सुप्रीम कोर्ट ने दिया फैसला- समलैंगिकता है अपराध, कार्यकर्ता हुए निराश

सर्वोच्च न्यायालय ने बुधवार को वयस्कों के बीच सहमति से समलैंगिक यौन संबंध स्थापित करने को अपराध करार दिया।

ज़ी मीडिया ब्‍यूरो
नई दिल्ली : सर्वोच्च न्यायालय ने बुधवार को वयस्कों के बीच सहमति से समलैंगिक यौन संबंध स्थापित करने को अपराध करार दिया। लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर (एलजीबीटी) समुदाय को करारा झटका देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को दिल्ली उच्च न्यायालय का वह बहुचर्चित फैसला खारिज कर दिया जिसके तहत समलैंगिक यौन संबंध बनाने को अपराध नहीं माना गया था। न्यायालय ने अपने फैसले में इस मुद्दे पर कानून में संशोधन करने की जिम्मेदारी संसद पर डाल दी।
उधर, अदालत के इस फैसले से देश के समलिंगी, उभयलिंगी एवं किन्नर समुदाय (एलजीबीटी) में निराशा फैल गई। हालांकि समलैंगिक अधिकारों के लिए लड़ने वाले कार्यकर्ताओं ने अपनी लड़ाई जारी रखने का संकल्प लिया। न्यायालय के फैसले के खिलाफ पूरे देश में एलजीबीटी समुदाय सड़कों पर उतर आया, तो दूसरी ओर सरकार ने समलैंगिक रिश्तों को अपराध के दायरे से बाहर किए जाने के लिए विधायी रास्ता अख्तियार करने का संकेत दिया।
दिल्ली उच्च न्यायालय के 2009 में दिए गए फैसले के विपरीत सर्वोच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी और न्यायमूर्ति एसजे मुखोपाध्याय की पीठ ने अपने फैसले में बुधवार को कहा कि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 को बदलने के लिए कोई संवैधानिक गुंजाइश नहीं है। धारा 377 के तहत दो वयस्कों के बीच समलैंगिक रिश्ते को अपराध माना गया है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने 2009 में दिए अपने फैसले में धारा 377 के तहत के समलैगिक रिश्ते को गैर अपराधिक कृत्य करार दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने बुधवार को अपने फैसले में कहा कि हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि यह अदालत सिर्फ दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा आईपीसी की धारा 377 की संवैधानिकता पर रखे गए विचार की सत्यता पर अपना निर्णय दे रही है, तथा अदालत की नजरों में धारा 377 को बदलने के लिए कोई संवैधानिक गुंजाइश नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने महाधिवक्ता से कहा कि अगर सरकार चाहे तो कानून में संशोधन करवा सकती है।
न्यायालय ने कहा कि सक्षम विधानमंडल सांविधानिक पुस्तक से आईपीसी की धारा 377 को समाप्त करने या उसमें संशोधन करने की जरूरत और औचित्य पर विचार करने के लिए स्वतंत्र है। न्यायालय ने धारा 377 पर मार्च 2012 में हुई सुनवाई को सुरक्षित रखा था और 21 महीने बाद यह फैसला आया है।

