वह गांव में ही रहते हैं. शहर तभी आना होता है, जब कोई बहुत जरूरी चीज़ हो. उम्र 80 के पार है. सेहत उतनी तंदुरुस्‍त जिसके लिए हम रात-दिन नए-नए 'टोटके' करते रहते हैं. सबसे कमाल की बात है, नजर से लेकर ‘शुगर’ तक सब उसी दायरे में है, जिसकी सलाह दी जाती है. हालांकि जिंदगी उनके लिए भी आसान नहीं है. बच्‍चे शहर में रहते हैं, गांव में उन्‍हें अकेले ही रहना है. पत्‍नी कई बरस पहले साथ छोड़ गई हैं. आम का बगीचा, नदी का किनारा और साफ हवा उनके कुछ सच्‍चे, अच्‍छे दोस्‍त हैं. मध्यप्रदेश के रीवा जिले के दूरस्‍थ गांव में रहने वाले वंशपति तिवारी जी ने पूरी उम्र एक सीधे सच्‍चे फलसफे पर गुजारी है, ‘हार नहीं मानना’. जो कह दिया, हर हाल में निभाया, तनाव को कभी अपने पास फटकने नहीं दिया.


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कुछ समय पहले जब मैं आपसे मिला, संवाद का भरपूर समय मिला. मैंने पूछा, ‘आजकल लोग तनाव की बहुत बातें करते हैं, लोग तनाव से होने वाली बीमारियों से घिरे रहते हैं. आप जब अपनी जिंदगी की शुरुआत कर रहे थे, जिंदगी तब भी तो मुश्किल ही रही होगी. कैसे आप उस वक्‍त का सामना ऐसे कर पाए, जब चीजें किसी भी कीमत पर थी ही नहीं. न्‍यूनतम साधानों से जिंदगी की पटकथा कैसे लिखी गई?'


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तिवारी जी ने जो कुछ कहा, उन सारी बातों को सूत्र में बांधकर आपके सामने रख रहा हूं. हम अपनी जिंदगी की सहूलियतों के अनुसार इन्‍हें अपनी जीवनशैली में शामिल कर काफी हद तक तनाव और डिप्रेशन जैसे खतरों से बच सकते हैं. जिंदगी हमेशा उतनी ही मुश्किल थी, जैसे आज है. जिंदगी उतनी ही सरल है, जैसे कल थी. लेकिन हम चीजों का सामना सही तरीके से करने की जगह उसमें दुराग्रह और लालच को इतना मिक्‍स कर देते हैं कि आज से आगे कुछ देखने की हमारी क्षमता निरंतर कम होती जाती है. आइए, इन 80 बरस के ‘नौजवान’ की कुछ खास बातों पर गौर फरमाएं, शायद कोई रास्‍ता निकल सके...


1. आज कहा जा रहा है कि ‘बड़ा’ तनाव है. लेकिन आज से साठ, सत्‍तर बरस पहले तो देश की परिस्थिति कहीं अधिक मुश्किल थी. जिनके पास धन था, उनको भी उतने ही संघर्ष से गुजरना होता था. मिसाल के लिए हर दिन लगभग पंद्रह से बीस किलोमीटर पैदल चलना होता था. तो इस तरह संघर्ष हमारी नियति था. इसका एक फायदा यह होता कि हम हर चीज़ के लिए प्राकृतिक तरीके से तैयार हो गए. हम हमेशा दौड़ने और लड़ने के लिए तैयार रहते थे. हम सूखे, भुखमरी और बीमारी में अपना हौसला नहीं, खोते थे.
2. सूखे, भुखमरी और बीमारी से बढ़कर तो कोई तनाव नहीं है, आज. यह नहीं है, तो हमने ‘नकली’ तनाव के कारण पाल लिए हैं. (ये भी पढ़ें: डियर जिंदगी : रिश्‍तों में अभिमान कैसे कम होगा!)
3. हमने एक-दूसरे के लिए समय कम कर दिया. दूसरे के संकट के लिए पहले मात्र एक सूचना पर दौड़ते थे, अपने नुकसान की चिंता नहीं, दूसरे की मदद एक ‘फिलॉसफी’ थी. यह एक संस्कृति थी. जो सबके लिए शुभ थी.
4. हम संकट की चिंता नहीं करते थे, उसका मुकाबला करते थे. पैसे बहुत कम होने के बाद भी कम नहीं पड़ते थे, क्‍योंकि उनका वितरण विवेक के आधार पर था. जिद और बच्‍चों की हर बात मानने के आधार पर नहीं.
5. हम स्‍वयं की और बच्‍चों की क्षमता का सही मूल्‍यांकन करते थे. हमें पता था हर बच्‍चा सिकंदर नहीं है. इसलिए उसे उसके हिसाब से विकसित होने दिया.
6. हम पैसे के कथित प्रबंधन और गणित में उलझने की जगह इतना ही ध्‍यान रखते थे कि कुछ पैसे परेशानी के समय के लिए बचे रहें, बस.
7. बच्‍चों को छोटे से ही कुछ मुश्किल चीजों के लिए भी तैयार करें. जैसे अक्‍सर एसी में जाते हैं तो कभी कभी स्‍लीपर में भी जाएं. बच्‍चे को न कहना सीखें, उसकी हर मांग के सामने सरेंडर न करें.
8. आगे की तरफ देखें, लेकिन आज का मज़ा किरकिरा न करें. खुलकर हंसें और खूब हंसें. (ये भी पढ़ें: डियर जिंदगी: कैसे सोचते हैं हम…)
9. पति-पत्‍नी आज की तरह पहले भी खूब लड़ते थे, लेकिन उसके बाद अगला दिन सामान्‍य हो जाता था. क्‍योंकि संकट इतने थे कि मुंह फुलाकर जिया नहीं जा सकता था. मन में कुछ रहता नहीं था, इसलिए मन कभी बीमार नहीं होता था.
10. वेतन एकमात्र आय का साधन था. सवाल यह नहीं कि वह पर्याप्‍त था या नहीं, लेकिन हम उसमें निबाह करते थे. आप यह नहीं कह सकते कि क्रेडिट कार्ड और पर्सनल लोन जैसी चीजें नहीं थीं, क्‍योंकि साहूकार तो तब भी था. लेकिन हम उसकी ओर कभी नहीं गए. क्‍योंकि हम जानते थे कि कर्ज बीमारी की राह है. वह जीवन के सुख की राह में बांध बनाने जैसा है.


आशा है, दादा जी की पाठशाला के सुझाव जिंदगी को समझने, सुलझाने की दिशा में आपकी मदद करेंगे.


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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)


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