हम कहते हैं, न.. 'मैं बहुत गुस्से में था, मुझे माफ कर दीजिए.' यह कुछ वैसा ही जैसा हम सुनते रहते हैं कि मुझे क्षमा कर दीजिए, मैं नशे में था! मतलब स्पष्ट है कि नशे में होना और गुस्से में होना एक जैसा है!
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आप किसी ऐसे व्यक्ति को जानते हैं, जिसे कभी गुस्सा न आता हो! जो कभी तेज आवाज में न बोला हो. जो किसी बात पर कुछ दिन दूसरों से खफा न रहा हो. मैं तो नहीं जानता! ऐसे किसी बच्चे, किशोर पुरुष, स्त्री, बुजुर्ग को जो नाराज न हुआ हो कभी. जब कभी हमें गुस्सा आता है, तो उन 'दो -चार-छह मिनट' के लिए हम दूसरी दुनिया में ही चले जाते हैं. जहां दिमाग से हमारा नियंत्रण कम नहीं होता, कुछ देर के लिए खत्म सा हो जाता है.
हमारे दिमाग, चेतना का उन चंद लम्हों में गुस्से द्वारा अपहरण कर लिया जाता है और हम सब इस बात को अच्छे से जानते हैं कि जब कभी हमारा अपहरण कर लिया जाता है तो हमारे सारे निर्णय हम नहीं बल्कि वह करता है, जिसके हम कब्जे में होते हैं. गुस्से, तनाव और नाराजगी के चरम पर होने के दौरान असल में हम भी उसी स्थिति में पहुंच जाते हैं. हमारे चेतना और दिमाग समय के कुछ हिस्से के लिए ही सही लेकिन हमारे नियंत्रण से बाहर हो जाते हैं.
तभी तो हम कहते हैं, न.. 'मैं बहुत गुस्से में था, मुझे माफ कर दीजिए.' यह कुछ वैसा ही जैसा हम सुनते रहते हैं कि मुझे क्षमा कर दीजिए, मैं नशे में था! मतलब स्पष्ट है कि नशे में होना और गुस्से में होना एक जैसा है! सच में ऐसा ही है, जैसे हम नशे वाले व्यक्ति को माफ कर देते हैं, वैसे ही गुस्से में किसी के आचरण को माफी मांग लेने पर क्षमा कर देते हैं. यह बात अलग है कि गुस्से में लोग अक्सर जो बातें कह जाते हैं, वह कई बार रिश्तों में गांठ डालने का काम कर जाती हैं.
डियर जिंदगी : 'अकेले हम, अकेले तुम' और कम होता प्रेम...
अब जरा, बीते कुछ दिनों की ऐसे घटनाओं की बात करते हैं. जिसकी जड़ में बस कुछ चंद मिनट ही थे, जिस पर काबू नहीं रखने की सजा उन्हें जिंदगी पर भोगनी पड़ेगी. ऐसे बेकाबू लम्हे लाखों लोगों की जिंदगी तबाह कर देते हैं. दिल्ली और देशभर में सड़कों पर वाहनों की मामूली टक्कर पर जानलेवा हमले इसका सबसे अच्छा उदाहरण हैं.
जो हर बरस बढ़ते जा रहे हैं. कुल मिलाकर घर-परिवार, पति-पत्नी, दोस्त और ऑफिस सब जगह इन कुछ खतरनाक लम्हों की कीमत कई बार जिंदगी भर चुकानी पड़ती है. दिल्ली में एक करोबारी की बुधवार रात उनके घर पर नौकरी कर रहे युवक ने हत्या कर दी. वजह, नौकरी से निकाला जाना. नौकर बहुत गुस्से में था. अपमानित महसूस कर रहा था. यह गुस्सा नौकरी से निकालने वाले पर तो भारी पड़ा ही लेकिन हत्या करने वाले का जीवन कभी इस गुस्से को क्षमा नहीं कर पाएगा!
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मैंने एक महीने में देश के बड़े शहरों से प्रकाशित होने वाले अखबार पर गुस्से का असर जानने का प्रयास किया. मैंने पाया कि कोलकाता, मुंबई से लेकर चेन्नई, अहमदाबाद, जयपुर, भोपाल, पटना और बेंगलुरू तक में रिश्तों के टूटने, आत्महत्या और हत्या तक में पहुंचने में सबसे बड़ी भूमिका अनियंत्रित गुस्से की थी.
गुस्सा सबको आता है, लेकिन ऐसा गुस्सा जिसमें हम इस तरह हिंसक हो उठें कि यह किसी के जीवन को समाप्त करके खत्म हो, कितना खतरनाक है. इसके लिए बस थोड़ी सी संवेदनशीलता चाहिए, किसी रिसर्चर का जटिल अध्ययन नहीं. हिंसा, गुस्से को बढ़ाने वाली चीजें कदम-कदम पर मिल रही हैं. टीवी और व्हाट्सऐप गुस्सा, हिंसा बढ़ाने की फैक्ट्री बनते जा रहे हैं. इनके डर से प्रेम, स्नेह और धैर्य किसी कोने में दुबके से मालूम हो रहे हैं.
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गुस्से में सबसे अहम है, आपके नजदीक मौजूद मित्रों, परिजनों का नजरिया. उनके पास आपको संभालने के लिए जो सब्र, प्यार और स्नेह है, वही आपका सबसे बड़ा रक्षा कवच है. इसलिए अपने आसपास प्रेम को बढ़ाइए. जिससे यह कहने की नौबत कम से कम आए कि जिंदगी इन्हें माफ करना, यह गुस्से में थे. वैसे ऐसा करने के बाद भी जिंदगी कई बार चाहकर भी माफ करने की स्थिति में नहीं होती.
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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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