वासिंद्र मिश्र
एडिटर (न्यूज़ ऑपरेशंस), ज़ी मीडिया


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पहले बामसेफ फिर डीएस 4, फिर बहुजन समाज पार्टी जिसकी सियासत शुरु हुई तिलक तराजू और तलवार के खिलाफ दिए नारे से, वक्त बदला तो सियासी जरूरतें भी बदली और बीएसपी ने 'हाथी नहीं गणेश है ' के नारे भी उछाले और पार्टी को इसका फायदा भी मिला। 2007 में हुए विधानसभा चुनावों में बदली हुई बीएसपी ने पूर्ण बहुमत हासिल कर लिया लेकिन ये बहुमत महज पांच साल में ही अल्पमत में बदल गया और पार्टी को सत्ता से बेदखल होना पड़ा। लेकिन ये हार की शुरुआत थी ।  2014 के लोकसभा चुनाव और फिर राज्यों के विधानसभा चुनावों में हार-दर- हार का ऐसा सिलसिला चला कि अब राष्ट्रीय पार्टी की पहचान भी खतरे में है।


ऐसे में बीएसपी मुखिया मायावती ने वापस जड़ों की ओर लौटने का फैसला किया है। यानि एक बार फिर बीएसपी अपनी हिल चुकी जड़ों में जान फूंकने के लिए दलित राजनीति का सहारे लेने की तैयारी कर रही है । अब सवाल ये कि क्या ये बीएसपी के मेकओवर की शुरुआत मानी जाए या फिर खात्मे की पहली पटकथा जिसका पहला अध्याय खुद मायावती ने लिख दिया है।


देश की सियासत में इन दिनों बीजेपी की रफ्तार क्या है इसे ज्यादा बताने की जरूरत नहीं है तो वहीं यूपी की सियासत में इन दिनों अजब गजब रंग देखने को मिल रहे हैं। यहां कई पुराने धुरंधर अपनी राजनीति की दिशा बदलने में जुटे हैं तो कई ऐसे हैं जिन्हें ये पता नहीं कि आखिर आगे का रास्ता तय कैसे होगा। विचारधाराओं के द्वंद में फंसे ऐसे दलों की फेहरिस्त में इन दिनों में सबसे ऊपर बीएसपी का नाम दिखाई दे रहा है।  सवाल ये कि अपनी पुरानी विचारधारा की ओर यू टर्न ले रही बहुजन समाज पार्टी में पैदा हो रही अकुलाहट। कहीं पार्टी के वजूद पर तो भारी नहीं पड़ने वाली  सर्वजन की पार्टी बनने चले बहुजन समाज पार्टी की कर्ताधर्ता मायावती के हिस्से पिछले कुछ सालों में लगातार आई सियासी नाकामियों का असर दिखने लगा है।  ऐसा लग रहा है कि सर्वजन हिताय के अपने नारे से बीएसपी का मोहभंग हो गया है ।  मायावती ने राज्यसभा के लिए अपने प्रत्याशियों के ऐलान के बहाने इसके संकेत भी दे दिए हैं।


हालांकि ये बदलाव बदले माहौल में बीएसपी को कितना फायदा पहुंचा पाएगा।  ये कहना मुश्किल है खासकर तब जब  बदलाव के इस दौर में बीजेपी में अमित शाह और नरेंद्र मोदी की जोड़ी एक साथ कदम से कदम मिलाकर हाइटेक तरीके से देश को तरक्की के रास्ते पर ले जाने का दावा कर रही है।  इनके एजेंडे से विवादित मुद्दे गायब हैं और दिल्ली के ताज पर कब्जे के बाद अब निशाना राज्यों की सत्ता है जिसमें लगातार कामयाबी मिल रही है ।


