संस्‍कृति, सियासत और सेक्‍शन 377
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संस्‍कृति, सियासत और सेक्‍शन 377

देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस इन दिनों समाज में गे और लेस्बियन संबंधों को कानूनी मान्यता देने के पक्ष में मुखर नज़र आ रही है। ऐसी मुखरता तो महंगाई और भ्रष्टाचार जैसे आम आदमी से जुड़े मुद्दों पर भी नज़र नहीं आई।

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वासिंद्र मिश्र
संपादक, ज़ी रीजनल चैनल्स
देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस इन दिनों समाज में गे और लेस्बियन संबंधों को कानूनी मान्यता देने के पक्ष में मुखर नज़र आ रही है। ऐसी मुखरता तो महंगाई और भ्रष्टाचार जैसे आम आदमी से जुड़े मुद्दों पर भी नज़र नहीं आई। सेक्शन 377 पर हाईकोर्ट के जवाब मांगने पर भी कांग्रेस में इतना उत्साह नज़र नहीं आया था जितना सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद नज़र आ रहा है।
साल 2008 में दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार से इस मसले पर राय जानने की कोशिश की थी, उस वक्त केंद्र सरकार का जवाब था कि गे संबंध पूरी तरह अनैतिक हैं और इससे सामाजिक मूल्यों की हानि होगी। केंद्र सरकार की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में भी पहले इसे अनैतिक ही करार दिया गया था, हालांकि बाद में केंद्र सरकार ने अपना स्टैंड बदल लिया। अब जब सुप्रीम कोर्ट सेक्शन 377 को संवैधानिक करार देते हुए गे संबंधों को गैरकानूनी करार दे चुकी है तो केंद्र सरकार के नुमाइंदे अपने बदले हुए स्टैंड के तहत इसे गलत करार देने में लगे हुए हैं।
इससे ये अंदाजा लगाना ज्यादा मुश्किल नहीं है कि कांग्रेस में इस मसले को लेकर जबरदस्‍त कन्‍फ्यूजन है। अचानक गे संबंधों को कानूनी करार देने के लिए मानवाधिकार की बातें की जाने लगी है। दरअसल माजरा थोड़ा सा सियासी है, वास्तव में राहुल गांधी और सोनिया गांधी का मानवाधिकार प्रेम, दिल्ली में आम आदमी पार्टी के जरिए मिली शर्मनाक हार का परिणाम है। इस हार के दवाब के चलते आने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र देश की सबसे पुरानी पार्टी देश के सामाजिक मूल्यों के साथ खिलवाड़ करने को भी तैयार है। सेक्शन 377 का विरोध करने वाले लोगों को एक बार ये सोचना चाहिए कि इसका भारत के सामाजिक ताने बाने पर क्या असर पड़ेगा। कई देशों में प्रॉस्टीट्यूशन गैर कानूनी नहीं माना जाता लेकिन भारत में है। भारत में प्रॉस्टीट्यूशन गैरकानूनी होते हुए भी रेड लाइट एरियाज़ बंद नहीं हुए हैं। ऐसे में क्या इसे कानूनी तौर पर मान्यता दी जानी चाहिए?
ठीक वैसे ही भारतीय समाज में ऐसे संबंधों में जीने वाले लोग हमेशा से हैं तो क्या इनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई होती है? दरअसल राज्यों के हिसाब से कई कानून को कई बार लचीला बना दिया जाता है और सेक्शन 377 भी उन्हीं कानूनों में से एक है जिस पर हमेशा लचीला रवैया अपनाया गया है। ऐसे में आईपीसी से सेक्शन 377 को हटाने की जरूरत ही क्यों है? आखिर क्यों इसे भी अनदेखा नहीं किया जा सकता? क्यों इस बात पर बहस की जा रही है कि गे और लेस्बियन संबंधों को कानूनी मान्यता दे दी जाए? क्या ये सच नहीं है कि इसे कानूनी दर्जा मिलने के बाद समाज में इसे बढ़ावा मिलेगा? क्या इससे सामाजिक संतुलन नहीं बिगड़ेगा? क्या समय बीतने के साथ इससे लिंगानुपात पर असर नहीं पड़ेगा?
ऐसा तो एनिमल सोसायटी में भी नहीं होता। वैसे भी इस पर राजनीतिक से ज्यादा सामाजिक बहस की ज़रूरत है और इस बहस में शॉर्ट टर्म फायदे, राजनीतिक स्वार्थ को जगह नहीं मिलनी चाहिए। कांग्रेस पार्टी के 127 साल के इतिहास पर नज़र डालें तो पार्टी अपने अब तक के सबसे बुरे, सबसे ज्यादा कन्‍फ्यूजन के दौर से गुजर रही है। ऐसा लगता है कि पार्टी में किसी भी विषय पर फैसला लेने का सामर्थ्य खत्म हो गया है। पार्टी में लीडरशीप, आइडियोलॉजिकल, मॉरल बैंकरप्‍सी है। पार्टी के लिए इतना बुरा वक्त तो इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की अचानक हत्या के बाद भी नहीं आया था। पार्टी के सबसे कमजोर माने जाने वाले अध्यक्ष सीताराम केसरी के कार्यकाल में भी पार्टी की ऐसी हालत कभी नहीं हुई। यहां तक कि नरसिंह राव ने जब पार्टी की कमान संभाली तब भी पार्टी इससे बेहतर हालात में थी।

