‘समाजवाद’ का सियासी चेहरा!
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‘समाजवाद’ का सियासी चेहरा!

उत्तर प्रदेश की प्रशिक्ष आईएएस अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल, जिसे उत्तर प्रदेश की सपा सरकार ने निलंबित कर दिया है को लेकर देश में सियासी हंगामा खड़ा हो गया है। समाजवादी पार्टी की सरकार के इस फैसले से समाजवाद का सियासी चेहरा भी सामने आ गया है।

वासिन्द्र मिश्र
साल 2014 के आम चुनाव को नजदीक आते देख देश में एक बार फिर से वोटों के सौदागरों के बीच जंग तेज होती जा रही है। एक तरफ बहुसंख्यक समाज के हितों की दुहाई देने वाली पार्टी है तो दूसरी तरफ उसके मुकाबले तमाम ऐसी छोटी-बड़ी जमातें, जो परिवारवाद और जातिवाद की नींव पर खड़ी हैं और छद्म धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देते हुए सामाजिक ताने-बाने और गंगा-जमुनी तहज़ीब को तार-तार करने पर उतारु हैं।
ताज़ा मामला दुर्गा शक्ति नागपाल का है, जिसे उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार ने एक संप्रदाय विशेष के कथित पूजा स्थल की दीवार को गिरवाने का आरोप लगाकर निलंबित कर दिया है। देश के राजनीतिक दल, सामाजिक संगठन या कोई व्यक्ति, अगर संविधान और कानून की परवाह किए बगैर वोट की राजनीति करता है, तो उसे एक बार माफ किया जा सकता है, लेकिन जब संविधान की शपथ लेकर सत्ता में आई पार्टी ही, संविधान और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की धज्जियां उड़ाते हुए वोट बैंक बढ़ाने में जुट जाए तो फिर देश का क्या होगा और क्या इस तरह के कामों में जुटी सरकार या शासन को कानून का शासन कहा जा सकता है?
देश की मौजूदा नौजवान पीढ़ी और लगभग सभी गैर समाजवादी पार्टी, राजनैतिक दल दुर्गा नागपाल के साथ खड़े हैं। सरकार को शायद The Place Of Worship (Special provisions) act 1991 और 2009 में Union of India versus State of Gujarat and Others मामले में सुप्रीम कोर्ट की तरफ से पारित आदेश की भी संभवत: पूरी जानकारी नहीं है। अगर ऐसा होता तो एक संप्रदाय विशेष के वोट के लिए उत्तर प्रदेश की सरकार एक कर्मठ प्रशासनिक अधिकारी के खिलाफ दमनात्मक कार्रवाई नहीं करती।
दुर्गा शक्ति नागपाल को उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोएडा के कादलपुर गांव की ग्राम सभा की ज़मीन पर अवैध तरीके से बन रही मस्जिद की दीवार गिराने के तथाकथित आदेश की सज़ा मिली और आनन-फानन में सरकार ने बिना यथास्थिति की जानकारी लिए एसडीएम को निलंबित कर दिया। बाद में जब जिलाधिकारी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि दुर्गा शक्ति नागपाल ने दीवार गिराने के आदेश ही नहीं दिए थे तो ये कहा जाने लगा कि जिलाधिकारी ने रिपोर्ट समय से नहीं दी, अगर ऐसा होता तो सरकार किसी भी कार्रवाई से पहले विचार करती। हालांकि कई जगह स्थानीय लोगों के हवाले से ये रिपोर्ट्स भी सामने आईं कि उनके गांव में सांप्रदायिक तनाव के हालात बने ही नहीं थे। ना तो उस दीवार के गिराने से पहले ना ही बाद में। सरकार इस मसले पर कहती रही है कि उनके पास स्थानीय इंटेलीजेंस की जानकारी थी कि इलाके में तनाव फैल सकता है।
अगर सरकार के तर्क को ही सही माना जाए तो सवाल ये उठता है कि बिना जिलाधिकारी की रिपोर्ट के एक प्रशासनिक अधिकारी को निलंबित कैसे कर दिया गया, आखिर इतनी जल्दी क्या थी? वहीं इसी हफ्ते पुराने लखनऊ के कई इलाकों में एक ही संप्रदाय के दो फिरकों के बीच हुए दंगों समेत पिछले सवा साल में दर्जन भर जिलों में हुए सांप्रदायिक दंगों के पहले इतनी मुस्तैदी क्यों नहीं दिखाई गई और दंगों के दौरान वहां तैनात कितने पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की गई।
2009 में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक किसी भी सार्वजनिक सड़क, पार्क या फिर जगहों पर किसी भी तरह का धार्मिक निर्माण नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने 29 सितंबर 2009 को दिए गए अपने इसी फैसले में निर्देश दिए थे कि जिलाधिकारी इस आदेश का पालन कराएं।
अगर हम राज्य सरकार की दलीलों को ही सही मानें तो भी दुर्गा शक्ति नागपाल ने सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का ही पालन कराया है। ऐसे में एसडीएम दुर्गा शक्ति नागपाल के काम को लेकर प्रोत्साहित करने के बदले उन्हें निलंबित करना सरकार की कार्यशैली पर ही सवाल खड़े करता है।
(लेखक ज़ी रीजनल चैनल्स (हिंदी) के संपादक हैं)

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