बैकफुट पर नीतीश कुमार
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बैकफुट पर नीतीश कुमार

नीतीश कुमार का इस्तीफा लोकसभा चुनाव में हार की नैतिक जिम्मेदारी कम, खुद के अहंकार को तुष्ट करने और कई स्वार्थ को सिद्ध करना अधिक लग रहा है। मोदी विरोध की राजनीति ने नीतीश कुमार को बैकफुट पर ला दिया है। समय रहते नीतीश कुमार को समझना होगा कि वोट बैंक की राजनीति का दौर अब खत्म हो चुका है।

लोकसभा चुनाव-2014 में भाजपा नीत एनडीए को मिली भारी जीत के बाद बिहार में राजनीतिक भूचाल को दो रूपों में देखा जा रहा है। पहला मुख्यमंत्री पद से नीतीश कुमार का इस्तीफा और दूसरा जीतन राम मांझी के नेतृत्व में बनी जेडीयू की सरकार को बिना शर्त दिया गया समर्थन है। जहां तक मेरी समझ कहती है कि इस पूरे सियासी घटनाक्रम में नीतीश कुमार बैकफुट पर आ गए हैं क्योंकि ताजा जनादेश से मिले संकेत की अनदेखी कर नीतीश विकास की राजनीति से अलग जात-पांत और धर्म-संप्रदाय की राजनीति को प्रश्रय देने में जुट गए हैं। आपको बता दें कि लोकसभा चुनाव-2014 में नीतीश की पार्टी जनता दल यूनाइटेड को मात्र सीटें दो मिली हैं। वहीं भाजपा गठबंधन को बिहार की कुल 40 में से 31 सीटों पर जीत हासिल हुई है। मोदी विरोध की राजनीति ने नीतीश कुमार को बैकफुट पर ला दिया है।

आगे बढ़ने से पहले यहां नीतीश कुमार का वह वक्तव्य जानना जरूरी होगा जो राज्यपाल को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा सौंपने के बाद आयोजित एक संवाददाता सम्मेलन में सुनाया। चुनाव में मिली हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए नीतीश ने अपने इस्तीफे की घोषणा करते हुए कहा, 'जनता ने स्पष्ट जनादेश दिया है, हम उसका सम्मान करते हैं। हमने अपना अभियान मुद्दों पर केंद्रित किया और उसी के आधार पर लोगों के पास समर्थन मांगने गए थे। हमें अपेक्षित समर्थन नहीं मिला। इसकी नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए मैंने त्यागपत्र दिया है। हमने तो गुडबाय कह दिया, अब जिसे जो करना है वह करे।' नीतीश के इस वक्तव्य पर अगर गौर करें तो यह इस्तीफा हार की नैतिक जिम्मेदारी कम, खुद के अहंकार को तुष्ट करने और कई स्वार्थ को सिद्ध करने जैसा दिख रहा है।

लोकसभा चुनाव में नीतीश को मिली करारी हार का अंदाजा उसी दिन लग गया था जब भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की घोषणा की थी और उसके बाद नीतीश ने धर्मनिरपेक्ष राजनीति के सिद्धांत की दुहाई देते हुए खुद को एनडीए से अलग कर लिया था। उसके बाद यह कहकर कि वह बिहार की मिट्टी में दफन हो जाएंगे पर एनडीए में नहीं लौटेंगे का बयान देकर नीतीश ने यह जताने की कोशिश की कि उनका राजनीतिक अहंकार सातवें आसमान पर है जिसे कई चुनावी रैलियों में नरेंद्र मोदी ने उल्लेख भी किया। एक बात यहां और कि जिस लालू यादव के अराजक शासन के खिलाफ सुशासन के वादे को लेकर बिहार की जनता ने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया आज वही नीतीश लालू से हाथ मिला बैठे। कहीं न कहीं नीतीश की इस नौटंकी को बिहार की जनता देख रही है और इसका खामियाजा आगामी विधानसभा चुनाव में नीतीश को भुगतना पड़ेगा।