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जिस तरह से कांग्रेस पार्टी धारा 377 को लेकर अपना स्टैंड बदलती रही है, लोकपाल बिल पर भी कांग्रेस का रवैया जनता के मूड के अनुसार बदलता रहा। पहले कांग्रेस लोकपाल बिल की मांग को इनसिग्निफिकेंस बताकर टालती रही लेकिन जब इस बिल से जनभावना जुड़ी तो लोकपाल लाने के लिए कांग्रेस ने गंभीरता दिखानी शुरू कर दी।
लोकपाल बिल तो एक नज़ीर है, कांग्रेस पार्टी का कमोबेश यही नज़रिया देश के हर बर्निंग इशु पर नज़र आता है। बड़े-बड़े घोटालों का पर्दाफाश करने वाली रिपोर्ट्स को कांग्रेस ने शुरुआती दौर में नकारा लेकिन बाद में जब हो हल्ला मचा और कांग्रेस को लगा कि जनता इस मसले पर उसके खिलाफ हो सकती है तो आनन-फानन में जांच हुई और कई नेता जेल चले गए। भ्रष्टाचार से लोग परेशान तो थे ही लेकिन महंगाई, बेरोजगारी जैसे मसलों पर भी कांग्रेस का रवैया शर्मनाक, अफसोसजनक और टालमटोल वाला ही रहा है। पार्टी ऐसे मुद्दों पर अक्सर जनता को गुमराह करने की कोशिश करती ही नज़र आई है, लेकिन सेक्शन 377 पर अपना पक्ष रखने में कांग्रेस ने जरा भी देर नहीं की और पहली कतार के सभी नेता एक सुर में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर अफसोस जताने लगे वो भी तब, जब सुप्रीम कोर्ट ने मौजूदा कानून की व्याख्या मात्र की है।
जिस महात्मा गांधी का नाम लेकर कांग्रेस पार्टी राजनीति कर रही है, उन्होंने कभी भी भारतीय संस्कृति और मूल्यों से समझौता नहीं किया। महात्मा गांधी ने हमेशा सत्य, अहिंसा, शुचिता के रास्ते पर चलते हुए देश के लिए लड़ाई लड़ी। महात्मा गांधी हमेशा भारतीय मूल्यों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध थे लेकिन महात्मा गांधी के नाम की राजनीति करने वाली कांग्रेस पार्टी मानवाधिकार के नाम पर ऐसी सामाजिक बुराई को कानूनी और सामाजिक मान्यता दिलाने पर आमादा है जिसे कांग्रेस पार्टी के संस्थापक रहे लोगों ने कभी तरजीह नहीं दी।

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