विचारों के `अकाल में सारस` की बिदाई
वे तमाम ऐसे शब्दों का प्रयोग अपनी कविताओं में करते हैं, जो कि अब कमोवेश बिसरा से दिए गए हैं . वे समय और भाषा की अनंतता को एक साथ जीवंत करते नजर आते हैं. उनकी विदाई के बाद क्या कोई ऐसा कर पाएगा?
‘‘मेह बरस कर खुल चुका है / खेत जुतने को तैयार थे / एक टूटा हुआ हल मेंड़ पर पड़ा था / और एक चिड़िया बार-बार बार-बार / उसे अपनी चोंच से / उठाने की कोशिश कर रही थी / मैंने देखा और मैं लौट आया / क्योंकि मुझे लगा मेरा वहां होना /जनहित के उस काम में दखल देना होगा .''
केदारनाथ सिंह महज मनुष्य नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानवता को अपने में समेटे लगातार हमें समझाते रहे कि इस सृष्टि में किसी की अहमियत किसी से भी कम नहीं है. उनकी कविताओं में हमें अपने समय और अपने समय के मनुष्य के संघर्ष, उसकी बेचैनी और उस बेचैनी को शांत करने का मरहम एक साथ नजर आता है . वे ‘‘अकाल में सारस'' को यूं ही नहीं ले आते. वे लिखते हैं,
‘‘पानी को खोजते / दूर-देसावर से आये थे वे / पानी को खोजते / दूर देसावर तक जाना था उन्हें.'' परंतु वे यहां रुके नहीं . उन्होंने नीचे शहर को देखा और केदारजी उनकी निगाह को पढ़ते हुए कहते हैं, ‘‘न जाने क्या था / उस निगाह में / दया कि घृणा / पर एक बार जाते-जाते / उन्होंने शहर की ओर मुड़कर / देखा जरूर." अपने जीवन के चालीस से भी ज्यादा वर्ष उन्होंने दिल्ली में रहते हुए बिताए. दिल्ली जहां हर दूसरा शब्द राजनीति में डूबा होता है . यहां की पूरी भाषा ही किसी और ग्रह की प्रतीत होती है. उसी शहर में लगातार सक्रिय बने रह कर उन्होंने अत्यन्त महत्वपूर्ण राजनीतिक कविताएं लिखीं . परंतु उनकी भाषा का कमाल है कि वह उनमें कहीं भी राजनीतिक शब्दावली की कई झलक दिखाई ही नहीं देती.
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उनकी ‘‘कुएं" शीर्षक कविता को देखिए ‘‘कुओं को ढक लिया है घास ने / क्यों कुओं ने क्या बिगाड़ा घास का / बिगाड़ा तो कुछ नहीं / बस घास का फैसला है कि अब कुएं नहीं रहेंगे ." वे अपनी मार्क्सवादी चिंतन विचारधारा को छुपाते नहीं, लेकिन वे उसका किस तरह स्थानीयता से गठबंधन करते हैं वह वास्तव में हमें समझा जाता है कि भारी भरकम शब्दावली वह सब नहीं समझ सकती है जो कि अपने परिवेश की चिड़िया, पेड़, कुएं या हल समझा जाते हैं. एक डायनासोर वैश्विकता का स्थान तो स्थानीयता ही ले सकती है. वे किसी के पीछे चलने में भी संकोच महसूस नहीं करते. तभी तो अपने संग्रह ‘‘अकाल में सारस" को कवि त्रिलोचन को समर्पित करते हुए लिखते हैं, ‘‘तब से कितना समय बीता / हम एक भी चल रहे हैं / आगे-आगे कवि त्रिलोचन / पीछे-पीछे मैं / एक ऐसे बाघ की तलाश में / जो एक सुबह / धरती पर गिरकर टूट जाने से पहले / वह था."
बाघ की उनकी वह तलाश लगातार जारी रही. अनेक बार वे उसे अलग-अलग प्रतीकों और प्रवृत्तियों से जोड़ते और उनमें ढूंढते भी नजर आते हैं. उनकी अत्यन्त महत्वपूर्ण कविता ‘‘बाघ" के अंत में बुद्ध और बाघ दोनों की बात करते हुए लिखते हैं, ‘‘पर कभी-कभी दोनों का हो जाता था सामना / फिर बाघ आंख उठा / देखता था बुद्ध को / और बुद्ध सिर झुका / बढ़ जाते थे आगे / इस तरह चलता रहा." दुनिया में सभी के अस्तित्व को स्वीकारने से ही तो सामंजस्य होता है, आपसी स्नेह पनपता है, भाईचारा उपजता है. परंतु आज बाघ और बुद्ध के सहअस्तित्व की बात तो छोड़ ही दीजिए . दो भिन्न मतावलंबियों का साथ रहना तो दूर की बात है, असहमत माता-पिता और उनके बच्चे भी साथ नहीं रह पा रहे हैं.
