राहुल की ताजपोशी और कांग्रेस की चुनौतियां
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राहुल की ताजपोशी और कांग्रेस की चुनौतियां

राजनीतिक रूप से शक्तिशाली नेहरु-गांधी परिवार की चौथी पीढ़ी के उत्तराधिकारी 43 वर्षीय राहुल गांधी को जयपुर चिंतन शिविर में मंथन के बाद कांग्रेस पार्टी का उपाध्यक्ष मनोनीत किया गया है। पार्टी में इस पदोन्नति के साथ राहुल गांधी की जिम्मेदारी और जवाबदेही दोनों में इजाफा हुआ है।

प्रवीण कुमार
अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गुलाबी चिंतन के नतीजों से पार्टी के तमाम नेता, कार्यकर्ता, प्रशंसक और समर्थक खासे उत्साहित हैं। उत्साहित होने की वजह भी है। वजह यह कि चिंतन शिविर के समापन के बाद कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में राहुल गांधी को पदोन्नत कर एक अहम जिम्मेदारी का पद (पार्टी उपाध्यक्ष) सौंपने का फैसला लिया गया। अब राहुल गांधी पार्टी महासचिव नहीं, बल्कि पार्टी उपाध्यक्ष की हैसियत से कामकाज देखेंगे। कहने का मतलब यह कि गुलाबी शहर जयपुर में हुई गुलाबी चिंतन के झंडाबरदार होंगे राजनीतिक रूप से शक्तिशाली नेहरु-गांधी परिवार की चौथी पीढ़ी के उत्तराधिकारी 43 वर्षीय राहुल गांधी।
कांग्रेस नेतृत्व की अग्रिम पंक्ति में पहुंचने वाले पार्टी के ‘यूथ आइकन’ एवं भविष्य के प्रधानमंत्री के रूप में देखे जा रहे राहुल गांधी के समक्ष पार्टी का जनाधार बढ़ाने और युवा मतदाताओं की बढ़ती संख्या को पार्टी के पक्ष में करने का चुनौतीपूर्ण कार्य होगा। हालांकि इस बात के संकेत कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पहले ही दिन चिंतन शिविर के अपने उद्घाटन भाषण में यह कहकर दे दिए कि देश बदल रहा है और इस बदलाव में युवाओं की आवाज की अनदेखी कर हम आगे नहीं बढ़ सकते हैं। सोनिया ने कहा, ‘युवा बढ़ रहे हैं। भारत बदल रहा है। हमें भी खुद को बदलना होगा। यह पीढ़ी चाहती है कि उसकी आवाज सुनी जाए।‘
निश्चित रूप से 125 साल पुरानी और देश की सबसे बड़ी व ऐतिहासिक कांग्रेस पार्टी में इस पदोन्नति के साथ राहुल गांधी की जिम्मेदारी और जवाबदेही दोनों में इजाफा हुआ है। क्योंकि अब तक राहुल महासचिव का पद संभाल रहे थे। कांग्रेस में कुल 10 महासचिव हैं। पदोन्नति के बाद राहुल का ओहदा इन महासचिवों से ऊपर का हो गया है। साथ ही घोषित रूप से पार्टी में नंबर-2 की भूमिका भी। पार्टी का उपाध्यक्ष मनोनीत होने के बाद राहुल ने अपनी पहली प्रतिक्रिया में विश्वास जताया है कि वह कांग्रेस को बदल सकते हैं।
कांग्रेस उपाध्यक्ष बनाए जाने से पहले अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव राहुल गांधी ने वर्ष 2009 में संप्रग को सत्ता में लाने और उत्तर प्रदेश में पार्टी के पुनरुत्थान में मदद करने लिए अपने अभिभावक नेताओं की छत्रछाया से उबरते हुए खुद के राजनीतिक कद में बढ़ोतरी की थी। उन्होंने वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को अप्रत्याशित खुशी दिलाई और अब पार्टी केंद्र में तीसरी बार सत्ता में लौटने के लिए उनकी ओर देखने की जुगत भिड़ा रही है। कहते हैं कि बड़े ओहदे के साथ बड़ी जिम्मेदारियां भी आती हैं। राहुल गांधी कांग्रेस के उपाध्यक्ष चुन लिए गए हैं और उनकी ताजपोशी के बाद अब उनके सामने चुनौतियों की लंबी फेहरिस्त भी है।
राहुल के लिए पहली चुनौती बढ़ती महंगाई पर देश के लोगों को जवाब देना होगा। पेट्रोल और डीजल को बाजार के हवाले कर यूपीए सरकार ने अपने पैर में खुद ही कुल्हाड़ी मार ली है। रेलवे का यात्री किराया भी बढ़ा दिया गया है बिना कोई सहूलियत दिए। मालभाड़ा भी आगामी बजट में बढ़ाकर रही-सही कसर को पूरी कर देगा। ऐसे में राहुल के लिए इस बढ़ती महंगाई को नियंत्रित करना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन होगा।
सोनिया गांधी शायद इस मुगालते में जी रहीं हैं कि बजट सत्र में खाद्य सुरक्षा बिल लाकर देश के हर नागरिक को भोजन की गारंटी योजना का लाभ देकर मिशन-2014 की महफिल लूट लेंगे। लेकिन इस बात की संभावना कम ही नजर आती दिख रही है कि इसमें कोई बड़ी सफलता कांग्रेस के हाथ लगेगी। गौर करने की बात यह भी है कि चिंतन शिविर में सोनिया ने जो पांच नाकामियां गिनाईं हैं उनमें महंगाई की दूर-दूर तक चर्चा नहीं थी। संभव है हाल के विधानसभा चुनाव के नतीजों से सोनिया ने यह अनुमान लगा लिया होगा कि आगामी चुनाव में महंगाई कोई मुद्दा नहीं होगा।

