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प्राचीन समय में दांत काले करना केवल एक सौंदर्य प्रसाधन नहीं था, बल्कि यह एक गहन सांस्कृतिक और सामाजिक परंपरा थी. जापान, भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया में यह प्रथा यौवन, परिपक्वता, सामाजिक प्रतिष्ठा और दांतो की सुरक्षा के प्रतीक रूप में देखी जाती थी. जापान में इस परंपरा को ‘ओहागुरो’ कहा जाता था और यह मुख्यतः विवाहित महिलाओं, समुराई और अभिजात वर्ग के लोगों के बीच प्रचलित थी.
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इस प्रक्रिया का एक प्रमुख उद्देश्य था – दांतो की सुरक्षा. दांत काले करने के लिए उपयोग की जाने वाली मिश्रण में लौह तत्व और वनस्पति टैनिन होते थे, जो दांतों को सील कर देते थे और कीड़ा लगने से बचाते थे. यह आधुनिक डेंटल सीलेंट के प्रभावों जैसा माना जाता था, जिससे दांत दशकों तक सुरक्षित रहते थे. भारत में "मिस्सी" नामक मिश्रण, जिसमें आयरन सल्फेट और हर्बल तत्व होते थे, दांत रंगने के लिए उपयोग किया जाता था.
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जापान (ओहागुरो): समुराई और अभिजात्य वर्ग द्वारा सौंदर्य और परिपक्वता का प्रतीक.
भारत: मिस्सी से दांत काले किए जाते थे.
वियतनाम: युवतियां विवाह योग्य होने पर यह प्रक्रिया अपनाती थीं.
लाओस, थाईलैंड, फिलीपींस: हिल ट्राइब्स की महिलाओं द्वारा इसे परंपरा और सौंदर्य के रूप में अपनाया जाता था.
इंडोनेशिया और पेरू: कुछ जनजातियों द्वारा सांस्कृतिक मान्यता के रूप में.
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मुख्य रूप से लोहे की बुरादे को सिरके में घोलकर बनाया गया एक गाढ़ा काला घोल, जिसे ‘कनेमिज़ु’ कहते थे, दांतों पर लगाया जाता था. जापान में इसे बांस की ब्रश और पंख से लगाया जाता था. इस मिश्रण में अक्सर गालनट पाउडर, चाय की पत्तियां और मसाले (जैसे दालचीनी और लौंग) भी डाले जाते थे ताकि इसका स्वाद बेहतर हो सके.
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1870 में जापान में सरकार ने ओहागुरो को आधिकारिक रूप से प्रतिबंधित कर दिया, जब पश्चिमी सौंदर्य मानकों का प्रभाव बढ़ने लगा. विशेषकर जब सम्राज्ञी ने बिना काले दांत और अपने असली आइब्रो के साथ सार्वजनिक रूप में उपस्थिति दी, तो यह एक सांस्कृतिक बदलाव का संकेत बन गया. धीरे-धीरे यह प्रथा केवल नाटकों, त्योहारों और गीशा परंपरा तक सीमित रह गई.
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जापान में ओहागुरो बेट्टारी नामक एक प्रसिद्ध भूतिया कथा है, जिसमें एक महिला अपने काले दांतों के साथ दिखती है, पर उसका चेहरा फीचरलेस होता है. यह किवदंती इस परंपरा की गहराई और सांस्कृतिक प्रभाव को दर्शाती है.
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आधुनिक शोध बताते हैं कि जिन लोगों ने दांत काले किए होते थे, उनके दांत लंबे समय तक स्वस्थ और पूर्ण रहते थे. ओहागुरो की प्रक्रिया दांतों को कीटाणु से बचाने में कारगर मानी जाती थी, जिससे जीवनकाल भी बढ़ने की संभावना रहती थी.
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आज के समय में यह प्रथा लगभग समाप्त हो चुकी है, लेकिन दक्षिण पूर्व एशिया के कुछ जनजातीय समुदायों में बुजुर्ग महिलाएं अब भी इसे निभाती हैं. जापान में यह केवल सांस्कृतिक नाटकों, गीशा प्रदर्शन, और फिल्मों तक ही सीमित रह गई है.
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दांत काले करना केवल एक सुंदरता की अवधारणा नहीं थी, बल्कि यह सामाजिक स्थिति, यौन परिपक्वता, और दांतो की रक्षा का एक बहुआयामी प्रतीक था. पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव ने जहां इसे असभ्यता का प्रतीक बताया, वहीं एशियाई परंपराओं ने इसे सम्मान और संस्कृति का हिस्सा माना. आज भले ही यह परंपरा विलुप्त होती जा रही है, लेकिन इसका ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व अमिट है.
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