भाजपा बनाम RSS
वासिंद्र मिश्र
एडिटर (न्यूज़ ऑपरेशंस), ज़ी मीडिया
ऐसा क्यों होता है कि जब बीजेपी की सरकार केन्द्र या राज्य कहीं भी आती है हिन्दू संगठनों की गतिविधियां एकाएक तेज हो जाती हैं? ऐसा क्यों होता है कि जब भी सत्ता में बैठे बीजेपी के नेता विकासवादी योजनाओं का राग शुरू करते हैं ऐन उसी वक्त आरएसएस और उससे जुड़े संगठन हिन्दूवादी राग अलाप कर सरकार को मुश्किलों में डाल देते हैं? अतीत में ऐसा कई बार हो चुका है और मौजूदा वक्त का माहौल इसकी गवाही दे रहा है। अब सवाल ये कि क्या ये शह-मात का खेल है जिसमें अपना-अपना एजेंडा मनवाने की होड़ मची है। अगर ऐसा है तो यकीनन इस खेल की पहली बाजी मोदी के नाम गई है क्योंकि धर्मान्तरण के हंगामे के सूत्रधार रहे राजेश्वर सिंह फिलहाल हाशिए पर भेज दिए गए हैं। लेकिन सवाल ये कि क्या इतने भर से कभी प्यार कभी तकरार वाला खेल रुक पाएगा।
देश को 2021 तक हिन्दू राष्ट्र बनाने का ऐलान करने वाले धर्म जागरण समिति के प्रभारी राजेश्वर सिंह को हटा दिया गया है। ये और बात है कि खुद राजेश्वर सिंह इसे छुट्टी मान रहे हैं। खबर है कि राजेश्वर सिंह को हाशिए पर डाले जाने के पीछे खुद मोदी की सख्ती है लेकिन सवाल ये कि क्या इतने भर से बात बनेगी। क्या एजेंडे को लेकर शह मात का खेल थमेगा?
यूपी में धर्मान्तरण अभियान की कमान संभाल रहे राजेश्वर सिंह की छुट्टी हो गई है। बताते हैं कि इस कार्रवाई के पीछे नरेन्द्र मोदी की सख्ती है। बीते शीतकालीन सत्र में सरकार की खासी किरकिरी कराने वाले और विकास के एजेंडे को प्रभावित करने वाले धर्मान्तरण के मुद्दे पर मोदी की सख्ती दरअसल संघ से जुड़े संगठनों और सरकार के बीच छिड़ी सैद्धांतिक और वैचारिक लड़ाई में पहली जीत मानी जा सकती है। हालांकि खुद बीजेपी के नेता इसकी परिभाषा अलग तरीके से दे रहे हैं। वहीं राजेश्वर सिंह की खामोशी भी ये बता रही है कि दरअसल उन्हें साइडलाइन करने के लिए किस हद तक कड़ी चेतावनी मिली है। हालांकि राजेश्वर सिंह इसे अवकाश बता रहे हैं।
ये पहली बार नहीं है जब संघ और उससे जुड़े संगठनों और सत्ता में मौजूद बीजेपी की सरकारों के बीच का द्वंद इस तरह खुलकर सामने आया है बल्कि अतीत में इसके कई उदाहरण सामने हैं। ये सच है कि बीजेपी की सरकार जब भी बनी है उसके पीछे संघ के करोड़ों स्वंयसेवकों की मेहनत रही है लेकिन इसके साथ एक बड़ा सच ये भी है कि सत्ता में आने के बाद बीजेपी की सरकारों को संघ के वैचारिक एजेंडे से ही लोहा लेना पड़ा है।
साल 1992 में इसी शह मात के खेल का खामियाजा कल्याण सिंह की सरकार को भुगतना पड़ा था जब बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद ना केवल कल्याण सिंह की सरकार बर्खास्त हुई बल्कि चार और बीजेपी की सरकारें इस मुद्दे की बलि चढ़ गईं। कुछ यही हाल अटल जी के शासन के दौरान भी हुआ जब अटल जी और संघ नेताओं के बीच के रिश्ते बेहद तल्ख दौर में पहुंच गए थे। अटल जी भी संघ के एजेंडे से दूरी बनाकर चलते रहे।
अब जबकि लंबी जद्दोजहद के बाद केन्द्र में बीजेपी की सरकार है तो एक बार फिर संघ से जुड़े संगठन पूरे फॉर्म में नजर आ रहे हैं। एक बार फिर अतीत दोहराया जा रहा है। हालांकि मोदी ये बात अच्छी तरह जानते हैं कि उन पर जनता ने भरोसा उनके विकासवादी एजेंडे के चलते जताया है ना कि संघ के एजेंडे को लेकर। मोदी को ये भी पता है कि अगर वो संघ के एजेंडे के सामने कमजोर पड़े तो अगली बार उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। सो मोदी ने सख्ती दिखाई है और शीतकालीन सत्र में सरकार का काफी वक्त बर्बाद करने वाले धर्मान्तरण के मुद्दे को सख्ती से दबाने की कोशिश की है। यही वजह है कि राजेश्वर सिंह किनारे किए गए हैं।
वैसे ये भी एक बड़ी हकीकत है कि नरेन्द्र मोदी जब भी सत्ता के केन्द्र में रहे हैं हर बार उन्होने इन फ्रंटल संगठनों के एजेंडे को हाशिए पर डाला है और इनके निशाने पर रहे हैं। गुजरात इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। अब नरेन्द्र मोदी को एक बार फिर उन्ही चुनौतियों से जूझना पड़ रहा है जो चुनौती अतीत में हर बीजेपी की सरकार के सामने आई है। हालांकि मोदी ने पहली बाधा पार कर ली है लेकिन सवाल अभी खत्म नहीं हुए हैं। सवाल यही है कि क्या नरेन्द्र मोदी का सख्त रवैया वाकई संघ से जुड़े संगठनों की गतिविधियों पर पूरी तरह काबू पा सकता है? या फिर ये सिर्फ हालिया डैमेज कन्ट्रोल की कोशिश भर है ताकि बजट सत्र में सरकार उन अध्यादेशों को कानून में बदल पाए जिन्हें पास कराने में वो शीतकालीन सत्र में चूक गई थी। ये सवाल इसलिए भी हैं क्योंकि बीजेपी के भीतर ऐसे नेताओं की कमी नहीं है जो खुद ही विकास के एजेंडे से अलग संघ के एजेंडे के साथ चलना अपनी सियासत के लिए ज्यादा जरूरी मानते हैं।