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मां-बाप बच्चों को मार डाल रहे हैं और बच्चे भी यही कर रहे हैं. इस भयानक अमानवीय काल में, वे समझाते हैं, ‘‘कहते हैं पिता / ऐसा अकाल कभी नहीं देखा / ऐसा अकाल कि बस्ती में / दूब तक झुलस जाए/सुना नहीं कभी / दूब मगर मरती नहीं / कहते हैं वे / और हो जाते हैं, चुप ." परंतु उनकी यह चुप्पी स्थायी नहीं है . अगले ही क्षण कह उठते हैं, ‘‘मेरे बेटे / बिजली की तरह कभी मत गिरना / और कभी गिर भी पड़ो / तो दूब की तरह उठ पड़ने के लिए / हमेशा तैयार रहना." एक छोर पर वे बुद्ध और बाघ को एक साथ देखते हैं तो दूसरे छोर पर बिजली और दूब एक साथ उनके जेहन में आती हैं. सब कुछ नष्ट कर देने वाली प्रवृत्ति को वे सबसे सुकोमल प्रवृत्ति से जोड़ रहे हैं और लगातार इस पृथ्वी की सनातनता में अपना अडिग विश्वास बनाए रखे हुए हैं.
वे तमाम ऐसे शब्दों का प्रयोग अपनी कविताओं में करते हैं, जो कि अब कमोवेश बिसरा से दिए गए हैं . वे समय और भाषा की अनंतता को एक साथ जीवंत करते नजर आते हैं. उनकी विदाई के बाद क्या कोई ऐसा कर पाएगा? आज कविता में जिस तरह की ठोस भाषा का प्रयोग हो रहा है, उसमें उसकी लयात्मकता कहीं खो सी गई है. केदारनाथसिंह की कविताएं कुछ ज्यादा समझाती नहीं . वे हमारे कंधे पर हाथ रखे साथ-साथ चलती हैं और शब्दों की हथेलियों की गरमाहट भी हमें समझाने के बजाए बहुत कुछ संप्रेषित करती चलती है. हम शब्दकोश के झंझट से निकलकर एक ऐसी दुनिया में प्रविष्ट हो जाते हैं जहां सब कुछ अपना-सा ही है . बेहद निर्मल और अत्यन्त सहज.
अलंकारिता यहां गुदने की तरह स्थायी है. गहने की तरह रोज उतारने-पहनने नहीं पड़ते. हमेशा साथ रहती है. माथे से लेकर पैरों तक और अपनी-अपनी तरह से वह गोदना स्वयं को और जिस अंग को गोदा गया है, उसे व्याख्यायित करता चलता है. विचार जानने के लिये केदारजी के यहां भाषा की विशेषज्ञता की आवश्यकता नहीं पड़ती. एक भावनात्मक गाव की जरूरत जरूर महसूस होती है, अपने परिवेश से. ओ मेरी उदास पृथ्वी नामक कविता की शुरुआत में लिखते हैं, ‘‘घोड़े को चाहिए जई / फूल सुंघनी को फूल / टिटिहरी को चमकता हुआ पानी / बिच्छु को विष / और मुझे?" एक बेहद कटु सच्चाई को अपने माथे लेते हुए वे इसी कविता में कहते हैं, ‘‘कि इस समय मेरी जिह्वा / पर जो एक विराट झूठ है / वही है - वही है मेरी सदी का / सबसे बड़ा सच." और इसके बाद वे, अंत में अपना सब कुछ देते हुए कहते हैं ‘‘यह लो मेरा हाथ. इसे मैं तुम्हें देता हूं. और अपने पास रखता हूं. अपने होंठों की थरथराहट. एक कवि को और क्या चाहिए"
केदार जी को भी शायद इससे अधिक तो कुछ नहीं चाहिए था. परंतु वे मानते थे कि उनका काम अभी पूरा नहीं हुआ है. तभी तो उन्होंने ‘‘प्रिय पाठक" कविता में लिखा था, ‘‘एक कवि का काम चलता नहीं है / अगले जनम के बिना." आगे एक जगह वे लिखते हैं, ‘‘हमारे समय में / कोई एक पता होता नहीं कवि का / वह जितनी बार सांस लेता है / उतनी बार / बदल जाता है उसका पता." वे लगातार नई चुनौतियों से निपटते रहे. इसीलिए उनकी हर कविता नई तरह की ताजगी, ऊर्जा और समसामयिकता के साथ ही साथ अद्वितीय शाश्वतता लिए हमारे सामने प्रकट होती है. एक कविता जो दोहे का आभास देती है, में वे बताते हैं -
‘‘पूछता है, एक चेहरा दूसरे से मौन, बचा हो साबुत - ऐसा कहां है वह कौन?
सिर्फ कौआ एक मंडराता हुआ सा-व्यर्थ, समूचे माहौल को दे रहा है कुछ अर्थ."
अब उन्हें क्या श्रद्धांजलि दें? उनका जाना तो जैसे हमें कुछ जागृत सा कर गया है. यादों पर जमी धूल की परत हटी है और महसूस हुआ है कि इस पृथ्वी, सृष्टि और समूची मानवता के प्रति हमारी देयता अभी पूरी नहीं हुई है . उनकी कविता, ‘‘कुछ सूत्र जो एक किसान बाप ने बेटे को दिए" में वे समझाते हैं, ‘‘और सबसे बड़ी बात मेरे बेटे / कि लिख चुकने के बाद / इन शब्दों को पोंछकर साफ कर देना / ताकि कल जब सूर्योदय हो / तो तुम्हारी पटिया / रोज की तरह / धुली हुई / स्वच्छ / चमकती रहे." वे यह भी समझा गए हैं, ‘‘दुनिया बदलने से पहले / मुझे बदल डालनी चाहिए / अपनी चादर / जो मैली हो गई है."इससे ज्यादा वह और क्या समझा सकते थे . वे हमेशा हमारे साथ ही हैं.
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)