जरा याद करो इमरजेंसी

याद कीजिए 26 जून 1975। यह वही तारीख है जब भारतीय लोकतंत्र को आज से 39 साल पहले 28 साल की भरी जवानी में आपातकाल के तलवार से लहूलुहान कर दिया गया था। ये तलवार किसी सैन्य जनरल के हाथ में नहीं था, बल्कि तत्कालीन प्रधानमंत्री (जिन्हें आइरन लेडी और साक्षात दुर्गा के विशेषण से भी विभूषित किया जा चुका है) इंदिरा गांधी के हाथ में था।

1971 में बांग्लादेश बनवाकर शोहरत के शिखर पर पहुंचीं इंदिरा गांधी को  अपने खिलाफ उठी हर आवाज विपक्ष की साजिश लग रही थी। दरअसल, इस सबकी शुरुआत जनवरी 1974 में गुजरात से हुई थी। लोग जमाखोरी व महंगाई से त्रस्त थे और इसी बीच वहां के कॉलेजों में मेस का बिल बढ़ा दिया गया था। एलडी इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रों ने इसके विरोध में आवाज बुलंद की जो धीरे-धीरे विशाल छात्र आंदोलन में तब्दील हो गया।

गुजरात सरकार ने छात्रों पर लाठी-गोली बरसाकर आंदोलन को कुचलना चाहा। फिर क्या था, इस सरकारी दमन के खिलाफ पूरा गुजरात उठ खड़ा हुआ। 26 जनवरी को गुजरात के 48 शहरों में कर्फ्यू लगा दिया गया था। ये आग तब और भड़की जब 1942 के हीरो कहे जाने वाले जयप्रकाश नारायण गुजरात पहुंचे। आखिरकार गुजरात के तत्तकालीन मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल को इस्तीफा देना पड़ा। लेकिन भ्रष्टाचार और महंगाई के मुद्दे ने देशव्यापी आंदोलन का रूप धारण कर लिया। विपक्ष ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ मुहिम तेज कर दी।

12 जून, 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के लोकसभा चुनाव को रद्द घोषित कर दिया। उन पर भ्रष्टाचार के कई आरोप साबित हुए थे। उन्हें कुर्सी छोड़ने और छह साल तक चुनाव नहीं लड़ने का निर्देश मिला। लेकिन इंदिरा गांधी ने अपनी ताकतवर छवि, गर्म मिजाज दिमाग और तानाशाही रवैये से आपातकाल का रास्ता निकाला। 25 जून, 1975 को इंदिरा गांधी ने संविधान की धारा-352 के तहत आपातकालीन स्थिति की घोषणा कर दी।

यह एक ऐसा समय था जब हर तरफ सिर्फ इंदिरा गांधी ही नजर आ रही थीं। उनकी ऐतिहासिक कामयाबियों के चलते देश में ‘इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा’ का नारा जोर शोर से गूंजने लगा। लेकिन हाईकोर्ट के फैसले से इंदिरा गांधी की उस छवि को गंभीर धक्का पहुंचा जिसकी वजह से वह गरीबों की मसीहा थीं और हरित क्रांति और श्वेत क्रांति की अगुआ मानी जाती थीं। बाद में 21 महीनों की इमरजेंसी को हटाकर इंदिरा गांधी ने सत्ता जनता के हाथों में दे दी।

26 जून 1975 की सुबह रेडियो से राष्ट्र को संबोधित करते हुए इंदिरा गांधी ने कहा था कि लोकतंत्र की रक्षा के लिए यह कदम है। उन्होंने आरोप लगाया कि गरीबों के हक में उन्होंने जो काम किये हैं, उन्हें पटरी से उतारने के लिए देश में अराजकता का माहौल पैदा किया जा रहा है, इसलिए मजबूरन उन्हें यह कदम उठाना पड़ा है। इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाने की परिस्थिति पैदा करने की पूरी जवाबदेही जयप्रकाश नारायण और उनके आंदोलन पर थोप दिया।

इंदिरा गांधी की सरकार में विधिमंत्री सिद्धार्थशंकर रे ने आपातकाल का प्रस्ताव बनाया और राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को रात में ही जगाकर हस्ताक्षर करा लिये। मंत्रिमंडल को भी इसका पता अगले दिन ही चला। इस प्रकार 26 जून का उजाला देश में आपातकाल की गिरफ्त में था।

आपातकाल की बिगुल बजते ही विरोधी दल के अधिकांश नेताओं तथा आरएसएस के प्रमुख कार्यकर्ताओं को बंदी बना लिया गया। तब चन्द्रशेखर, रामधन, कृष्णकांत और मोहन धारिया भी कांग्रेस में थे। ये इंदिरा गांधी के इस रवैये से खुश नहीं थे। इन्हें ‘युवा तुर्क’ कहा जाता था। इंदिरा गांधी ने इन युवा तुर्कों की मंशा को भांपते हुए इन्हें भी जेल में बंद करा दिया। मीडिया पर सेंसर लगा दिया गया। देश एक ऐसे अंधकार-युग में प्रवेश कर गया, जहां से निकलना कठिन था।

इंदिरा सरकार की इस तानाशाही के विरोध में ‘लोक संघर्ष समिति’ बनाई गई। इसके बैनर तले सत्याग्रह हुआ, जिसमें देश भर में डेढ़ लाख लोगों ने गिरफ्तारी दीं। इनमें 95 प्रतिशत राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ता थे। इंदिरा ने सबको जेल में बंदकर सोचा कि अब आंदोलन दब गया है। उन्होंने लोकसभा के चुनाव घोषित कर दिए। लेकिन इंदिरा को यह पता नहीं था कि आरएसएस के कार्यकर्ता अंदरखाने पूरी तरह से सक्रिय थे। यहीं इंदिरा सरकार की इंटेलीजेंसिया फेल हो गई।

संघ के बड़े नेताओं ने जेल में बंद नेताओं से सम्पर्क साधा और ‘जनता पार्टी’ के बैनर पर चुनाव लड़ने का आह्वान किया। अधिकांश बड़े नेता हालांकि हिम्मत हार चुके थे, लेकिन जब उन्होंने देश की जनता का उत्साह देखा तो वे चुनाव मैदान में उतरने को तैयार हो गये। चुनाव में तब इंदिरा गांधी की भारी पराजय हुई थी। ये अलग बात है कि जनता पार्टी की सरकार आपसी सामंजस्य के अभाव में इंदिरा गांधी को बहुत ज्यादा समय तक सत्ता से दूर रखने में विफल रही और अगले चुनाव में बहुमत के साथ इंदिरा ने फिर वापसी की।

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