहाल हो गया है। क्या ये प्याज, टमाटर आदि के आममान छूते भावों के बारे में पूरी तरह अनभिज्ञ हैं।
नेताओं के ऐसे बयानों से साफ अंदाजा लगाया जा सकता है कि इनकी नजर में गरीबी क्‍या है। संभवत: देश का हर आम आदमी इसे गरीबी का मजाक ही कहेगा। अब इन नेताओं को कौन समझाए कि गरीब होना क्‍या होता है। इस तरह की सोचों के बीच क्‍या हम देश से गरीबी को मिटा पाएंगे? क्‍या गरीब की जिंदगी कभी बदल सकेगी? क्‍या देश कभी प्रगति की राह पर लौट सकेगा। यह बात इसलिए महत्‍वपूर्ण है कि गरीबी से पार पाए बिना अर्थव्‍यवस्‍था सही मायनों में कभी पटरी पर नहीं लौट सकेगी।
योजना आयोग के आंकड़ों पर गौर करें तो प्रति व्यक्ति खपत के आधार पर देश की आबादी में गरीबों का अनुपात 2011-12 में घटकर 21.9 प्रतिशत पर आ गया। यह 2004-05 में 37.2 प्रतिशत पर था। योजना आयोग ने एक प्रकार से अपने पूर्व के विवादास्पद गरीबी गणना के तरीके के आधार पर ही यह आंकड़ा निकाला। इससे पहले आयोग ने कहा था कि शहरी इलाकों में प्रतिदिन 32 रुपये से अधिक खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है। उसकी इस गणना से पहले भी काफी विवाद पैदा हुआ था और इसकी प्रासंगिकता पर खासा सवाल उठे थे। योजना आयोग ने आज जो गरीबी का आंकड़ा दिया है वह उसी गणना के तरीके पर आधारित है। योजना आयोग ने एक प्रकार से अपने पूर्व के विवादास्पद गरीबी गणना के तरीके के आधार पर ही यह आंकड़ा निकाला है, जो किसी भी मायने में तर्कसंगत और न्‍यायोचित नहीं ठहराया जा सकता है।
योजना आयोग के ये आंकड़े तो एकबारगी गरीबों के खिलाफ षडयंत्र सरीखे लगते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इन आंकड़ों को कल्याणकारी योजनाओं के दायरे से बाहर करने के लिए तैयार किया गया है। हो सकता है कि कल्याण योजनाओं का लाभ मुहैया नहीं कराना गरीबों के खिलाफ साजिश हो। ऐसी किसी भी संभावनाओं को हकीकत में तब्‍दील होने से रोकना होगा। अन्‍यथा इसके गंभीर दुष्‍परिणाम सामने आएंगे। हर देशवासी यह अपेक्षा करता है कि गरीब और गरीबी को लेकर सरकार ऐसा घोर मजाक न करे। इसके बजाय सरकार को ऐसी कल्याणकारी योजनाओं और स्‍कीमों को अमल में लाना होगा, जिससे देश भर के गरीबों की बदहाली और दुर्दशा दूर हो सके।

Zee News App: पाएँ हिंदी में ताज़ा समाचार, देश-दुनिया की खबरें, फिल्म, बिज़नेस अपडेट्स, खेल की दुनिया की हलचल, देखें लाइव न्यूज़ और धर्म-कर्म से जुड़ी खबरें, आदि.अभी डाउनलोड करें ज़ी न्यूज़ ऐप.