विवेकानंद की व्यथा: उन्हें सन्यासी तो माना गया, लेकिन उनके क्रांतिकारी मिशन को किसी ने नहीं समझा
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विवेकानंद की व्यथा: उन्हें सन्यासी तो माना गया, लेकिन उनके क्रांतिकारी मिशन को किसी ने नहीं समझा

विवेकानंद की विशिष्ट और सामान्य लोगों को जगाने की असफलता से उनकी स्वाधीनता की आकांक्षा कम नहीं हुई थी. वह दूसरे तरीकों से अपना प्रयास चलाते रहे. 

विवेकानंद की व्यथा: उन्हें सन्यासी तो माना गया, लेकिन उनके क्रांतिकारी मिशन को किसी ने नहीं समझा

स्वामी विवेकानंद संन्यासी क्यों बने?
क्या जीवन के प्रति उनमें वैराग-भाव था? क्या वे मोक्ष चाहते थे? क्या कोई रहस्यमय योग-साधना उनका लक्ष्य थी?

क्या वे हिंदू धर्म का पुनरुत्थान चाहते थे? क्या वे एक वेदांती संन्यासी थे?
येे ऐसे सवाल हैं, जिनसे भारत कभी नहीं टकराया. उसने एक सुदर्शन, बहुपठित, भावमय, आवेगयुक्त युवा का संन्यासी होना सहज स्वीकार कर लिया. फिर तो वे पूजा-अर्चन का विषय हो गए. उसने मान लिया कि वे मुक्ति चाहते थे, बाद में देश की दशा देखी तो हिंदू धर्म के पुनरुत्थान के जरिए देश को जगाना उनका लक्ष्य हो गया. 

यह विवेकानंद के भीषण संघर्षपूर्ण, मानसिक और भौतिक दोनों, जीवन का भारत में प्रचलित लोकप्रिय पाठ है. भारत उन्हें इसी रूप में जानता है.

स्वामी विवेकानंद की रचनावली कई खंडों में हमेशा से बहुत सस्ते मूल्य पर रामकृष्ण परमहंस मिशन के जरिए हर शहर में लगभग सुलभ रही है. देश ने अपने घरों के बैठकखानों में उनकी तस्वीर तो बहुतायत से लगा दी. बिना किसी प्रांतीय भेदभाव के, वे महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार... आदि-आदि के पढ़े-लिखे संभ्रांत मध्यवर्गीय घरों में संगमरमर की छोटी मूर्ति या मढ़े हुए फ्रेम में बंधे हाथों वाली छवि में मौजूद हो गए. पर स्टेशनों पर सुलभ उनका साहित्य इन घरों तक पहुंच पाने की राह नहीं पा सका. 

विवेकानंद को बहुत प्रचार मिला- यानी उनकी बंधे हाथों वाली तस्वीर और दो-एक संबोधनों-सूक्तियों को, पर उनके विचार उपेक्षित ही रहे. महर्षि अरविंद की तरह एक छोटा-सा अनुयायी वर्ग भी ऐसा नहीं बना जो उनकी रचनाओं का पारायण करता हो. न जे कृष्णामूर्ति की तरह प्रबुद्धजनों का ऐसा समाज मिला, जो उनकी रचनाओं की रोशनी में जिंदगी के बारे में कुछ सोचने का अपनेे ढंग से यत्न करता हो. ओशो के अब दूर-दूर तक फैल गए भावदीप्त स्वरों में दिए गए प्रवचनों को पहले कैसेट-सीडी फिर अब यूट्यूब पर देखने-सुनने वाला विशाल श्रोता-समूह मिलना तो जैसे दूर की कौड़ी ही हो.

जबकि भारत के लिए सबसे जरूरी विवेकानंद के बोले शब्द थे. उनकी छिटपुट किताबें रेलवे स्टेशन के सर्वोदय स्टॉलों से बिकती हैं, पर वे कुछ ऐसे चुनिंदा विषयों पर होती हैं, जो किसी उम्र में युवा वर्ग को खींचती हैं, पर यह आकर्षण बढ़ने के बजाय जल्द ही खत्म हो जाता है.

अगर भारत ने विवेकानंद को पढ़ा होता, भगत सिंह को भी - तो यह भारत वह भारत न होता जो आज है. भारत की किसी भी पीढ़ी का युवा, वह युवा न होता जो वह रहा.

