मीथेन एक हानिकारक गैस है, जो जलवायु परिवर्तन की प्रमुख वजहों में से एक है.
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नई दिल्ली: अंटार्कटिका (Antarctica) से दुर्भाग्यपूर्ण खबरें आने का सिलसिला थम नहीं रहा है. इसी कड़ी में वैज्ञानिकों ने इसके समुद्र तल में अब मीथेन गैस लीक (Methane Gas Leakage) का पता लगाया है. किसी को भी इस बात का अंदाजा नहीं है कि अंटार्कटिका के सीबेड यानी सतह में मीथेन लीक क्यों और कैसे हुई है. दरअसल अंटार्कटिका की समुद्री सतह में बड़ी मात्रा में मीथेन मौजूद है, जिसके लीकेज को महासागरों के बढ़ते तापमान से जोड़ कर देखा जा रहा है. इसे वैज्ञानिकों ने बेहद चिंताजनक बताया है. हालांकि लीकेज की लोकशन रॉस सी बताई गई है. 2011 में पहली बार इस स्पॉट को खोजा गया था, उसके बाद 2016 में वैज्ञानिकों ने रिसर्च के लिए इस इलाके में फोकस किया था और तब से ही वे वहां की स्थितियों पर नजर रखे हुए हैं.
इस अध्ययन के अहम शोधार्थी एंड्रयू थर्बर ने बताया कि सिर्फ लीकेज होना ही चिंताजनक नहीं है. चिंता का विषय कुछ और भी है. दरअसल यहां मिले सूक्ष्म जीवाणु यानी माइक्रोब्स भी यहां की खराब हो रही स्थिति को बयान कर रहे हैं.
आमतौर पर इस तरह के किसी भी अप्रत्याशित बदलाव को जलवायु परिवर्तन से जोड़ कर देखा जाता है. इसकी सबसे बड़ी वजह हानिकारक गैसों का उत्सर्जन होता है और इसी वजह से महासागरों की प्रकृति और समुद्री जीवन पर काफी बुरा असर पड़ा है. थर्बर इस खोज को एक प्राकृतिक प्रयोगशाला मानते हैं जो आगे की खोज में और काम आएगी. ये रिसाव एक सक्रिय ज्वालामुखी के ठीक आगे हो रहा है लेकिन वो इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते हैं कि यह लीकेज ज्वालामुखी की वजह से हुआ होगा.
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वैज्ञानिकों के मुताबिक मीथेन का बड़ी मात्रा में उत्सर्जन होने की वजह से समुद्र का जलस्तर बढ़ा है. यह आने वाले समय में समुद्री तटों की स्थिति खराब करेगा. यहां गैस कंज्यूम करने वाले जीवाणुओं की गैरमौजूदगी से भविष्य में गैस का रिसाव वायुमंडल तक भी पहुंच सकता है. शोध में थर्बर ने ये दावा भी किया है कि वहां मौजूद सूक्ष्म जीवों पर भी असर पड़ा है. उनका अंदाजा है कि अगले 10 सालों में अंटार्कटिका के हालात और खराब हो सकते हैं. ये पहला मौका नहीं है जब मीथेन लीक की जानकारी हासिल हुई हो. इससे पहले 2014 में दक्षिणी जॉर्जिया में ठीक ऐसे ही लीकेज का पता चला था जो दक्षिणी महासागर में मीथेन लीकेज का पहला मामला था. ऐसे रिसाव का होना चिंताजनक है क्योंकि ये अलग-अलग समुद्री क्षेत्रों में हैं. वहां की अलग जीवन स्थितियों पर उनके असर को महसूस किया जा सकता है.
कोरोना महामारी के चलते इस क्षेत्र में जारी सभी शोध रोक दिए गए थे. कोरोना वायरस के दौर में काम जारी रहने की स्थिति में सुदूरवर्ती क्षेत्रों तक संक्रमण फैलने का खतरा था.
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