बेबसी-लाचारी और तकलीफ से मजदूर पिसा जा रहा है, लेकिन सियासतदानों को दुकान चमकाने में मजा आ रहा है. भला इस गंदी सियासत में कोई और कितना गिर सकता है आपको इस खास रिपोर्ट के जरिए समझाते हैं...
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नई दिल्ली: मजदूर की पीड़ा देखकर हर किसी का कलेजा फूट-फूटकर रोने लगता है, बेबसी और लाचारी की तस्वीरें हर किसी को परेशान करती हैं. इंसान कितनी जद्दोजहद कर रहा है. कोरोना की महामारी ने अच्छी खासी चलती ज़िंदगी को कतारों में ला खड़ा किया है. ऐसा लगता है जैसे प्रवासी मजदूरों का दर्द एक शहर से अपने शहर तक का नहीं है बल्कि एक जन्म से दूसरे जन्म तक का है. लेकिन सियासी घोड़े की सवारी करने वालों को मजा आ रहा है.
सरकार का ऑफिशियल डेटा बताता है कि देश में करीब 8 करोड़ प्रवासी मजदूर हैं. घर लौटने के दौरान अब तक अलग अलग हादसों में करीब 100 से ज्यादा प्रवासी मजदूर अपनी जान गवां चुके हैं. लेकिन कुछ नेताजी लोगों को तो इस लॉकडाउन में भी सियासत ही सूझ रही है. कहां तक कोई इस मुश्किल दौर में एकजुटता दिखाते हुए समस्या से डटकर मुकाबला करने पर विचार करता, लेकिन चुनाव में तो मजदूरों के वोट बंटोरने और रोटियां सेंकने की होड़ मची हुई है.
दुख और दर्द की गठरी सिर पर उठाए प्रवासी मजदूर, उनका असंतोष और लाचारी से उपजी खीझ राजनीति का विस्फोटक मैटेरियल है. लिहाजा राजनीति चालू है, कांग्रेस जहां यूपी सरकार पर प्रवासी मजदूरों की अनदेखी का आरोप लगाती है तो वहीं राजस्थान-पंजाब-महाराष्ट्र में प्रवासी मजदूरों के हाल में खामोश रह जाती है.
उत्तर प्रदेश में चल रही सियासी कलह किसी से छिपी नहीं है, बसों को लेकर उत्तर प्रदेश की योगी सरकार और कांग्रेस पार्टी के बीच दो-दो हाथ का सिलसिला जारी है. कांग्रेस को इस माहौल में अपनी सियासत चमकाने की इतनी तलब लगी है कि इसके लिए वो अपनी राज्य सरकारों का भी इस्तेमाल कर रही है. राजस्थान सरकार के वाकये से ये समझना आसान हो जाता है.
सियासत चीज ही ऐसी है कि जहां देखों वहां बवाल कांड शुरू हो जाता है. तभी तो कांग्रेस की सुपुत्री प्रियंका गांधी ने योगी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला और बस पॉलिटिक्स शुरू की तो राजस्थान की गहलोत सरकार ने जबरदस्त हाथ बटाया.
महाराष्ट्र में प्रवासी मजदूरों की संख्या करीब 35 लाख है. ज्यादातर मजदूर यूपी, बिहार, झारखंड से हैं. इसके अलावा पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के मजदूर भी हैं. महाराष्ट्र सरकार का दावा है कि अब तक करीब 5 लाख मजदूर घर भेजे जा चुके हैं.
दरअसल, रेड ज़ोन वाले इलाकों से प्रवासी मजदूरों के घर वापसी राज्य सरकारों को थोड़ा डरा भी रही है. क्योंकि इससे राज्यों में कोरोना संक्रमितों की संख्या में इजाफा हो रहा है.
बिहार के अलग अलग हिस्सों में महाराष्ट्र, बंगाल, दिल्ली जैसे शहरों से आए प्रवासी मजदूरों को क्वारंटीन में रख रही है. लेकिन कई जगहों पर इंतजाम को लेकर सवाल भी खड़े हो रहे हैं. लेकिन जैसे प्रवासियों की वापसी हो रही है, राजनीति भी गरमाती जा रही है. आंकड़ों की माने तो बिहार के प्रवासी लोगों की संख्या तकरीबन 20 लाख के आस पास है. सबसे खास बात ये है कि बीते 1 मई से अब तक करीब साढ़े तीन लाख प्रवासी बिहार पहुंच चुके हैं. अलग-अलग जगहों पर इन्हें क्वारंटीन भी किया गया है.
ऐसे में बिहार में सियासत का पारा हाई होना वाजिब था, राजनीति तेज हो गई है और विपक्ष ने ये मुद्दा उठाया कि जितने लोग घर वापस आना चाहते हैं उनको सरकार वापस लाने में विफल हो गई है, कांग्रेस भी आरजेडी के सुर में सुर मिला रही है.
इस बीच जो सबसे अजीब बात सामने आ रही है, वो मजदूरों का फायदा उठाने और उसके कंधे पर बंदूक रखकर चलाने का मसला है. बिहार में प्रवासी मजदूरों के असंतोष को सियासी रूप देने के लिए कोशिशें तेज हो चुकी है. लालू की पार्टी आरजेडी तो बाकायदा अपने कार्यकर्ताओं को ये जिम्मा दिया है कि सूबे के अधिक से अधिक प्रवासी मजदूरों को पार्टी का सदस्य बनाया जाए. यानी इस मसले पर सियासी दुकान चमकाई जाए और गर्म लोहे पर हथौड़ा मारा जाए. प्रवासी मजदूरों के आक्रोश और बेबसी को सियासी रंग देने की कोशिश शुरू हो गई है.
इमोशनंस को राजनीति का एक बड़ा जरिया बनाने का प्रयास किया जा रहा है. कोरोना के कहर कब समाप्त होगा, ये कहना वाकई बेहद कठिन और मुश्किल है. लेकिन सियासी बाजार में मजदूरों के मजबूरी का मेला लगा रहेगा.
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विपक्ष हो या सरकार हर कोई खुद को मजबूत करने के फिराक में लगा है. मजदूर मर रहे हैं, मजबूर सिसक रहे हैं. उनके अपने बिलख और तड़प रहे हैं. लेकिन, सियासी सवारी करने वालों के दिमाग में सिर्फ तिकड़म चलता है कि दुकान कैसे चमकाई जाए.
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