विवेकानंद संन्यासी नहीं क्रांतिकारी थे. 1857 का इल्जाम बंगाल के माथे था, कि बंगाल देखता रहा और सोया रहा. इस कलंक को मिटाने के लिए कालांतर में पूरी एक पीढ़ी ने सशस्त्र क्रांतिकारीआंदोलन को ही बंगाल में जन्म दे दिया. बंगाल जाग उठा. स्वाभिमानी, ओजस्वी, बलिदानी महागाथा वाला बंगाल. बंगाल की भावुकता ने इतिहास को अपना एक नया परिचय दिया. 

विवेकानंद इसी दौर के, इसी बंगाल के उन हजारों युवाओं में से एक थे, जो कुछ कर गुजरना चाह रहे थे, अपने जीवन को किसी महत्तर के लिए सौंप देना चाह रहे थे. बंगाल के भद्र लोक का अतिक्रमण कर जो देश की आत्मा का जयगान हो जाना चाह रहे थे. बंगाल में क्रांतिकारी आंदोलन के वे आरंभिक दिन थे. रवींद्रनाथ की प्रकृति और प्रेम का काव्य बंगाली युवा मन में हजारों तरंगें पैदा कर रहा था. शरतचंद्र के गल्प से उठे सपने और प्रश्न नए जीवन का उद्वेग बन युवा-पीढ़ी को आंदोलित कर रहे थे. प्रेम क्रांति बन रहा था, उत्सर्ग बन रहा था. 

बंगाल में पड़े अकाल, भूख और फिर पूरे देश की आहत आत्मा उन युवाओं को किन-किन पाड़ों से, बाड़ियों से खींचकर फांसी के फंदों तक ले जाने लगी. यह एक महत्कथा है. स्वाभाविक था कि विवेकानंद जैसा जाज्वल्य हृदय क्रांति के इस पथ पर बढ़ता. परंतु अपनी पीढ़ी के हजारों देशभक्त युवाओं से विवेकानंद में एक फर्क था. वे अत्यधिक विचारशील और अध्ययनशील थे. 

उनके पास न सिर्फ तर्कशक्ति थी, अपितु कार्य-कारण विवेचना और तथ्यों का विश्लेषण करने की अपूर्व सामर्थ्य भी. उन्होंने दुनियाभर के समाजों के बारे में पढ़ा. क्रांतियों के इतिहास से वे गुजरे. भारत के अतीत को उन्होंने खंगाला. इस सबने उनके सामने यह स्पष्ट कर दिया कि भारत की मुक्ति में ही उनकी मुक्ति है.

उनके जैसा व्यक्ति भारत की मुक्ति के लिए सिर्फ प्राण देने या शौर्य करने भर से संतुष्ट नहीं हो सकता था. उन्हें परिणाम चाहिए था. तब बंकिम का आनंदमठ उनके भीतर जाग्रत हुआ. और उन्होंने उसे अपने युग में घटित करना चाहा. क्या संन्यासी का वेश धर वे भारत में क्रांति की अलख जगा सकते हैं? वैयक्तिक या छोटे-छोटे दलों वाला ऐसा क्रांति-कार्य नहीं, जिसे बड़ी आसानी से अंग्रेजी सत्ता खत्म कर देती है, अपितु देशव्यापी विद्रोह की कोई बड़ी कार्रवाई, जिससे सचमुच विजय मिले, भारत दासता से मुक्त हो. 

वे जिन रामकृष्ण परमहंस के पास तर्क करने गए थे, और जिन्होंने उन्हें अपने प्रेम से बांध लिया, उनकी दीक्षा भी यही थी कि दरिद्रनारायण की सेवा करो नरेंद्र! देश के उत्तरी पहाड़ों से सुदूर केरल के समुद्र-तट तक वे किस मोक्ष को खोजने गए थे? वे रियासती राजाओं के पास किस आश्रय की तलाश में ठहरते रहे?

उनके जीवन में बहुत से ऐसे सूत्र, ऐसे प्रसंग मिलते हैं, जो इस बात की ओर पर्याप्त इशारा करते हैं कि यह संन्यासी जितना धार्मिक था और जितना हिंदू था, उससे अधिक राजनीतिक और मानवमुक्ति का प्रेमी. यह तो रही बात जीवन-प्रसंगों की, उनके समस्त विचारों का गंतव्य भी भारत-मुक्ति और मानव-मुक्ति है. उसके शिल्प और कथ्य में युगानुकूल अंतर्विरोध हो सकते हैं, पर सर्वोपरि है कि वे एक आजाद भारत, जातिमुक्त भारत, हिंदु-मुस्लिम समन्वय से सुदृढ़ भारत के लिए जी रहे थे. यही उनका परम लक्ष्य था. यही उनके संन्यासी होने का कारण था, यही उनके धर्म-परिधान का रहस्य था.