उच्चतम न्यायालय के इस फैसले की कड़ी आलोचना हो रही है। कुछ लोग इसे ‘मध्यकालीन’ तो कुछ इसे ‘प्रतिगामी’ करार दे रहे हैं। न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी और न्यायमूर्ति एसजे मुखोपाध्याय की पीठ ने दिल्ली उच्च न्यायालय के उस फैसले को दरकिनार कर दिया जिसमें वयस्कों के बीच पारस्परिक सहमति से बनने वाले समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया था। आईपीसी की धारा 377 के तहत समलैंगिक यौन संबंधों को अपराध माना गया है। इस मामले में दोषी पाए जाने पर उम्रकैद तक की सजा हो सकती है।
पीठ ने विभिन्न सामाजिक और धार्मिक संगठनों की उन अपीलों को स्वीकार कर लिया जिनमें उच्च न्यायालय के फैसले को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि समलैंगिक संबंध देश के सांस्कृतिक और धार्मिक मूल्यों के खिलाफ हैं। समलैंगिक अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाले कार्यकर्ताओं, अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल इंदिरा जयसिंह सहित कई संविधान विशेषज्ञों और बॉलीवुड की जानीमानी हस्तियों ने इसे ‘काला दिन’ करार दिया और कहा कि उच्चतम न्यायालय संवैधानिक मूल्यों के प्रसार का ‘मौका चूक गया’।
सरकार ने यह कहते हुए उच्चतम न्यायालय के फैसले पर सतर्कता से प्रतिक्रिया जाहिर की कि वह कानून बनाने के अपने विशेषाधिकार का ‘इस्तेमाल’ करेगी। न्यायालय ने यह कहते हुए विवादास्पद मुद्दे पर किसी फैसले के लिए गेंद संसद के पाले में डाल दी कि मुद्दे पर चर्चा और निर्णय करना विधायिका पर निर्भर करता है। शीर्ष अदालत के फैसले के साथ ही समलैंगिक संबंधों के खिलाफ दंड प्रावधान प्रभाव में आ गया है। जैसे ही फैसले की घोषणा हुई, अदालत में पहुंचे समलैंगिक कार्यकर्ता निराश नजर आए।
पीठ ने कहा कि आईपीसी की धारा 377 को हटाने के लिए संसद अधिकृत है, लेकिन जब तक यह प्रावधान मौजूद है, तब तक न्यायालय इस तरह के यौन संबंधों को वैध नहीं ठहरा सकता। फैसले की घोषणा होने के बाद समलैंगिक कार्यकर्ताओं ने कहा कि वे शीर्ष अदालत के फैसले की समीक्षा की मांग करेंगे। न्यायालय ने समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने वाले उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ समलैंगिकता विरोधी कार्यकर्ताओं और सामाजिक तथा धार्मिक संगठनों द्वारा दायर याचिकाओं पर आदेश पारित किया।
उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि पुलिस द्वारा धारा 377 का दुरुपयोग उस कानून को निरस्त करने या संशोधित करने का आधार नहीं हो सकता जिसके तहत समलैंगिक यौन संबंध एक अपराध है। शीर्ष न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि भारत की संसद या विधानमंडलों द्वारा लागू किए गए कानून की वैधानिकता तय करने के लिए विदेशी कानून ‘आंखें मूंद कर’ लागू नहीं किए जा सकते। न्यायालय ने कहा कि विदेशों में सुनाए गए फैसले एलजीबीटी समुदाय के अधिकारों के विभिन्न पहलुओं पर रोशनी डाल सकते हैं और वे सूचनाप्रद भी हो सकते हैं पर उन्हें यहा नहीं लागू किया जा सकता।
न्यायालय के इस फैसले से कार्यकर्ताओं में काफी रोष देखा गया। अदालत में मौजूद कई कार्यकर्ता तो रो पड़े। शाम में एलजीबीटी समुदाय के सैकड़ों लोगों ने जंतर-मंतर पर धरना-प्रदर्शन किया।
न्यायालय के फैसले पर केंद्रीय कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा कि सरकार समलैंगिक रिश्तों से संबंधित कानून पर विचार करेगी और अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल करेगी। सिब्बल ने संसद के बाहर संवाददाताओं से कहा कि यह सर्वोच्च न्यायालय का विशेषाधिकार है कि वह कानून की वैधता और वैधानिकता का फैसला करे। सरकार सर्वोच्च न्यायालय की राय का सम्मान करेगी। उन्होंने अपने विशेषाधिकार का प्रयोग किया है। हम अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करेंगे। संसद में इस मामले पर कितनी जल्द बहस की जाएगी पूछने पर सिब्बल ने कहा कि अगर संसद चलती है, तो हम इस मुद्दे को उठा सकेंगे। कुछ अन्य सांसदों ने भी भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 को अपराध की श्रेणी से हटाए जाने की जरूरत की बात कही। आईपीसी की धारा 377 के तहत समलैंगिक रिश्ता प्रकृति विरोधी है, तथा अपराध की श्रेणी में आता है।
समलैंगिक कार्यकर्ता अशोक राव कवि ने कहा कि इस फैसले से हम एक पायदान पीछे चले गए हैं। हम सिर्फ समाज में विस्तृत अधिकार की मांग कर रहे हैं। यह सिर्फ समलैंगिकों का पक्ष है। कार्यकर्ता सोहिनी घोष ने कहा कि यह एलजीबीटी समुदाय के खिलाफ न सिर्फ धोखा है, बल्कि यह संविधान के मूल्यों के साथ भी धोखा है। हम सिर्फ यह कहना चाहते हैं कि यह लड़ाई जारी रहेगी और हम कड़वे अंत तक लड़ाई जारी रखेंगे। हमसफर ट्रस्ट के पल्लव पटनकर ने कहा कि यह फैसला इस समुदाय के लिए बड़ा झटका है। उन्होंने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय ने यह मामला संसद के समक्ष रखा है, सर्वोच्च न्यायालय में यह मामला इसलिए भेजा गया था क्योंकि संसद ने समलैंगिकता के मसले पर चर्चा से इनकार कर दिया था। इस मसले पर ध्यान देना जरूरी है।

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