वासिंद्र मिश्र
उत्तर प्रदेश एक बार फिर 2014 के महासमर का मुख्य केंद्र बनता दिखाई दे रहा है। कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी, चारों की कोशिश उत्तर प्रदेश से ज्यादा से ज्यादा लोकसभा सीटें जीतने की हैं। संयोग से इन चारों प्रमुख पार्टियों के अध्यक्ष भी उत्तर प्रदेश से ही आते हैं। वैसे तो उत्तर प्रदेश हमेशा से ही देश की राजनैतिक दिशा और दशा तय करता रहा है, और आजादी के बाद से अब तक बने देश के प्रधानमंत्रियों में ज्यादातर उत्तर प्रदेश से रहे हैं। देश की लोकसभा में 543 सीटों में से अकेले उत्तर प्रदेश में 80 सीटें हैं। लेकिन इस बार की लड़ाई कुछ अलग मुद्दों पर होने वाली है।
इतिहास गवाह है कि बीजेपी को राजनैतिक उफान और शीर्ष तक पहुंचाने में राममंदिर आंदोलन की अहम भूमिका रही थी लेकिन बाद में उस अपार समर्थन को अपने पक्ष में बनाए रखने में अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता का व्यक्तित्व और लालकृष्ण आडवाणी का कुशल प्रशासन काम आया। लेकिन इस बार के राजनैतिक हालात बदले हुए हैं, ना तो राम मंदिर आंदोलन जैसी लहर है और ना ही वैचारिक और सामाजिक रूप से विश्वसनीय अटल, आडवाणी जैसा चेहरा है।
उत्तर प्रदेश समेत देश के आधे से ज्यादा मतदाता युवा हैं और उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती जाति और संप्रदाय से हटकर रोज़गार और अमन-चैन से रहने की है। वे जज्बाती नारों में उलझकर अपने भविष्य के साथ खिलवाड़ करने की इजाज़त देने के लिए तैयार नहीं हैं। ऐसी स्थिति में भारतीय जनता पार्टी को राजनैतिक ज़मीनी सच्चाई को समझते हुए अपनी भावी रणनीति बनानी चाहिए। ‘हिंदू तन–मन, हिंदू जीवन’, ‘रामलला हम आए हैं, मंदिर यहीं बनाएंगे’, ‘बच्चा-बच्चा राम का- जन्मभूमि के काम का’ जैसे उत्तेजक उद्घोष से बचते हुए, रोजगार और विकास परक राजनैतिक अध्याय की शुरुआत होनी चाहिए।
नरेंद्र भाई मोदी को अगर विकास पुरुष के रूप में प्रोजेक्ट किया गया तब तो नि:संदेह इसका राजनैतिक लाभ पार्टी को आने वाले चुनाव में मिल सकता है लेकिन अगर उनको उनके गुजरात में किए गए संप्रदाय विशेष के खिलाफ आचरण के लिए स्पाइडरमैन बनाकर पेश किया जाता है तो पार्टी को फायदे से ज्यादा नुकसान की संभावना बढ़ जाएगी। अभी तक के चुनावों में बीजेपी के ट्रैक रिकॉर्ड पर अगर नज़र डालें तो ये भी सच है कि चुनाव के पहले तक तो वो भ्रष्टाचार, गरीबी की बात करते हैं लेकिन चुनाव जैसे ही शबाब पर आता है तो एक बार फिर पार्टी हिंदुत्व का राग अलापने लगती है। बीजेपी के नीति निर्धारकों को इस कहावत को नहीं भूलना चाहिए की काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती।
चुनौतियां कांग्रेस और उसके एंग्री यंग मैन राहुल गांधी के लिए भी कम नहीं हैं। नरेंद्र मोदी के राजनैतिक पटल पर आने के दिन से ही कांग्रेस के आरामतलब और सुविधाभोगी नेता मुंगेरीलाल के हसीन सपनों की तरह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की आस लगाए बैठ गए हैं। उनको लगता है कि मोदी की वजह से उत्तर प्रदेश सहित पूरे देश में धर्मनिरपेक्ष वोटों का ध्रुवीकरण होगा और इसका सीधा फायदा कांग्रेस पार्टी को मिलेगा। अगर पार्टी की तरफ से बूथ स्तर तक पार्टी के सांगठनिक ढांचे को मजबूत नहीं किया गया, साथ ही भ्रष्टाचार और लचर प्रशासन सरीखे ज्वलंत मुद्दों पर कोई ठोस जवाब देश की जनता के सामने नहीं रखा गया तो जनता कांग्रेस की बजाय मौजूदा और अन्य राजनैतिक विकल्पों पर विचार कर सकती है। कांग्रेस को अपनी रणनीति पर भी दोबारा विचार करना होगा। कम से कम उनके नए प्रभारियों की नियुक्तियों को देखकर तो ये कहा ही जा सकता है।
कांग्रेस ने मधुसूदन मिस्त्री को उत्तर प्रदेश कांग्रेस का प्रभारी बना दिया है और मध्य प्रदेश की कमान दी है मोहन प्रकाश के हाथ में। ये वही नेता हैं जिनपर कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी भरोसा जताया था। ये लोग उस स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्य थे जिसने उत्तर प्रदेश में प्रत्याशियों के चुनाव में अहम भूमिका निभाई थी और उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की लुटिया डूब गई। राहुल गांधी ने एक बार फिर इन्हीं नेताओ पर भरोसा जताया है ऐसे में ये वक्त बताएगा कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का क्या हाल होगा।
समाजवादी पार्टी के लिए भी आने वाले समय में कई चुनौतियां हैं। प्रदेश की जनता के लिए पिछले एक साल की उनकी सरकार का अनुभव अच्छा नहीं है, ऐसे में अगर पार्टी ने अपने काम–काज में सुधार नहीं किया और नहीं संभली तो उसे एंटी इनकंबेंसी का शिकार होना पड़ सकता है।
मायावती अभी तक एकला चलो की राह पर आगे बढ़ रही हैं लेकिन अब देश की राजनीति प्रदेश से अलग है। उत्तर प्रदेश में पार्टी का जनाधार है लेकिन अगर मायावती को राष्ट्रीय स्तर की राजनीति करनी है तो महज एक स्टेट के जनाधार के आधार पर चुनावी नैया पार नहीं हो सकती। ऐसे में उन्हें यूपीए, एनडीए, प्रस्तावित फेडरल फ्रंट (ममता, नीतीश और नवीन पटनायक) और थर्ड फ्रंट (मुलायम और लेफ्ट) में से किसी एक को चुनना होगा और किसी के साथ गठबंधन करना होगा।
2014 में चाहे कोई भी पार्टी या कोई भी गठबंधन आए लेकिन इतना तय है कि उत्तर प्रदेश इस पूरे चुनावी समर का केंद्र बनने जा रहा है। ये तमाम राजनैतिक पार्टियों को भी पता है और उनकी रणनीति में साफ झलक भी रहा है। तमाम बड़ी पार्टियां उत्तर प्रदेश में अपना आधार दुरुस्त करने में लगी हुई हैं, चाहे वो अपना प्रभारी तय करके करें या फिर ताबड़तोड़ रैलियों के ज़रिए। ऐसे में राजनीतिक ध्रुवीकरण का स्वरूप क्या होता है और नए समीकरण क्या बनते हैं, इसके कुछ-कुछ संकेत तो ज़रूर मिल रहे हैं लेकिन ये तय है कि चुनावी रणभूमि में इस बार भी उत्तर प्रदेश ही मुख्य केंद्र रहेगा।
लेखक ज़ी रीजनल चैनल्स (हिंदी) के संपादक हैं।