डियर जिंदगी : बच्‍चे कैसे निकलेंगे 'उजाले' के सफर पर...
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डियर जिंदगी : बच्‍चे कैसे निकलेंगे 'उजाले' के सफर पर...

असल में एक समाज, देश के रूप में हम ऐसे समूह हैं, जो हर बात पर मासूमियत से यकीन करते हैं. बिना तथ्‍यों को जाने और उनका विश्‍लेषण किए यकीन करने की आदत के कारण हम बहुत जल्‍दी एक किस्‍म के हिस्‍टीरिया का शिकार होते हैं.

डियर जिंदगी : बच्‍चे कैसे निकलेंगे 'उजाले' के सफर पर...

भारत में इंटरनेट, सोशल साइट से चिपके रहने की आदत बीमारी की ओर बढ़ती जा रही है. बच्‍चे, किशोर और युवाओं का '(अ)सोशल' समय निरंतर बढ़ता जा रहा है, लेकिन घर-परिवार और समाज के साथ गुजरने वाला समय घट रहा है. स्‍कूल-कॉलेज बच्‍चों और अभिभावकों के साथ संवाद करने की जगह 'व्‍हाट्सअप' पर मैसेज को कहीं अधिक महत्‍व दे रहे हैं. हर कोई डिजिटल की बात कर रहा है, लेकिन समझ नहीं रहे कि हमने उस चीज को अपने जीवन में इतना अधिक महत्‍व दे दिया है, जिसे संभालने का हमारे पास कोई उपाय नहीं है.

हमने इंटरनेट के उलझे, भटकीले जंगल में बच्‍चों को स्‍मार्ट और सुपरमैन बनाने के नाम पर अकेला छोड़ दिया है. हम गैजेट्स से खेलते बच्‍चों की स्‍मार्ट अदा पर हम मुग्‍ध हुए जा रहे हैं जबकि बच्‍चे बीमार और अकेले.

बच्‍चे हमेशा माता-पिता से एक कदम आगे चलते हैं. ऐसे में वह हर उस चीज को आसानी से अपना लेते हैं, जो उन्‍हें उपलब्‍ध हो जाए. इसलिए इस बात का ध्‍यान रखना बेहद जरूरी है कि हम उनके हाथ में जो तकनीक और सुविधा दे रहे हैं, क्‍या उस पर अभि‍भावक खुद नियं‍त्रण रख पाएंगे. रविवार को दिल्‍ली में यूनिसेफ के 'Digital Carnival' में शामिल होने का अवसर मिला. इसमें विशेषज्ञों में डिजिटल के रवैए और उसके विस्‍तार पर दिखी असहमति हमें यह बताने के लिए पर्याप्‍त है कि हम अभी डिजिटल को लेकर कितने संशय में हैं.

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असल में एक समाज, देश के रूप में हम ऐसे समूह हैं, जो हर बात पर मासूमियत से यकीन करते हैं.बिना तथ्‍यों को जाने और उनका विश्‍लेषण किए यकीन करने की आदत के कारण हम बहुत जल्‍दी एक किस्‍म के हिस्‍टीरिया का शिकार होते हैं. इसे ऐसे समझें कि इन दिनों समाज हर बात के हल के लिएइंटरनेट की ओर देखने लगा है. हम समझ नहीं रहे कि इंटरनेट बस एक माध्‍यम है, वह अपने आपमें कोई 'डिलेवरी' नहीं है. जब तक बच्‍चों के हाथ में देने के लिए किताबें नहीं होंगी, तो किताब उनको मिलेगी कैसे. लेकिन हम यह सवाल नहीं उठा रहे कि बच्‍चों को किताब कैसे मिले. क्‍योंकि सरकार हमें समझा देती है कि हम सारी सेवा को डिजिटल करने जा रहे हैं. इससे सारी व्‍यवस्‍था ठीक हो जाएगी. इंटरनेट के बारे में भी ऐसा ही है. डिजिटल और 'चैटर' बाक्‍स जैसी वर्चुअल सर्विस, जिसे हम दोस्‍ताना प्‍लेटफॉर्म भी कह सकते हैं, एकदम अलग चीजें हैं. भारतीय दोनों को खतरनाक तरीके से मिक्‍स कर रहे हैं. डिजिटल से हम आगे कैसे जा सकते हैं, हम उसके साथ क्‍या प्रयोग कर सकते हैं. उसे टूल बनाकर उसका उपयोग करने की जगह हम केवल एक प्रोडक्‍ट के आकर्षण में उलझकर रह गए हैं. जो कि बेहद निराशाजक है.

भारतीयों पर डिजिटल 'पैक' में उलझे हुए समाज बनकर रह जाने का खतरा मंडरा रहा है. युवा जिस तेजी से (अ)सोशल दुनिया में उलझे हुए हैं, उससे उनका अकेलापन, तनाव हर दिन नए खतरे की ओर बढ़ रहा है. वर्चुअल चैटरूम, फर्जी प्रोफाइल से बने अकाउंट केवल बैंक बैलेंस पर खतरा नहीं हैं, यह हमारे बच्‍चों के शरीर और मन के शोषण का भी केंद्र बन रहे हैं.

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इंटरनेट अब बच्‍चों और युवाओं के बीच लत का रूप ले चुका है. माता-पिता समझ नहीं पा रहे हैं कि बच्‍चों के व्‍यवहार और आदतों में आए बदलाव को कैसे संभालें. अदालतों और सरकार के भरोसे हम अपने बच्‍चों के बचपन को नहीं छोड़ सकते. इसके लिए हमें समय रहते सजगता से प्रयास करना ही होगा.

धीरे-धीरे बच्‍चों का परिवार से संवाद कम होता जा रहा है. बच्‍चे देर रात पढ़ते हुए सोशल मीडिया पर चैट कर रहे हैं. उनके अकाउंट आए दिन हैक हो रहे हैं. वह अनजाने में ऐसी चीजें, कंटेंट शेयर कर रहे हैं, जो उनके ही खिलाफ उपयोग किया जा रहा है. बच्‍चों को समझना होगा कि उनके पासवर्ड और निजी तस्‍वीरें जिसे वह 'कूल' होने का प्रतीक मानते हैं, उनके खिलाफ सबसे बड़ी साजिश का केंद्र बन रहे हैं.

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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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