कश्मीरियत की गवाह बनी आशा
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कश्मीरियत की गवाह बनी आशा

वर्ष 1990 से पहले जब जम्मू-कश्मीर आतंकवाद की आग में झुलस रहा था तब यहां से हजारों-लाखों की संख्या में कश्मीरी पंडित पलायन कर गए थे, लेकिन 1990 के बाद जब आतंकी गतिविधियां कमजोर पड़ीं तो हजारों-लाखों परिवारों में से कुछ हजार लोगों ने फिर अपनी जमीं पर वापसी की और इन्हीं में से एक परिवार है वूसान गांव में आशा का परिवार.

प्रवीण कुमार

वर्ष 1990 से पहले जब जम्मू-कश्मीर आतंकवाद की आग में झुलस रहा था तब यहां से हजारों-लाखों की संख्या में कश्मीरी पंडित पलायन कर गए थे, लेकिन 1990 के बाद जब आतंकी गतिविधियां कमजोर पड़ीं तो हजारों-लाखों परिवारों में से कुछ हजार लोगों ने फिर अपनी जमीं पर वापसी की और इन्हीं में से एक परिवार है वूसान गांव में आशा का परिवार.

 

उत्तरी कश्मीर के बारामूला जिले में स्थित वूसान गांव कुंजर ब्लॉक के अंतर्गत आता है. मुस्लिम आबादी बहुल इस गांव में 52 वर्षीय आशा अपने पति राधाकृष्ण और दो बच्चों के साथ रहती हैं. बीते दिनों हुए पंचायत चुनाव में आशा ने इस गांव से सरपंच पद का चुनाव जीतकर यह जता दिया कि घाटी में अभी भी कश्मीरियत जिंदा है और इस कश्मीरियत की साक्षात गवाह है आशा.

 

कश्मीर के एक मुस्लिम बहुल गांव से एक कश्मीरी पंडित और वो भी एक महिला का सरपंच पद पर चुना जाना एक मिशाल है. जम्मू-कश्मीर में अरसे बाद करीब एक दशक बाद हुए पंचायत चुनाव का परिणाम जब सामने आया तो अचानक से वूसान गांव देश-दुनिया के नक्शे पर और मीडिया की सुर्खियां में छा गया. सबने एक स्वर में कहा कि वूसान की आशा ने पंचायती राज की असली तस्वीर को पेश किया है.

 

वूसान बहुत छोटा सा गांव है जहां सरपंच पद के इस चुनाव में आशा के मुकाबले में खड़ी थी मुस्लिम प्रत्याशी सरवा बेगम. आशा की यह जीत कई मायनों में महत्वपूर्ण मानी जानी चाहिए और इससे सीख लेनी चाहिए. पहला यह कि कश्मीर घाटी में इससे पहले वर्ष 2001 में पंचायत चुनाव हुए थे. एक दशक बाद हुए इस चुनाव के परिणाम और खासकर वूसान गांव को केंद्र में रखकर देखा जाए तो यह साबित होता है कि कश्मीर में कश्मीरियत आज भी जिंदा है. अगर कोई सियासी दल या राजनेता यह कहकर यहां अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने का प्रयास करता है कि यहां कश्मीरी पंडितों का जीना बहुत मुश्किल है तो उनकी इस मंशा को वूसान ने करारा झटका दिया है.

 

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जो सियासी दल या राजनेता अब तक जात-पांत या धर्म आधारित राजनीति करते आ रहे हैं उन्हें वूसान गांव में आशा की जीत से सीख लेने की जरूरत है. आशा की जीत जाति और धर्म की राजनीति को पूरी तरह से खारिज करती है. आशा बड़ी सहज भाव में इस बात को कहते हुए गर्व महसूस करती हैं कि गांव के तमाम मतदाताओं ने उन्हें वोट किया है. आशा का यह भी कहना है कि वह उन तमाम कश्मीरी पंडितों जो कश्मीर से पलायन कर गए थे और आज अन्य प्रदेशों में रह रहे हैं को यह संदेश देना चाहती हैं कि वह अपनी जमीं पर लौटें और शांतिपूर्वक अपनी मिट्टी की खुशबू लें. उन्हें यहां कोई खतरा नहीं है.