हिंदू-पुनर्जागरण और हिंदुत्व की राजनीति के लिए उनके बाहरी रूपाकार और संदर्भ से कटी बातों का इस्तेमाल हो ही इस कारण पाया कि देश ने इस व्यक्ति के मन को कभी पढ़ना नहीं चाहा, उसके जीवन को कभी गौर से देखा नहीं, उसकी तरुणाई की व्यथा से इसने खुद को कभी एकाकार नहीं किया. भारत हमेशा ऐसा ही करता है. यही उसकी पद्धति है, अपनी श्रेष्ठतम प्रतिभाओं को या तो वह अस्वीकार कर देता है या पूजा-वस्तु बनाकर ऐसे स्वीकार करता है कि उनके होने में कोई अर्थ ही न रह जाए.

इसीलिए यह देश इतने प्राचीन इतिहास और इतनी मेधाविता के बाद भी गुलामी में जीता है. व्यक्तित्वहीनों का जड़ समाज बन सदियों अपनी मूढ़ताओं पर गर्व करता है.
विवेकानंद भारत की चेतना पर 19 वीं सदी के अंत में लगा सबसे बड़ा प्रश्नचिह्न हैं. वे भारत का प्राचीन गौरव वापस चाहते थे, बेशक, पर हिंदू शास्त्रों की मानसिक गुलामी में नहीं, भारत की कोटि-कोटि मानवता की धर्म-जाति-द्रारिद्रय की जकड़न से मुक्ति में.

डॉ. अजीत जावेद भारत की सांस्कृतिक समस्याओं को लेकर बड़ी मेहनत से शोधकार्य करती रहीं. कम उम्र में ही तीन वर्ष पूर्व उनका निधन हो गया. पर मृत्यु से ठीक पहले उन्होंने विवेकानंद के जीवन और विचारों के सूत्र तलाश कर वास्तविक विवेकानंद को प्रस्तुत किया था. नीचे का हिस्सा उसी पुस्तक से है, जो सप्रमाण यह बताता है कि अल्पायु में मृत वह व्यक्ति इसलिए नहीं जिया था कि हम उसे महानता का मुकुट सौंप अपने मनोनुकूल उसकी छवि बनाने का अधिकार पा जाएं--

उनके व्याख्यानों में ब्रिटिश शासकों के प्रति अनवरत् क्रोध और आक्रोश की झड़ी लगती दिखाई देती है:
‘अंग्रेज हमारी गर्दनों पर अपने जूतों की तली रखे हुए हैं, अपने सुख के लिए हमारे खून की अंतिम बूंद भी चूस रहे हैं, वे हमारी करोड़ों की संपत्ति लेकर चले गए हैं और हमारे लोग गांवों और प्रांतों में भुखमरी का शिकार हो रहे हैं.

उन्होंने अपने लिए संपत्ति अर्जित करने के लिए निर्धनों को प्रताड़ित और पददलित किया. उन्हें कष्ट की आवाज सुनाई नहीं दी. वे सोने-चांदी के बर्तनों में भोजन करते रहे, जबकि भारतीय रोटी के लिए चीख-पुकार मचा रहे थे.’

सात वर्षो तक स्वामीजी अपने देशवासियों के जागरण के लिए कठिन परिश्रम करते रहे. वे इटली और फ्रांस की गुप्त क्रांतिकारी संस्थाओं और उनके द्वारा राष्ट्र-निर्माण किए जाने के कार्य के संबंध में जानते थे. उन्होंने स्वयं एक बंदूक-निर्माता हीरम मैक्सिम से संपर्क बनाए थे. परंतु उन्हें देशवासियों से कोई प्रतिक्रिया नहीं प्राप्त हुई. उन्होंने कुछ समय बाद इसे भगिनी क्रिस्टीन को बताया था:

‘मेरे पास भारतीय राजाओं को एकजुट करके विदेशी शासन के जुए को उखाड़ फेंकने का एक विचार था. इसी कारण मैंने हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक, भ्रमण किया. इसी कारण मैंने बंदूक-निर्माता सर हीरम मैक्सिम से मित्रता भी की. परंतु मुझे देश से कोई प्रतिक्रिया नहीं प्राप्त हुई.’

विवेकानंद की विशिष्ट और सामान्य लोगों को जगाने की असफलता से उनकी स्वाधीनता की आकांक्षा कम नहीं हुई थी. वह दूसरे तरीकों से अपना प्रयास चलाते रहे. उन्होंने अमेरिका जाने का निश्चय धार्मिक कारणों से नहीं, वरन् अपने पहले से निर्धारित जीवन-लक्ष्य की पूर्ति के लिए किया था.