दूसरा बदलाव बीएसपी और दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों में दिख रहा है जो रेगिस्तान में बैठे उस शुतुरमुर्ग सरीखा बर्ताव कर रही हैं जिसकी दुनिया सीमित है। इन्हें लगता है कि देश में बदलाव की चरम लहर में भी उनका घिसा-पिटा फॉर्मूला ही काम आएगा। बिहार में महादलित को मुख्यमंत्री बनाने से की गई नीतीश कुमार की शुरुआत ने यूपी में लगता है।


मायावती को भी नई राह दिखा दी है और इसी फॉर्मूले के तहत मायावती ने राज्यसभा के लिए दोबारा दलित कार्ड खेल दिया है। इसके लिए मायावती ने पार्टी के जमे जमाए उन सिद्धांतों से भी समझौता करने से परहेज नहीं किया है जो किसी भी नेता को दो बार से ज्यादा नामित करने की इजाजत नहीं देता। माया की ताजा लिस्ट में वीर सिंह का नाम इस परम्परा को तोड़ रहा है जो तीसरी बार मायावती की लिस्ट में जगह पाने में कामयाब हुए हैं।


बीएसपी अकेले ऐसी पार्टी रही है जो उम्मीदवारों की लिस्ट जारी करते हुए उनकी जाति का आंकड़ा भी जारी करती रही है लेकिन नतीजों के सामने आने के बाद भी शायद पार्टी सबक लेने को तैयार नहीं है। लोकसभा चुनावों में बीएसपी ने 21 सीटों पर ब्राह्मण, 17 सीटों पर एससी एसटी, 15 पर ओबीसी, 19 पर मुस्लिम, 8 सीटों पर राजपूत, 29 सीटों पर अन्य अगड़ी जातियों के लोगों को मैदान में उतारा तो वहीं 7 महिलाओं को भी टिकट दिया था लेकिन नतीजा ये हुआ कि लोकसभा में बीएसपी की एन्ट्री तक नहीं हो पाई।


लोकसभा चुनाव के बाद हरियाणा में भी बीएसपी ने जाति के आधार पर ही टिकट बांटे। यहां अरविंद शर्मा को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर, दलित-ब्राह्मण कार्ड खेलने की कोशिश की लेकिन कामयाबी मिली सिर्फ एक सीट पर और सिर्फ 4.4 फीसदी वोट ही मिले। वहीं महाराष्ट्र में भी बीएसपी ने इसी आधार पर उम्मीदवार उतारे लेकिन सिर्फ 2.3 फीसदी वोट ही मिल पाए और पार्टी अपना पुराना प्रदर्शन तक नहीं दोहरा पाई ।


इतना सबकुछ होने के बाद भी ऐसी पार्टियों को शायद बदले हालात का अहसास नहीं होता दिख रहा है। आपको यहां ये भी याद दिलाना जरूरी है कि साल 2007 में यूपी में जनता ने गठबंधन की सियासत से तंग आकर ही मायावती को पूर्ण बहुमत की सत्ता दी थी, लेकिन सत्ता में आने के बाद भी जाति की सियासत से बीएसपी का पीछा नहीं छूटा ।  पांच साल सरकार भी इसी आधार पर चली, जिसका खामियाजा 2012 के विधानसभा चुनाव और 2014 के लोकसभा चुनाव में  बीएसपी को भुगतना पड़ा ।


यानी सर्वजन हिताय का जो नारा मायावती ने दिया था और इसके जरिए सोशल इंजीनियरिंग का जो दांव खेला गया था उसमें कामयाबी नहीं मिली तो एक बार फिर पुराने ढर्रे पर लौटने लगी है बीएसपी लेकिन सवाल ये कि क्या ऐसे वक्त में जबकि जातिधर्म से उपर उठकर सियासी बिसात सज रही है, वोटिंग का पैटर्न तेजी से बदल रहा है तो क्या बदले माहौल में सिर्फ जातीय अस्मिता का नारा बीएसपी के लिए सत्ता में पहुंचने भर के आंकड़े जुटा देगा।