राहुल के लिए दूसरी अहम चुनौती पार्टी नेता व सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को जनता के बीच जाकर झुठलाना होगा। कोल ब्लॉक आवंटन का मामला हो या 2जी स्पेक्ट्रम का स्कैम हो, कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला हो या फिर वाड्रा-डीएलएफ के बीच भूमि घोटाला हो, इस सब पर सरकार व कांग्रेस पार्टी की संदिग्ध भूमिका को लेकर देश के मतदाताओं को आश्वस्त करना होगा कि यह सब विपक्ष की गढ़ी कहानी है। हालांकि यह कोई आसान काम नहीं होगा। हाल के आंदोलनों में अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल और बाबा रामदेव ने पार्टी के खिलाफ माहौल बिगाड़ने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है और आगे भी इस तरह के खतरे बरकरार हैं। कालाधन का भूत भी रह-रहकर कांग्रेस को परेशान कर रहा है।
घटते जनाधार को लेकर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी अपनी चिंता जताई है। देश के बड़े हिस्से में कांग्रेस की मौजूदगी को बढ़ाना भी राहुल के सामने तासरा बड़ी चुनौती होगी क्योंकि 28 राज्यों में से 18 में तो कांग्रेस की सरकार ही नहीं है। इसके अलावा उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में अनुसूचित जाति व जनजाति और अल्पसंख्यक वोट बैंक में सपा और बसपा ने सेंध लगाई है। दूसरी तरफ कर्नाटक में कांग्रेस के परंपरागत मतदाता भाजपा की ओर खिसक गए हैं। यह पार्टी के लिए बड़ी चिंता का सबब है। जाहिर सी बात है कि पार्टी को सत्ता में आना है तो कुछ बड़े हिन्दी प्रदेश और कर्नाटक व आंध्रप्रदेश जैसे दक्षिणी राज्यों में दोबारा से पार्टी को अपनी साख बनानी पड़ेगी।
इसके अलावा संगठन के तौर पर भी कांग्रेस को खुद को और मजबूत करना होगा। क्योंकि गुजरात, उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश जैसे प्रदेशों में कांग्रेस नेता व कार्यकर्ता केंद्र सरकार की अच्छी कल्याणकारी योजनाओं को भुना नहीं पाए। इसके लिए कहीं न कहीं संगठन के स्तर पर पार्टी की कमजोरी साफ झलकती हैं। राहुल गांधी को इसके पीछे की दिक्कतों को समझना होगा वरना सारी कवायद धरी की धरी रह जाएगी। सोशल मीडिया का बढ़ता दखल और देश में असुरक्षित महिलाओं को लेकर भी पार्टी को अपनी नीति साफ करनी होगी। दिल्ली गैंगरेप की घटना से देश के इतिहास में पहली बार महिलाओं का गुस्सा जिस तरह से जन आंदोलन की शक्ल लिया और इसमें सोशल मीडिया की जिस तरह से अहम भूमिका दिखी इससे साफ है कि इसे हल्के में लेना कांग्रेस के लिए मिशन-2014 में खतरे की घंटी होगी।
चलते-चलते एक और काफी अहम बात यह कि आगामी लोकसभा चुनाव के जो नतीजे आएंगे, भरोसे के साथ यह नहीं कहा जा सकता है कि किसी एक दल कांग्रेस या भाजपा को पूर्ण बहुमत आ जाए। इस परिस्थिति में अभी से गठबंधन धर्म के गणित पर मशक्कत करनी होगी। इस गणित में कांग्रेस को ज्यादा ही मेहनत करने होंगे क्योंकि अगर कांग्रेस राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के तौर पर पेश करती है तो यूपीए के कई ऐसे सहयोगी अलग हो सकते हैं जिनका साथ कांग्रेस को अभी भी मिल रहा है। मसलन राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष और यूपीए-2 की सरकार में कृषि मंत्री शरद पवार किसी भी सूरत में राहुल के नीचे खुद को सहज नहीं पाएंगे। क्योंकि पवार से जब राहुल को मिली नई जिम्मेदारी और उनके नेतृत्व में काम करने के मुद्दे पर सवाल पूछा गया तो पवार का कहना था कि हमारी पार्टी में अभी ऐसी नौबत नहीं आई है कि हमें सुप्रिया सुले के नेतृत्व में काम करना पडे़। ममता की तृणमूल कांग्रेस पहले ही अलग हो चुकी है। सपा-बसपा पर भरोसा किया नहीं जा सकता है। डीएमके भी बार-बार पैंतरे दिखाती रहती है। ऐसे में राहुल गांधी को समय रहते अपने मिजाज के सहयोगी तलाशने होंगे तभी मिशन-2014 की नैया पार लग पाएगी।

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