‘मैं अमेरिका उस कारण नहीं गया था, जैसा कि अधिकांश लोग जानते हैं, परंतु मेरे अंतर्मन में यह भावना -स्वाधीनता की भावना- मेरी आत्मा के भीतर तक थी, मैंने बारह साल संपूर्ण भारत के भ्रमण में व्यतीत किए थे. मुझे अपने देशवासियों के लिए कार्य करने का कोई मार्ग प्राप्त नहीं हो रहा था और यही वह कारण था, जिसके लिए मैं अमेरिका गया था. जो लोग उस समय मुझसे परिचित थे, वे इसे जानते थे कि कौन इस विश्व धर्म-सम्मेलन की परवाह करता था? यहां मेरा शरीर और मेरी आत्मा रोज-रोज कुम्हलाती जा रही थी और उनकी (देशवासियों की) किसे चिंता थी? यह मेरा पहला कदम था.’

उनके मस्तिष्क में निश्चित रूप से कोई योजना थी. यह अमेरिका से अला सिंह को 28 मई,1894 को उनके द्वारा लिखे हुए पत्र से स्पष्ट हो जाता है:

‘शिक्षित युवकों पर कार्य करो. उन्हें एक साथ लाओ और संगठित करो. महान कार्य केवल महान बलिदानों का परिणाम होते हैं. बिना स्वार्थ, बिना नाम, बिना प्रसिद्धि, ‘न तुम्हारा, न मेरा’ विचार पर. योजना पर कार्य करो. अपने कंधे उस चक्र पर लगा दो! पीछे देखने के लिए मत रुको. याद रखना, जब घास को जोड़कर उसकी रस्सी बना दी जाती है, वह एक पागल हाथी को भी बांध लेती है.’

जब वह अमेरिका में थे, उन्होंने ‘स्वाधीनता के युद्ध’ और गृहयुद्ध से संबंधित स्थानों की यात्रा की थी. वे जॉर्ज वाशिंगटन, जिन्होंने स्वाधीनता-संग्राम का नेतृत्व किया था और अब्राहम लिंकन, जिन्होंने अमेरिका से दास-प्रथा समाप्त की थी, की प्रशंसा करते थे और उनको वास्तविक कर्मयोगी मानते थे. फिर भी उनको ‘स्वतंत्रता की भूमि’ में अपमान और विभेद तथा तीव्र जाति विभेद का पूर्वाग्रह सहन करना पड़ा था, क्योंकि वे एक दास-देश की प्रजा थे, जिससे उन्हें जन-सामान्य के बीच और वैयक्तिक रूप में बहुत कठिनाइयां उठानी पड़ी थीं. 

कोई भी बाल काटने वाले उनके बाल नहीं काटते थे और न ही उनको किसी होटल में भोजन परोसा जाता था. न्यूयार्क में उनको अपने लिए उचित आवास पाना बहुत ही कठिन था. आवासों की मालकिन उनको भरोसा देती थीं कि उनके मन में उनके प्रति कोई दुर्भावना नहीं थी, परंतु उनको भय था कि एक एशियावासी को अपने यहां ठहराने के कारण उनके दूसरे आवासी अथवा उनके यहां ठहरने के लिए आने वाले अन्यत्र चले जाएंगे. इसने स्वामीजी को बाध्य किया कि वे अंधेरे गंदे आवासों में रहना स्वीकार करें. 

बोस्टन में अपने लाल कोट और पगड़ी के कारण लोग उन पर चिल्लाते थे. नगर के व्यस्त हिस्से में लड़कों और लोगों की बड़ी भीड़ उनके पीछे चलती हुई उनका उपहास करती थी. अपने को सुरक्षित रखने के लिए विवेकानंद को किसी अंधेरे स्थान में छिपाना पड़ता था. एक सभ्य देश में इस प्रकार का असभ्य व्यवहार उनको अपने देश के लिए रोने के लिए विवश कर देता था. समान व्यवहार पाने के लिए, उन्हें अपने देश के माथे का कलंक -दासता- हटाना होगा.

(श्रीमती डॉ. अजीत जावेद ने विवेकानंद के उद्धरण रामकृष्ण मिशन से प्रकाशित उनकी ग्रंथावली से लिए हैं और इनका हिंदी अनुवाद बस्ती निवासी सेवानिवृत्त भौतिक-विज्ञान के प्राध्यापक राघवेंद्र कृष्ण प्रताप ने किया है.)

(लेखक हिंंदी के सुपरिचित कवि, संंपादक और प्रकाशक हैं.)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं) 

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