मुंबई में एक कमाल की चीज दिखी, भोजन करते हुए दूसरे की चिंता, मैंने यहां बचे हुए भोजन के प्रति जो नजरिया देखा वह अगर भारत में अगर आधे लोग ही अपना लें तो हम बड़ी आबादी का पेटभर सकते हैं.
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दूसरों के लिए करूणा, संवेदनशीलता हमारे समाज का अभिन्न हिस्सा रही हैं. हम साझा करके जीवन जीने की कला के लिए भी जाने गए. हममें से कुछ लोगों को याद हो तो हमारे यहां ‘सांझा’ चूल्हा जैसे प्रथा रही है. एक चूल्हा अनेक परिवारों की सहर्ष छांव हुआ करता था. समय के साथ चीजें बदल रही हैं. गांव, देहात से लेकर शहर और महानगर तक सब बदल रहे हैं, लेकिन क्या संवेदना भी बदल गई है.
दूसरों का ख्याल रखने का हमारा सबसे खूबसूरत ख्याल ही अब गुम हो रहा है. लेकिन यह ख्याल अब भी कायम है. हां, हुआ बस इतना है कि इस ख्याल में कुछ रुकावट आ गई है. इसकी गति कुछ धीमी जरूर पड़ गई है लेकिन थमी नहीं है.
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बस हो इतना रहा है कि हम जिंदगी की गति में कुछ ज्यादा उलझ गए हैं. हमने संवदेनशीलता,प्रेम और आत्मीयता जैसे कोमल शब्दों को बड़े उददेश्यों से जोड़ दिया है. हम छोटी- छोटी चीजों की सुदंरता को भूल गए हैं. ‘डियर जिंदगी’ ऐसी कोशिश का नाम है.
इन दिनों मुंबई में हूं. यहां एक कमाल की चीज पर नजर पड़ी. जिसकी कमी तो भले न कहें लेकिन आदत तो कम से नहीं ही देखने को मिलती है. वह है, भोजन करते हुए दूसरे की चिंता. यहां मैंने बचे हुए भोजन के प्रति जो नजरिया देखा वह अगर भारत में अगर आधे लोग ही अपना लें तो हम बड़ी आबादी का पेटभर सकते हैं.
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बुधवार की दोपहर मैं मुंबई के लोअर परेल में लंच के लिए गया. मेरे साथ मराठी डिजिटल पत्रकारिता के सुपरिचित चेहरे प्रशांत जाधव भी साथ थे. खाने की टेबल पर भले ही दो लोग थे. लेकिन भोजन करने वाला मैं अकेला था. बेहद कम मंगवाने पर भी खाना बच गया. प्रशांत ने उसे पैक करने को कहा. उसके बाद हम बाहर आए तो प्रशांत ने उस बेहद प्रेम से पैक करवाए गए भोजन को एक जरूरतमंद तक पहुंचा दिया.
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उन्होंने बताया कि वह हमेशा इस नियम का पालन करते हैं. मायानगरी, समय की गति से तेज भागती मुंबई में इस तरह के और भी किस्से सुनने केा मिले. जिनके मूल में यही था, ‘ थाली में आया भोजन पूरा पेट में जाएगा नहीं तो बचा हुआ कूडेदान की जगह भूखे पेट में जाएगा.’
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कितना सरल नियम है. लेकिन यह हमारी सोच से यह इतनी दूर क्यों है. जबकि शहर भूखे पेट से भरे पड़े हैं. दूसरों से साझा करने की एक सोच कैसे असर पैदा कर सकती यह इसका छोटा मगर जरूरी उदाहरण है. कई बार हम पर किसी छोटी घटना का असर कैसे होता है, इसका एक उदाहरण भी देखते चलिए. देर रात मेरे खाने से कुछ ऐसा सामान बच गया जिसका कोई भी उपयोग कर सकता था तो मैंने इसे होटल से पैक करवा कर बाहर किसी को देने का मन बनाया. रात गहरा चली थी, बाहर निकल कर समझ नहीं आ रहा था, किधर जाऊं. तभी सड़क पर एक विक्षप्त अवस्था में एक युवक दिखा. मैंने पैकेट उसे जाकर दे दिया. मैंने देखा कि उसने खाने से पहले यह तय किया था कि खाना सही है!
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इसका अर्थ तो यह हुआ कि शायद उसकी मानसिक अवस्था वैसी नहीं थी, जैसी बाहर से दिख रही थी. लेकिन उससे खुद को बचाए रखने के लिए यह रास्ता चुना. क्योंकि जैसी अवस्था में वह दिख रहा था उसके ठीक होने का संदेह संभव नहीं था. इस पर हम विस्तार से अगले अंकों में संवाद कर सकते हैं. यहां इस घटना के जिक्र का अर्थ केवल इतना ही कि भूख हमसे क्या करवा सकती है. लेकिन इस भूख को कैसे काफी हद तक रोका जा सकता था.
अक्षय पात्र फांउडेशन नाम की संस्था देश में स्कूली बच्चों को निशुल्क भोजन सुलभ कराने की दिशा में काम कर रही है. 2000 मे कर्नाटक के बेंगलूरु शहर से शुरू हुआ यह काम अब देशभर में फैल चुका है. कुल मिलाकर सबकी छोटी छोटी कोशिशों से दुनिया का रंग बदला जा सकता है.
यह ख्याल दिल में जरूर रहे कि इस बदलाव में हमारी हिस्सेदारी कितनी है!
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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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