एक व्यक्ति विशेष को मुद्दा बनाकर खुद के अहंकार को तुष्ट करने के लिए नीतीश का भाजपा से अलग होने का फैसला प्रदेश की जनता को बुरा लगा और इसी का परिणाम था कि आम चुनाव में जनता दल यू को करारी हार का सामना करना पड़ा। अब नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने से पहले नीतीश का बिहार के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना सिर्फ हार की नैतिक जिम्मेदारी नहीं मानी जानी चाहिए। इस इस्तीफे से नीतीश ने कर्इ स्वार्थ भी सिद्ध करने की कोशिश की है। आखिर नीतीश ने इस्तीफा क्यों दिया?

बिना किसी लाग लपेट के कहें तो नीतीश ने इस्तीफा सिर्फ इसलिए दिया कि एक प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर उन्हें देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से प्रोटोकॉल के तहत हाथ ना मिलाना पड़े। दरअसल नीतीश ने एनडीए में रहते हुए कभी भी नरेंद्र मोदी की हैसियत स्वीकार नहीं की। नरेंद्र मोदी को वह हमेशा अपना प्रतिद्वंद्वी मानते रहे। मोदी के विकास मॉडल को नीतीश ने कभी स्वीकार नहीं किया क्यों कि नीतीश बिहार के विकास मॉडल को गुजरात से सुपर मानते हैं। इस तरह की दुराग्रह पूर्ण राजनीति को नीतीश ने मन में बिठा लिया था और इसी वजह से धर्मनिरपेक्ष राजनीति की आड़ में भाजपा से 17 साल पुराना
रिश्ता तोड़ लिया था।

दरअसल राजनीति में कोई यह कहे कि मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा देकर हम हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हैं तो इस तरह की नैतिकता के अर्थ अब खोखले हो चुके हैं। इस तरह से देखा जाए तो फिर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को भी अपना-अपना इस्तीफा दे देना चाहिए था और अपना उत्तराधिकारी पेश करना चाहिए था। नीतीश की यह नैतिकता पूरी तरह से राजनीति से प्रेरित है। धनबल से चुनाव जीतकर आना वाला कोई भी नेता इस दौर में नैतिकता की दुहाई दे तो यह सरासर बेमानी है।

नीतीश ने हार की नैतिक जिम्मेदारी ली, इस्तीफा दे दिया। जीतन राम मांझी नए मुख्यमंत्री बन गए। पर पार्टी डेढ़ साल बाद नीतीश के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ेगी। साफ है मौजूदा मुख्यमंत्री पूर्व मुख्यमंत्री की प्रतिछाया हैं। विपक्ष नीतीश की इस कवायद को नैतिक मानने से ही इनकार कर रहा है। और सही मायने में यह नैतिकता का उदाहरण है भी नहीं। हां! इसे अपने अहंकार को तुष्ट करने व सहानुभूति पाने की कोशिश के रूप में जरूर देखा जा सकता है। जदयू ने कोई नेतृत्व क्षमता और पार्टी को पुनर्गठित करने के मकसद से जीतन राम मांझी को सत्ता नहीं सौंपी है। यह नैतिकता और सत्ता हस्तांतरण की एक रस्म अदायगी भर है। इसे 'हार के बाद भी राजनीति' का एक नया जतन कह सकते हैं।

राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि लोकसभा चुनाव के दौरान विपक्षी दलों के साथ-साथ पार्टी के अंदर भी जिस तरह के विरोध के स्वर उभरने लगे थे उसे झेल पाना नीतीश के लिए आसान नहीं था। लोकसभा चुनाव के परिणाम जेडीयू की उम्मीदों के अनुरूप नहीं था और विपक्षी दलों द्वारा बराबर उनके इस्तीफे की मांग की जा रही थी। ऐसे में उनके पास इस्तीफे के अलावा कोई और रास्ता नहीं था। इस्तीफा देकर उन्होंने जहां राजनीतिक परिपक्वता का उदाहरण पेश किया है वहीं उन्होंने विपक्षियों और आम लोगों को सत्ता का मोह नहीं होने का संदेश भी दिया है।

