बिहार चुनाव के नतीजों में छिपा है भाजपा के लिए संदेश
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बिहार चुनाव के नतीजों में छिपा है भाजपा के लिए संदेश

बिहार चुनाव के नतीजों में छिपा है भाजपा के लिए संदेश

बिहार चुनाव के नतीजों में बीजेपी का हाल टीम इंडिया जैसा हुआ है। जिस तरह टीम इंडिया क्रिकेट मैच में ज्यादातर समय अपनी पकड़ बनाए रखने के बाद अंतिम समय में ऐसा कुछ कर देती ही, जिससे जीती बाजी उसके हाथ से फिसल जाती है। बिहार चुनाव में बीजेपी पर ये पूरी तरह फिट बैठता है, एक महीने पहले तक पार्टी जहां जीत के ख्वाब बुन रही थी वो नतीजे आने पर उसकी सबसे बुरी हार में बदल गई। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी बिहार में चारों खाने चित्त हो गई। दोनों बिहार की हकीकत और पृष्ठभूमि को समझ नहीं सके, ग्यारह करोड़ बिहारियों के मन को पढ़ने में उनसे भूल हो गई। नतीजा हुआ कि वो तीसरे नंबर की पार्टी होकर रह गई। कहावत है, जो न कटे आरी से वो कटे बिहारी से। बिहार की जनता की सूझबूझ की आरी से बीजेपी के ये दोनों दिग्गज बुरी तरह कट गए।

बीजेपी के लिए बिहार हारने की कई वजहें रहीं। सही मायनों में बीजेपी को महागठबंधन ने नहीं बल्कि उसके अपनों ने बेड़ा गर्क किया है। डेढ़ साल पहले नरेन्द्र मोदी जब बिहार समेत देश भर में घूम-घूम कर महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार के लिए कांग्रेस को कोसते थे, तो बाकियों की तरह बिहार की जनता को भी लगा- कोई है, जो उनकी बात करता है, उनके लिए सोचता है, उनकी परवाह करता है। बिहार ने लोकसभा चुनाव में मोदी और बीजेपी को दिल खोलकर समर्थन दिया। नतीजों में मोदी और उनका गठबंधन 40 में से 32 सीटों पर विजयी रहा। इसके अगले कुछ महीनों में पार्टी कई छोटे-बड़े राज्यों में भी अपनी सरकार बनाने में कामयाब रही।

कुछ दशक पहले तक कांग्रेस अपने दम पर देश चलाने की जो गलतफहमी पाले रखती थी, केंद्र में सरकार बनने के बाद बीजेपी इसी खुशफहमी के साथ जीने लगी। बीजेपी नेताओं में अपराजेय का भाव आ गया, उन्हें लगा- कोई उन्हें हरा नहीं सकता, क्षेत्रीय दलों को तो वो और भाव नहीं दे रहे थे। बस यहीं से बीजेपी की नाव डगमगाने लगी। 2015 की शुरुआत में दिल्ली और अब साल के अंत में बिहार दोनों राज्यों में बीजेपी का दम निकल गया। दिल्ली की हार से पार्टी ने कोई सबक नहीं लिया। नेता लगातार वही सब गलतियां दोहराती रहे जो उन्होंने वहां किया था।

जब पेट में आग लगती है तो वोटर को कुछ और नहीं सूझता है। महंगाई में जल रही जनता की बेचैनी को समझते हुए भी सरकार ने मुंह फेरे रखा। 60-70 रुपये/किलो के भाव से मिलने वाली दाल अगर डबल सेंचुरी मार दे तो जाहिर है- लोग भड़केंगे। इतने पर भी बीजेपी के नेता और मंत्री बेलगाम होकर- हर रोज सुबह उठकर नया बयान देते रहे, बयान भी पहले वाले से ज्यादा तीखा। दाल का दर्द झेल रही जनता को दादरी बर्दाश्त न हुआ, असहिष्णुता और बीफ से लेकर गोमांस पर बयानबाजी से लोग तिलमिला उठे। चुनाव से ऐन पहले सर सरसंघ चालक मोहन भागवत के आरक्षण पर बयान देकर नई बहस छेड़ दी। इन सब से डेढ़ साल पहले बीजेपी को वोट देने वाले लोग खुद को ठगे महसूस कर रहे थे। जाहिर है बीजेपी को इसका नुकसान होना था और परिणामों में ये ही नज़र आया। बीजेपी के नेता इस जमीनी हकीकत को समझ नहीं सके, या वो इस ओर अपनी आंखें मूंदे रहे।

बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह लगातार चालीस दिन तक पटना के एक आलीशान होटल में डेरा जमाए बैठे रहे। चुनाव का सारा मैनेजमेंट वो होटल के अपने कमरे में बैठे-बैठे कर रहे थे। टिकट बांटने में योग्य और ज़मीनी नेताओं की जबरदस्त अनदेखी हुई। तमाम तरह की गड़बड़ियों के आरोपों को नज़रअंदाज कर दिया गया। बीजेपी बिहार का चुनाव बगैर किसी स्थानीय चेहरे के लड़ रही थी, इस कमी को पूरा करने के लिए प्रधानमंत्री दनादन रैलियां किए जा रहे थे लेकिन, ऐसा कर वो खुद को ओवरएक्सपोज़ कर रहे थे, ये बात वो समझ नहीं पाए। प्रचार में भाषा और जुमलों का जैसा प्रयोग हुआ उसे बिहार ने ही नहीं पूरे देश ने देखा। दोनों तरफ से घटिया आरोप और लांछन लगे। मतदाता चुपचाप होकर ये सारा तमाशा देखता रहा, उसने प्रतिक्रिया देने के बजाए वोट डालने के दौरान अपनी भड़ास निकली।
 
लोकतंत्र का एक हिस्सा चुनाव है, चुनाव में हार जीत लगी रहती है, एक पार्टी हारती है तो दूसरी जीतती है। बिहार के लगभग साढ़े करोड़ मतदाताओं ने अपना जनादेश सुना दिया है, सबको उसका सम्मान करना चाहिए। जनता ने नीतीश की अगुवाई वाले महागठबंधन को प्रचंड बहुमत दिया है, उन्हें अगले पांच साल तक अब बिहारियों के लिए काफी काम करना होगा। बिहार की जनता लालू प्रसाद के शासन को भूली नहीं है, नीतीश को ये सुनिश्चित करना होगा कि- किसी भी हालत में इसका कमबैक न हो। अगर न कर सके तो सिर-आंखों पर बिठाने वाली ये ही जनता उन्हें जमीन पर पटक देगी। लालू यादव को भी इस जीत ने ऑक्सीजन देने का काम किया है। जरूरत है कि- वो ने सिर्फ खुद को बदलें बल्कि विकास और सुरक्षा को लेकर भी अपना नजरिया बदलें।  

बीजेपी के लिए सबकुछ खत्म नहीं हुआ है, नतीजों में पार्टी के लिए संदेश छुपा है- उसे जनता की भावनाओं को समझते हुए उसपर इमानदारी से काम करना होगा। अंग्रेजी में कहावत है- 'सक्सेस हैज मेनी फादर्स, फेल्योर हैज नन'। जाहिर है, हार के बाद तमाम तरह की बातें होंगी, वजहें गिनाई जाएंगी, उंगलियां उठेंगी। सबसे सामर्थ्यवान, ऊर्जावान, संसाधनयुक्त पार्टी के तौर पर पहचाने जाने वाली बीजेपी को अपनी कमजोरियों को समझ कर उन्हें दुरुस्त कर फिर खड़ा होना होगा। बीजेपी एक कैडर आधारित पार्टी है, देश भर में करोड़ों की संख्या में उसके सदस्य हैं। कई प्रदेशों में उसकी और सहयोगियों की सरकारें हैं।

बीजेपी के पास नरेन्द्र मोदी जैसा ऊर्जावान और प्रतिभावान व्यक्तित्व वाला नेता है। लेकिन लगता है कि- मोदी लोकसभा चुनाव में जीत के हैंगओवर से बाहर नहीं निकल पाए हैं, या कहें- वो निकलना नहीं चाहते। जनता अब खोखले वादे और हवाबाजी करने वाले किसी भी नेता और पार्टी को बर्दाश्त करने के मूड में नहीं है। क्योंकि- जिंदा कौमें पांच साल तक इंतज़ार नहीं करतीं। बिहार चुनाव अब इतिहास बन चुका है, बीजेपी को अब बिहार से बाहर सोचना होगा। अगले साल फिर चुनाव आएंगे। ये बीजेपी को ही तय करना है कि- वो सीख लेकर जीत का लड्डू चखती है या निराशा के समंदर में अभी और गोता लगाएगी।

(लेखक ज़ी एमपी-सीजी में सीनियर प्रोड्यूसर हैं)

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