 

अब सवाल यह उठता है कि देश में कितने गांव वूसान की तरह हैं जहां आशा और सरवा बेगम जैसी महिलाएं हैं. निश्चित रूप से यदि देश में पंचायती राज को स्थापित करना है तो वूसान गांव के आदर्श को हर गांव में स्थापित करना होगा. लेकिन कैसे? इसके लिए हमारी सरकार और तमाम सियासी दल व राजनेताओं को अपनी सोच बदलनी होगी. अतीत पर गौर फरमाएं तो भारत में पंचायती व्यवस्था का इतिहास 5000 साल पुराना है. पंचायती शासन का सबसे प्राचीन वर्णन ऋग्वेद में है जिसके अनुसार, स्थानीय षासन के निर्णय आपसी चर्चा और सहयोग से लिये जाते थे. समय के साथ पंचायती व्यवस्था में कुछ बदलाव आए, परंतु इसके मूल में सहभागिता और विकेंद्रीकरण ही रहा. इस व्यवस्था पर अंग्रेजों ने जबरदस्त प्रहार किया और इससे भारत की सदियों पुरानी सहभागी व्यवस्था का अंत हो गया.

 

काफी अरसे बाद सरकार ने 25 मई 1989 को संसद में संविधान संशोधन विधेयक पेश किया और अंततः दिसंबर 1992 में 73वें संविधान संशोधन को संसद की और 20 अप्रैल 1993 को राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद 24 अप्रैल 1993 से पंचायती राज कानून पूरे देश में लागू हो गया. कानून को और मजबूती प्रदान करने के लिए विधेयक में एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की गई, परंतु देश एवं समाज के सत्ताधारी वर्ग ने इस प्रावधान के पर कतरने की रणनीति बना ली.पिछले कई चुनावों में देखा गया कि समाज के प्रभावशाली लोगों ने अपनी ही पत्नी, बहन, मां अथवा किसी अन्य रिश्तेदार महिलाओं को उम्मीदवार बना दिया जो जीतने के बाद उन्हीं के इशारों पर काम करने को विवश होती हैं. यह एक खतरनाक स्थिति है क्योंकि इससे एक तो सही महिला उम्मीदवार चुनकर न आने से विकास और कल्याणकारी योजना बनाने में महिलाओं के हितों की उपेक्षा होती है, वहीं उन्हें अधिकार संपन्न बनाने का मूल मकसद ही अधूरा रह जाता है.
एक और खतरनाक स्थिति उन प्रदेशों में सामने आई है जहां दहेज प्रथा का जबरदस्त बोलवाला है. बिहार में पंचायती राज व्यवस्था में नित नई चुनौतियां उभर रही हैं. जहां पहले दहेज में घर परिवार के वैभव के सामान लिए जाते थे, अब वोट की खरीद के लिए महिलाओं पर दबाव बनाए जाते हैं. इससे पंचायत में राजनीति करने की महत्वाकांक्षा रखने वाली महिलाओं के विरुद्ध हिंसा हो रही है. बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में स्थित पारू प्रखंड की जाफरपुर पंचायत की मुखिया उम्मीदवार प्रियंका इसलिए अपनी जान गंवा बैठी क्योंकि वह वोट खरीदने के लिए अपने मायके से दो लाख रुपये नहीं ला पायी. इस तरह की घटनाएं एक नई चोट है महिलाओं के राजनीतिक अधिकार पर. इस तरह की अलग-अलग मुश्किलें अलग-अलग प्रदेशों में है जिससे निपटने के लिए एक महती योजना पर काम करना होगा और इसमें सियासी दलों और समाज के प्रभावी लोगों को अपनी पुरातनपंथी सोच से ऊपर उठकर काम करना होगा.
पंचायती राज में खासकर महिलाएं किस प्रकार से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ सकेंगी इस संबंध में कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है- मसलन, महिलाओं में अधिकारों के प्रति चेतना जगाना, महिला शिक्षा पर अधिकाधिक जोर, विकास की मुख्यधारा से जुड़ने के लिए सामूहिक संगठन, नेतृत्व और मनोवृति का विकास, सामूहिक कार्यकलाप की पहचान कर उसके लाभ का समानता के आधार पर बंटवारा, पारिवारिक प्रबंधन के साथ सामाजिक एवं आर्थिक प्रबंधन, पुरुषों के साथ सकारात्मक भूमिका तथा प्रशासन एवं विकास में प्रतिनिधित्व के अनुसार भागीदारी सुनिश्चित करने पर बल दिया जाना प्रमुख है. यदि इन तथ्यों पर अमल किया जाए तो कोई ऐसा कारण नहीं बचेगा जिससे पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं की भूमिका कमजोर पड़े और देश का हर पंचायत कश्मीर के वूसान की तरह होगा जिसमें आशा जैसी सरपंच होंगी.

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