16 जून 2013 के बाद जब भाजपा से जेडीयू अलग हुई तभी से नीतीश कुमार सार्वजनिक तौर पर सत्ता के मोह नहीं होने की बात कहते आ रहे थे। ऐसे में विपक्षी उन पर कांग्रेस के समर्थन से सरकार चलाने की बात कहकर उन्हें सत्ता में बने रहने के लिए कुछ भी करने का आरोप भी लगा रहे थे। ऐसे में नीतीश ने इस्तीफे देकर विरोधियों को चुप कराने का प्रयास किया है। दूसरा, नीतीश ने बिहार में नए राजनीतिक समीकरण को जन्म दे दिया है। क्योंकि इस चुनाव में लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल भी बुरी तरह से पस्त हुई है। कहने का तात्पर्य यह कि मोदी और भाजपा के धुर विरोधी दल जेडीयू और राजद ने आपस में हाथ मिला लिया है। सीधी बात करें तो नीतीश और लालू मिलकर बिहार में जहां गैर भाजपावाद की जमीन तैयार कर रहे हैं। ऐसा होना भी लाजिमी है क्योंकि नीतीश और लालू धर्मनिरपेक्ष और सामाजिक न्याय की ही तो उपज हैं।

राजनीतिक पंडित पहले से ही कहते आ रहे थे कि चूंकि बिहार में राजद और जेडीयू भाजपा नीत एनडीए में शामिल हो नहीं सकते हैं। ऐसी स्थिति में अपनी राजनीतिक जमीन को बचाए रखने के लिए दोनों के पास गैरभाजपाई गठबंधन के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं था। डेढ़ साल बाद बिहार में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में सभी दलों को यह भय सता रहा है कि कहीं भाजपा अगले चुनाव में भी क्लीन स्वीप न कर जाए। दरअसल नीतीश यह जान चुके हैं कि सवर्ण वोट उनसे खिसक चुका है। ऐसे में वह नई रणनीति को अंजाम नहीं दे पाए तो उनकी राजनीति ही खत्म हो जाएगी। जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाने के पीछे नीतीश की नजर महादलित के 10 प्रतिशत वोटों पर है।

नीतीश कुमार पर सबसे बड़ा आरोप अड़ियल और स्वार्थी होने का लगता है। कभी-कभी मौकापरस्ती का भी। कहा जाता है कि गायसल रेल हादसे के बाद उन्होंने रेल मंत्री का पद छोड़ दिया था, लेकिन गोधरा कांड के बाद भी वह भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार में बने रहे। दोनों घटनाएं नीतीश के रेल मंत्री कार्यकाल में ही हुई थीं। तीन बार बिहार के मुख्यमंत्री और केंद्र में रेल, कृषि और परिवहन मंत्री रहे नीतीश कुमार हर बार यह सफाई देते नहीं थकते कि गोधरा के समय केंद्र में नरेंद्र मोदी की नहीं, अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी, जो मोदी को 'राजधर्म' सिखा कर आए थे।

बहरहाल, नकारात्मक राजनीति करते-करते नीतीश आज राजनीतिक रूप से बैकफुट पर आ गए हैं। नीतीश को लगता है कि लालू यादव की मुस्लिम-यादव समीकरण और खुद का कुर्मी और महादलित वोट बैंक के सहारे वह आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा नीत एनडीए को हराने में कामयाब हो जाएंगे। लेकिन मोदी विरोध की राजनीति करने वाले नीतीश को यह समझना होगा कि अब वोट बैंक की राजनीति का दौर लगभग खत्म हो चुका है। लोकसभा चुनाव-2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा और एनडीए को मिली अप्रत्याशित जीत इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। दलित, महादलित, मुस्लिम, कुर्मी आदि के वोट बैंक को जोड़कर विधान सभा चुनाव की रणनीति बनाने में जुटे नीतीश कुमार को इससे निकलकर विकास की राजनीति का खाका पेश करना होगा वरना विकास के लिए आतुर प्रदेश की जनता को मोदी का विकास मॉडल ही लुभाएगा।

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